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Poem

इन दिनों देश

दिशाएँ पिघलते बर्फ़-सी बेशक्ल गोजर की तरह असंख्य पैरों से रेंगती समय की पीठ पर कच्छप से खुरदुरे निशानों में समय को बींधते से कँटीले बाड़ बाँधती उस पार से इस पार तक रिस-रिसकर जा रही हैं, क्वार की अनमनी धूप-सी कसमसा रही हैं। पश्चिम दिशा का सूर्य पूरब तक आते-आते डूब जाता है। उत्तर दिशा में चाँद का हसिया काटता है सारी रात तम की फ़सल और हारकर फिर दक्षिण की नदी में डूब जाता है।

पूरब दिशा में जहाँ होता था एक तारा
एक खोह है रौशनी को लीलती
उषा का संगीत नहीं बिल्लियों के रोने का स्वर समवेत
एक स्त्री भूख के हथियार से लड़ रही हारा हुआ-सा युद्ध
बंदूक़ें सँभाले जंगलों में भटक रहे हैं सैकड़ों बेमंज़िल
हरे पेड़ों से टपक रहा ख़ून लगातार
रासलीला के ठीक बीच लास्य से तांडव में बादल गई है मुद्रा
विष्णु ठेका से दुई ठेका के बीच गोलियों की आवाज़ से भटक गई है ताल
पहाड़ों में छुप कहीं ग़म ग़लत कर रहा है चाँद
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों

शिव की भग्न मूर्ति एक जिसकी जटा में गंगा सूख गई है। खो गया है ललद्यद का पहचान-पत्र और दिल्ली उसे लाल आरिफ़ा1 कहती हुई पूछ रही है कि वह रहस्य कि जिससे शेख नुरुद्दीन नंद ऋषि हुए जाते हैं। एक चिनार सूख गया है अचानक अचानक एक झील का रंग बदल गया है। एक किताब अचानक जल गई है। जहाज़ों में बैठ कर दिशाएँ जा रही हैं इधर से उधर। समय किसी हाउसबोट में शरणागत है। लाल चौक पर अभी अभी उतरा है तेज़ नाख़ूनों वाला सफ़ेदपोश और बच्चे उस अजूबे को देखने उतर आए हैं गलियों में। आसार कर्फ़्यू के हैं और भीड़ बढ़ती जा रही है।

बर्फ़ीली आँधियों के बीच उत्तर दिशा से टूटते हैं रोज़ तारे
बह रहा लाल लाल जल पंचनद में
गोलियों की आवाज़ रह-रहकर गूँजती चीत्कार आधी रात
अलस्सुबह अँधेरा घनघोर और
कसमसाया एक नारा होंठ तक आते-आते दम तोड़ देता है
माथे के बीचोबीच छेद गहरा एक नासिका पर आके रुक गया है ख़ून
उफ़! कैसी सुघड़ है नाक कोई फ़िदा हो जाए
और आँखें यों कि जैसे डल के बीचोबीच जलता हो दिया
मरने पर भी रह गई हैं खुली किसी के इंतज़ार में
कौन—आज़ादी?
बेनाम क़ब्रों के बीच घूमते हैं सपने ख़ामोश
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों

किसी मंदिर के गर्भगृह में सैकड़ों साल पुरानी मृत धातुओं का खज़ाना गिन रहे हैं लोग कुछ। एक रजस्वला चली आई है वहाँ तक और उनकी अँगुलियों पर रक्त है अपवित्र जो वे उसे उसके खुले केशों पर पोत देना चाहते हैं। फ़र्श के नीचे धँसा ईश्वर मुस्कुराता है और अरब सागर का जल अट्टहास करता चला जाता है इस छोर से उस छोर तक। चाँदी की कटोरी का ख़ून गढ़चिरौली के जंगलों में बह रहा है अबूझमाँड तक फैली है गंध कसैली बड़े तालाब2 में मछलियाँ मर रही हैं और मछेरे जाल लिए हँस रहे न जाने किस ख़ुशी में। गांधी ज़ख़्म पर अपने नमक का लेप रखते नोआखली से लौट आए हैं साबरमती के जले तट पर।

दक्षिण दिशा में टूटते रथ से आरुणि3 की हाहाकार
आर्तनाद में डूबते सब
वृहति, उष्णिक, गायत्री, जगती, पंक्ति, त्रिष्टुप, अनुष्टुप4
अंधकार गहन आर्तनाद तीव्र और एक मौन जिसमें डूबती सातों दिशाएँ
टूटे क़लम से स्याही बिखर कर जम गई है फ़र्श पर
किताबें चीथड़ों-सी बिखर गई हैं गिद्ध मँडरा रहे हैं चाव से
उठता है समंदर क्रुद्ध ज्वार में और फिर डूब जाता अपनी ही बोझिल धार में
पश्चिमी तट तक फैलता जाता है रक्तिम फेन
सत्य के मुख पर घाव गहरे कई बहता रक्त लिखता है सँभल कर
शहर के शहर नींद में बेहाल
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों

कबीर और दशरथ माँझी गाँव से दोनों बहिष्कृत आँख फाड़े देखते हैं चमचमाते पर्दों पर अपने जैसे चेहरे और फिर देखते हैं एक दूसरे को और फिर उजड़ी बस्तियों की ओर देख फूट पड़ते हैं, उदास सी एक हँसी में। जयप्रकाश लखनऊ की सड़क पर लोहिया को ढूँढ़ते हैं खिसियाए से। मार्क्स मटियाबुर्ज़ में सर झुकाए सुन रहे हैं फ़रियाद ग़ालिब की। विचार भूलभुलैया में लुका-छिपी खेलते खो गए हैं। पार्कों में सर पटकती गोमती दादरी पहुँचने से पहले की जा चुकी है गिरफ़्तार। गोरखनाथ को यज्ञोपवीत डाल बुद्ध के साथ कर दिया गया है शहरबदर और राप्ती में हज़ारों शिशु-लाशें तैरती हैं कमलनाल से लिपटी हुईं।

कर्फ्यू शहर में गाँव में हाहाकार
हृदय में शूल-सी गड़ती है कोई फाँस
वृद्ध गायें रो रही हों ज्यों कि वैसे रो रहे हैं हज़ारों स्वर
वधिक उन्मत्त होकर घूमते हैं
तबाह खेत-खलिहान बंजर गाँव के गाँव बर्बाद
गंदुमी गंगा का रंग हो गया है लाल
भूख के पेट से निकली है दुधारी तलवार
शरणार्थी कैंपों में तिरंगा मुँह छिपाए रो रहा निःशब्द
एक शिशु गर्भ से बाहर निकल कर
मिचमिचाई आँख से देखता है चारों ओर
और फिर दूध भरे स्तनों में डूब जाता है
एक हृदय सीता है ज़ख़्म एक और बार
हँसता है हारी हुई हँसी में रोता हो ज्यों
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं जैसे कि शवयात्रा में निकली हों

गंगा लौट रही है गंगोत्री में सफ़र के लहूलुहान किस्से बटोरे नुकीले पत्थरों से टकराती बार-बार। छावनियों में मर रहे सैनिक अज्ञात से भय से किसी कि जैसे दम तोड़ते हों शब्द कंठ में ही। ख़ूब सारी रौशनी में पूरबिहा कोई भटक गया हो ज्यों कि ऐसे अख़बार एक पीला छिपता-छिपाता किसी दरवाज़े तक पहुँचता है भोर ही में और सारे शब्द कुंडी में फँसाकर लौट आता है।

रात की गोद में जलती चिता-सी चमकती राजधानी में
बजती मातमी धुन उत्सवी उत्साह से
स्वाँग रचते भाँड जंतर-मंतर पर
कसमसाई मुट्ठियों में डूबती है स्वेद की धार पिछली पंक्तियों में
राजघाट पर भेड़ियों की भीड़
उड़ते घायल कपोत
लुटियन की महफ़िलों में शराबी शोर
दौड़ते दिन-रात नीले अश्व कफ़न-सी सफ़ेदी रौंदते
राजपथ पर शांति एक श्मशानी
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं जैसे शवयात्रा में निकली हों

यमुना के मूर्छित तटों पर नांदियाँ सारी थककर सो गई हैं। पहले ही मिसरे में बिखरकर शे’र एक सारी महफ़िल में उदासी बाँटकर मंच पर पसरा है कि जैसे क़त्ल के बाद कोई हँसते-हँसते दे गवाही। दिशाएँ आत्महत्या कर रही हैं विशाल क़ब्रगाह से झक सफ़ेद गुम्बदाकार भवन के बीचोबीच के अँधेरे कुएँ में समय बैठा कगार पर गिन रहा लाशें एक दिन डूब जाएगा।

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