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Poem

विखण्डित

एक दिन आता है जब शरीर सिकुड़ कर अस्थि मात्र रह जाता है
जीवन के हर उल्लास पर भारी हो जाती हैं व्याधाएं
स्मृतियाँ लुका छिपी का खेल खेलती हर बार मात दे जाती हैं
एक मृत्यु है जिसकी शेष रहती है प्रतीक्षा
हर रोज़ सुनाई देते हैं जिसके पदचाप

विधाता अगर इतनी उम्र लिखी है खाते में
तो बस इतना करना
कि जब आए ऐसा समय
बचा रहे उससे आँख मिला पाने का सामर्थ्य !
जाऊँ तो साबूत ही
अपने समस्त अहम् , मोहबन्धों, और दुर्बलताओं के साथ
विखण्डित
एक मनुष्य की तरह

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