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Poem

धूल, गंध और पतंगें

एक

चाँद पर भी कितनी धूल है
तुम रूमाल लाई हो न मीनाक्षी
ये आँसू नहीं है धूल पड़ गई है आँखों में
मैंने चश्मे सारे छोड़ दिए बिस्तर पर ही और आँखें लिए चला आया मना तो किया था तुमने
यह लाली शराब की नहीं है चाँद पर कहाँ है शराब?

तुम जब रो रही थी मैं जग रहा था
तुमने कहा चाँद पर चलो और मैंने कहा तुम चलो मैं पीछे-पीछे आता हूँ
तुमने कहा चाँद किसी के पीछे नहीं होता।
मैंने देखा तुम्हें तुम्हारी आँखों में था चाँद और उसमें कोई धूल नहीं थी
चाँद-सी होती हैं आँखें जिनमें जितना अँधेरा उतनी ही रौशनी

कितनी वीरानी है चाँद पर देखो साथ रहना रास्तों पर कोई बोर्ड नहीं
हवाओं में गंध है जो वह कविता की है
और कविता भटकाती है हमेशा
तुम्हें याद है कभी पतंगों से उड़े थे हमारे मन और उन पर सवार हो हम गए थे चाँद तक
शायद वहीं पड़ी हों वे पतंगें

दो

हम कहाँ रहेंगे?
कौन-सी छत होगी जिसकी छाँव में हम देखेंगे स्वप्न?
किस हवा में बिखरेगी तुम्हारी सुगंध मीनाक्षी?
किस दीवार पर लिखूँगा मैं तुम्हारा नाम
किस आवाज़ में बिखरेगी तुम्हारी उदासी कुमार गंधर्व की तान-सी

यहाँ इस तरफ़ एक झील है खारे पानी की
हरे पेड़ों की एक क़तार और पगडंडियों पर निशान अनजाने पाँवों के
कहाँ जाता होगा यह रास्ता?

तुम्हारे आँसुओं से कितना मिलता है झील का स्वाद
मेरे क़दमों से कितने मिलते हैं ये अनजान निशान
यह जो धरती पर पड़ा है अधखाया फल
यह जो घिसटता हुआ निशान है इसके पास

धरती कहीं चाँद से बहिष्कृतों का शरणस्थल तो नहीं मीनाक्षी?

तीन

सुनो मीनाक्षी
इस आवाज़ को सुनो
सुनो इस निर्वात से उठती आवाज़ को

इस आवाज़ को सुनो जो उठ रही है धरती से और चाँद तक चली आई है हमारे पीछे पीछे
तुमने तो कहा था ख़ामोशी लिए आई हो

बेआवाज़ क्यों नहीं होती ख़ामोशी?

चार

वह जो कात रही है दर्द के रुई से कविताओं की कपास
वह जिसके चेहरे पर स्मृतियों की झुर्रियाँ हैं
वह जिसकी आवाज़ में इतिहास है एक
वह जिसकी ख़ामोशियों में चिताएँ हैं जाने कितनी
वह कितनी ख़ूबसूरत दिखती है धरती से

वह जो देखती है अदेखी दृष्टि से मुझे
उसे देखो मीनाक्षी

वह माज़ी है हमारा मुस्तक़बिल नहीं।

पाँच

हाँ धरती पर ही लौट के जाना है हमें
हाँ लंबी भले हो रात अनंत नहीं होती

जब लौटेंगे हम
बस एक गंध होगी
धूल चंदन-सी लिपटी देह पर
पतंगें रख देंगे हम सँभाल कर कहीं

जीवन ख़त्म होता है
यात्राएँ नहीं।

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