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Poem

राजा भी मरेगा एक दिन

किसी अनजान-सी बीमारी से
या फिर महल की सीढ़ियों से गिरकर
खाते-खाते या फिर सोते-सोते
मामूली ज़ुकाम
या फिर उम्र के बोझ से ही दबकर
अमरत्व की इच्छा लिए
राजा भी मरेगा एक दिन

बदसूरत हेडलाइनों
और रूदालियों के अनमने विलाप में
पहुँचेगी ख़बर
जैसे ओले पहुँचते हैं छतों पर
कौतूहल में निकलेंगे लोग
बच्चे खेलना छोड़ देखेंगे इधर उधर अचरज में
औरतें चौके से बाहर निकल टी.वी. निहारेंगी थोड़ी देर
मर्द उत्तराधिकारी पर चर्चा करते हुए मनाएँगे छुट्टी

महल के वीरान कक्षों में चलेंगी तलवार-सी ज़बानें
उदासी का केंचुल उतार उम्मीदें करेंगी परवाज़
ठीक वैसे ही सड़ेगी राजा की लाश
जैसे मुझ-सी परजा की
जलेगी आग
धुआँ हो जाएगी देह
अस्थियाँ चटकेंगी
तस्वीरों में मुस्कुराता चेहरा सुतली बम की तरह फटेगा
मानव गंध से मचल उठेगा श्मशान का कुत्ता
दक्षिणा बटोरता पंडित घर लौटते ही उतार फेंकेगा गंभीरता का मुखौटा

हज़ार लाशों का बोझ लिए
राजा भी मरेगा एक दिन

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