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नब्बे के दशक के बाद जिन काव्य व्यक्तित्वों की विशिष्ट स्वर में विकसित हुई उनमें प्रसिद्ध कवि ‘महेश आलोक’ समकालीन कविता के परिदृश्य में एक अलग सशक्त पहचान रखते हैं । यह समय सिर्फ कविता के मूल स्वर बदलने का ही नहीं है । भारतीय समाज, उसकी संरचना और राजनीति सब कुछ अनिवार्यत: बदल रही थी । इन बदलावों के कारण कविता की संवेदनात्मक प्रक्रिया और संरचना भी बदल गई । इसको उस समय विकसित हो रही काव्य धारा में देखा जा सकता है जिनमें कवि महेश आलोक का पहला कविता संग्रह भी रहा है । उनका दूसरा नया कविता-संग्रह ‘छाया में समुद्र’ सेतु प्रकाशन से इस वर्ष प्रकाशित हुआ है जो लगभग 15 वर्षों के अंतराल के बाद आया है और निश्चित रूप से यह उनकी काव्य दृष्टि का नया विस्तार है। ये कविताएँ जहाँ कवि के गहरे आत्मनिरीक्षण की क्षमता से विकसित हुई हैं परंतु यह आत्मविमर्श सिर्फ आत्मकेंद्रिक नहीं है । इस निरीक्षण में कवि दुनिया की सारी विसंगतियों के लिये सिर्फ अपने परिवेश और दूसरों को ही जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता या सभी विडंबनाओं की ओर उगंली उठाकर ही मुक्त नहीं अनुभव करता । इस क्रम में वह अपनी भागीदारी ऐर दायित्व बोध को भी सुनिश्चित करता है जो इन कविताओं का मुख्य स्वर है-
Literature / Poem / Review

काव्य- संवेदना का नया क्षितिज : छाया का समुद्र

मीना बुद्धिराजा सह-प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

आधुनिक हिंदी कविता में आठवें दशक के उत्तरार्ध से सामाजिक और व्यैक्तिक संवेदना के केंद्रिय बिंदुओं में आ रहे बदलाव की सूचना आने लगती है और नौवें दशक में तो इनको नये सिरे से पढ़े जाने का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक संश्लिष्टताओं से बना नया आधार भी तेजी से उभरने लगा । भूमडंलीकरण से मानवीय सभयता की गतिशीलता में अंतर्निहित भटकाव जिसंए मनुष्य को नागरिक से उपभोक्ता में सीमित हो जाने पर विवश कर दिया और शब्द सत्ता में सन्निहित मानवीय संवेदनाओं और मूल्य बोध की निरर्थकता का बोध और बाज़ार का द्बाव इतना ज्यादा होने लगा कि इस कोलाहल में सच और संघर्ष की अभिव्यक्ति कठिन होने लगी । इस भयावह और निर्मम स्थितियों मे नि:शब्द समय को अप्ने बौद्धिक साहस और सृजनशील मार्मिकता से पकडने में कविता की भूमिका असंदिग्ध है ।

नब्बे के दशक के बाद जिन काव्य व्यक्तित्वों की विशिष्ट स्वर में विकसित हुई उनमें प्रसिद्ध कवि ‘महेश आलोक’ समकालीन कविता के परिदृश्य में एक अलग सशक्त पहचान रखते हैं । यह समय सिर्फ कविता के मूल स्वर बदलने का ही नहीं है । भारतीय समाज, उसकी संरचना और राजनीति सब कुछ अनिवार्यत: बदल रही थी । इन बदलावों के कारण कविता की संवेदनात्मक प्रक्रिया और संरचना भी बदल गई । इसको उस समय विकसित हो रही काव्य धारा में देखा जा सकता है जिनमें कवि महेश आलोक का पहला कविता संग्रह भी रहा है । उनका दूसरा नया कविता-संग्रह ‘छाया का समुद्र’ सेतु प्रकाशन से इस वर्ष प्रकाशित हुआ है जो लगभग 15 वर्षों के अंतराल के बाद आया है और निश्चित रूप से यह उनकी काव्य दृष्टि का नया विस्तार है। ये कविताएँ जहाँ कवि के गहरे आत्मनिरीक्षण की क्षमता से विकसित हुई हैं परंतु यह आत्मविमर्श सिर्फ आत्मकेंद्रिक नहीं है । इस निरीक्षण में कवि दुनिया की सारी विसंगतियों के लिये सिर्फ अपने परिवेश और दूसरों को ही जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता या सभी विडंबनाओं की ओर उगंली उठाकर ही मुक्त नहीं अनुभव करता । इस क्रम में वह अपनी भागीदारी एवं दायित्व बोध को भी सुनिश्चित करता है जो इन कविताओं का मुख्य स्वर है-

यह सब करते हुए मैं दुखी नहीं था
जबकि ऐसा लग रहा था कि मुझे
दुखी होना चाहिये था उस समय ।

कविता हमेशा एक नैतिक विकल्प के रूप में उपस्थित रहती है । ये कविताएँ किसी विचारधारा से आक्रांत नहीं बल्कि जीवन प्रक्रिया से आवेशित हैं और इसके पीछे समकालीन कविता की भरपूर वैचारिक समझ है और जिसमें कलात्मक शर्तों से अविभक्त प्रतिबद्धता की चेतना का सहज विस्तार मिलता है । यह आज की कविता का सबसे प्रबल और प्रखर पक्ष लगता है जो इन कविताओं में बहुत सूक्ष्मता से अभिव्यक्त हुआ है-

किसके हिस्से का दुख मेरा दुख है
दुख जो कि बहुवचन में दौड़ता है उसका पिछला शरीर
नदी की सबसे छोटी मछली के आँसुओं में डूबा है
और नदी का पानी
तलहटी में पृथ्वी बन गए दुख के
हाथों की अँगूठी बन कर चमक रहा है सतह पर
जिसे लहरें उछालती हैं
दुख के अंतरिक्ष में–
गुरु कबीरदास जी
किसके हिस्से का दुख मेरा दुख है ।

मानव जीवन की सभी संवेदनाएँ, परिवेश, प्रकृति ,समाज, मानवीय सबंध और व्यवस्था का समूचा तंत्र ही जैसे निर्ममता और छदम का शिकार है । इसलिये मनुष्य की अस्मिता को कवि अपनी काव्य-प्रक्रिया में समावेशी और समग्र दृष्टि के साथ आत्मसात करता हैं ।प्रकृति के संगीत, विध्वंस और टूटन के बीच जीवन के अनेक अर्थगर्भित रहस्य खुलते हैं-

छाया का समुद्र फैलता जा रहा है पृथ्वी पर
और मैं कूदता हूँ छाया में
पृथ्वी की अंतिम हिचकी से पूर्व
तमाम साँसों को स्वाभाविक लय में
लाने के लिये
कैसे बचाये जा सकते हैं
दादा-दादी पत्नी-बच्चे और कबीर
केदारनाथ सिंह इत्यादि
कहना मुश्किल है
कौन कितना अलग है
एक -दूसरे की छाया से
अगर बचा है नमक
बची रहेगी पृथ्वी ।

इस विशाल छायाओं के समुद्र में अर्थात सृष्टि में सभी मनोभाव समाहित हैं । भौतिक जगत और मानसिक अंतश्चेतना दोनों यथार्थ यहाँ अंतर्गुंफित हैं । जहाँ विरोधों का सांमजस्य भी बहुत मद्धिम स्वर में बिना किसी बोझिलता और दबाव के उभर कर आता है जो इन कविताओं का अपना मुहावरा है, विशिष्ट पहचान है । कवि मानव जाति को उसके पूरे परिवेशगत सौंदर्य के साथ अनुभव करना और देखना चाहता है । फैंटेसी और सपाटबयानी के बीच इन कविताओं का तीसरा आयाम बनता है जो मौलिक होने के साथ ही कविता की आंतरिक लय के रूप में कविता की पुनर्वापसी का भी संकेत है । इनमें आत्मीय अनुभवों और गहन संवेदना के साथ समकालीन कविता का जो परिसर बनता है वह ठोस और विश्वसनीय है ।जहाँ स्मृतियों का लोक एक नये भाष्य प्रतीकों में पुनर्जीवित हो उठता है-

मैं जितना- जितना अध्यापक हूँ
उतना-उतना कवि नहीं हूँ
बंदरों की प्रजाति से मिलती-जुलती मेरी लीलाएँ
हजारों वर्ष पहले की गयी आदिम लीला से
उतनी भिन्न नहीं है जितना मेरी पत्नी के विचार
ठीक-ठाक नहीं कह सकता
कितना- कितना आदिम हूँ कितना-कितना आज
और अचानक मेरी पत्नी और चिडिया आती है
और कूद जाती हैं कविता के इतिहास में
मैं गंगा पर एक कविता लिखता हूँ ।

कवि कि कोशिश है कि मनुष्य के दुख, संघर्ष और उदासी नाटकीय मुद्राएँ न लगें बल्कि वह अपनी सच्चाईयों के साथ कविता में आकर इस अर्थहीन आभासी यथार्थ की उत्सवधर्मिता का प्रतिकार कर सके जो वास्त्विक से निरपेक्ष स्वायत्त संसार निर्मित कर वर्चस्वादी शक्तियों के पक्ष में शब्दों का इस्तेमाल करती है ।वे सभी भय, द्वंद्व, तनाव और दबाव जिस मानवीय अर्थवत्ता के क्षरण से पैदा हुए हैं । ये कविताएं उसी अर्थ को बचाने की कोशिश करती हैं जिनमें गहरे मानवीय संकेत, प्रतीक और गहन बिंबधर्मिता भी है जो कहीं-कहीं केदारनाथ सिंह और शमशेर जैसे प्रतिष्ठित कवियों के शिल्प की भी याद दिलाती है-

थोड़ा समय चाहिये मैं उतना डरा हुआ नहीं हूँ
जितना मुझमें साहस है
थोड़ा समय चाहिए कि पृथ्वी की आँख इतनी खुल सके
कि उसकी पलकों पर बैठ कर निहार लूँ अपनी गलतियों को
मेरे दिमाग में इतना गुलाब है कि उससे
आग की खुशबू आती है
मेरे खून में गुलाबों वाली खुशबू नहीं है
सीढ़ियाँ जो आकाश और सूरज को एकसाथ जोड़ती हैं
अंतरिक्ष में
इस तरह लटक रही हैं
जैसे घड़ी मेरी आत्मा में
समय नहीं है मेरे पास
मेरी दाहिनी आँख आकाश के तारों की रोशनी
इस तरह पकड़ती है कि बायीं आँख के सपने
खिलखिला कर फूट पड़्ते हैं आतिश्बाजी की तरह
पुरखों की आत्मा में
थोड़ा समय चाहिए
मैं वहाँ खड़ा हूँ जहाँ साहस और प्रेम एकांत में नहीं मिलते हैं ।

इन कविताओं में विचार कोई ओढ़ी हुई दार्शनिकता जैसी बोझिल चीज़ के रूप में नहीं, बल्कि अनूभूति और संवेदना के स्तर आत्मीय होकर यथार्थ का साक्षात्कार कराते हुए आते हैं । यह दृष्टि मूल्यबोध ही नहीं कवि के काव्य विवेक को भी निर्धारित करती है जहाँ बेहतर मनुष्य और समाज के लिये शोषण और अन्यायमुक्त परिवेश का स्वप्न है और उसके लिये संघर्ष भी जो कविता का दायित्व भी है । चीटियाँ, हत्या,शाहीद, हमले के बाद मेरा घर शुक्रिया, दस्तक, कौन पढता है कविताएँ , दस्तक जरूरी है, क्या फर्क पडता है जैसी बहुत सी कविताएँ सामाजिक विसंगतियों, भ्रूण हत्या, स्त्री यौन हिंसा जैसे संवेदनशील मुद्दों को बहुत संजीदगी से उठाती हैं । एक अच्छी कविता अभी भी सत्ता की ताकतों और मोर्टार से ज्यादा जरूरी है । सृष्टि में लघु और महत के अदृश्य संबंध को दृश्य बनाये रखने के लिये कवि सबसे क्रूर समय में भी कठिन होते भरोसे और प्रेम को ही बचाना चाह्ता है जो इन कविताओं का निहित उद्देश्य है-

बहुत कुछ रखना चाहता हूँ अपने प्रेम में
बसंत के फूलों जितनी उम्मीद
साँसो की खुशबू से निकलती सारंगी की कोई नयी धुन
नया राग जिसे अभी तक न गाया बजाया हो किसी ने
किसी मंगल ग्रह पर भी नहीं
शतरंज जैसी चालों को प्रेम में रखना
गलत होगा इस समय
चिड़िया के पंखों के भीतर भरी हुई इच्छा
उडान वालि हवा और लक्ष्य तक पहुंचने की कला
पृथ्वी जितना धैर्य
और उसकी देह जितनी गरमी
कठिन समय में अंतरिक्ष का ताला खोलने वाली चाबी
और समुद्र के दुख जितने आँसू
पीपल के पत्तों जैसी चंचलता
अपनी कमजोरियाँ और खूब पुराने
बरगद के पेड़ जितनी छाया
रखना चाहता हूँ अपने प्रेम में ।

इन कविताओं में कवि की वह हताशा और विकलता भी प्रतिबिम्बित होति है जहाँ आधुनिक सभ्यता की चमक-दमक के पीछे की उदासी, रिक्तता और अंधकार को देखता है । उसकी गहन दृष्टि मानवीय अस्मिता के बुनियादी प्रश्नों के सीधे-सपाट जवाब नहीं देखती बल्कि इन विसंगतियों में, गुत्थियों के भीतर उतरने का नैतिक साहस कविता में करती है । कविता में मनुष्य को बड़ा बनाने की जरूरत अभी भी सबसे ज्यादा है, यह बेचैनी कवि में ही नहीं कविता में भी उतनी है । जो पराजित नहीं होना चाहती और अपने समय के सभी जरूरी सरोकारों से टकराती है। इस संग्रह की सबसे लंबी और अंतिम कविता कई स्तरों पर यह जिम्मेदारी निभाती है जिसमें आत्मसंवाद ही नहीं , हमारे समय के जटिल यथार्थ की गवाही भी है । इस कविता में अनेक तहें और अर्थसंकेत हैं जहां सबसे अधिक अपने मनुष्य होने का मार्मिक सत्यापन है जिनमें कवि जैसे कविता को पुनर्सृजित करता है-

बीते तमाम वर्षों से क्या कर रहा हूँ
कविता में
पेड़ों को बचाता हूँ और वे कटते हैं
तालाब खुदवाता हूँ और कुछ ही वर्षों में बन जाता है
वहाँ शोपिंग कॉम्प्लेक्स
बहुमंजिला इमारतें मेरी कविताओं को गिराती हैं
पृथ्वी की नींद और सपनों पर दस्तक देने से पहले
मोर्टार के हमले से पहले चिड़िया ने मुझे
एक रहस्य से अवगत कराया था कि
सदियों से उड़ते हुए कविता में घोंसलों से अधिक सुरक्षित है वह
पेड़ ने कागज़ बनने की पीड़ा सह ली थी कविता में
अचानक लोहों को मोम की तरह
पिघलते देख बचा ही लेता हूँ
चिड़िया पेड़ और मनुष्य का
मोम जैसा दिल
मोर्टार और आधुनिक विज्ञापन के हमले से
बचने के लिए ।

एक समृद्ध भाषा-शिल्प के नये अन्वेषण में सघन बिम्बों को रचती ये कविताएँ अपनी विशिष्ट अंतर्ध्वनियों, अनूगूजों और उसकी आंतरिक लय में विन्यस्त अर्थों में आज की कविता के कई नये आयामों का संकेत करती हैं और कविता की उसके फॉर्म में पुनर्वापसी का भी । कविता में मानवीय सबंधों को बचाने, पहाड़ और नदियों को बचाने, सबसे क्रूर समय में करुणा, प्रेम और संवेदना को बचाने, जड़ होती मनुष्यता में अपने विवेक को बचाने और कविता में जीवन की तमाम संभावनाओं को बचाने की कोशिश करती ये कविताएँ स्वप्न और यथार्थ के बीच का संघर्ष अपनी पूरी ईमानदारी और सृजनात्मक प्रतिबद्धता के साथ करती हैं जो इस कविता-संग्रह के रूप में समकालीन हिंदी कविता की सार्थक उपलब्धि है ।

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