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Poem

वह तुम ही हो पिता

माँ के लिए लिखी हर कविता में
तुम एक अघोषित खलनायक थे पिता
तुम्हारी बोली के कई शब्दों को मैंने
अपने शब्दकोश से बहिष्कृत कर दिया है
क्योंकि वे मेरे भाषा-घर में नहीं समाते थे
और तन कर खड़ी हो गई हूँ तुम्हारे उस पुरुष के ख़िलाफ़
जो अक्सर अपनी स्त्री के आँसुओं का कारण बन जाता है
तुम्हारे जूते कभी नहीं समाएँगे मेरे पैरों में
न तुम्हारे पीछे छूट गए क़दमों के निशान नापने की मेरी कोई उत्कंठा है
तुम्हारे ईश्वर ने पहले से ही तय कर रखी है मेरी सीमा-रेखा
और तुम्हारे घर में मेरे लिए सुरक्षित कर दिया गया है एक अतिथि कक्ष

तुम्हारे उपनाम, तुम्हारी जाति की शुद्धता, तुम्हारे दंभ
मैं सबसे दूर भागती रही
और मेरे बचपन के पिता कहीं पीछे छूटते गए
लेकिन फिर भी मेरी धमनियों में
जो रक्त बन दौड़ता रहा
वह तुम ही थे
मेरे चेहरे की ज़िद में जिसे पढ़ा जाता रहा, वह तुम्हारा ही चेहरा था
मैं इनसे कभी नहीं भाग सकी
और हर बार तुमसे मिल कर लौटने पर
तुम्हारे थोड़े से और झुक आए कंधों,
चेहरे पर बढ़ आईं कुछ और लकीरों को याद कर
जो मेरी आँखों से बह आता है
वह तुम ही हो पिता

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