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कविता किटी पार्टी आइटम हो गयी है
Opinion

कविता किटी पार्टी आइटम हो गयी है

अच्छी कविता अब तक थोड़ी बहुत कोर्स की किताबों में, पत्रिकाओं में दो पन्नों पर और उससे भी कम कविता संग्रहों में बची थी, मंचों से तो वह कब की विदा हो चुकी थी लेकिन अब जहां देखो कविता ही कविता है। बे सिर पैर की कविता। अर्थशास्त्र का वह नियम यहां पूरी तरह से लागू हो रहा है कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। खराब कविता ने अच्छी कविता को बेदखल कर दिया है।

कविता अब डायरी के पन्नों से निकल कर मोबाइल में, नोटबुक में, और लैपटॉप के स्क्रीन में प्रवेश कर गयी है। अब कविता पहले की तुलना में कई हजार गुना ज्यादा लिखी जाने लगी है लेकिन ये कविता खराब कविता है। बल्कि कविता ही नहीं है। वह टीआरपी फंडा है। हर कवि ने फेसबुक पर घेर घार कर ये जो 5000 दोस्त बना रखे हैं या व्हाट्सअप पर बीसियों ग्रुप्स में घुसे बैठे हैं, कविता के लिए ही तो। न कविता के मर्म की जरूरत, न वर्तनी की परवाह और न ही कविता में कवितापन की आस की बात, बस पेलते चलो, टीआरपी देने वाले भरे पड़े हैं।

जहां देखो कविता ही कविता है। धूम मची है। अब तो दिल्ली में मैट्रो में कविता पाठ होने लगे हैं। घरों, कवि गोष्ठियों और पार्कों में तो पहले ही हो रहे थे। मुंबई वाले भी पीछे नहीं है। उनके पास समंदर और मेट्रो दोनों हैं, मैट्रो में दिल्ली वाले करें, मुंबई वाले समंदर किनारे रेत पर कर रहे हैं, पार्कों में और घरों में कर रहे हैं। भला दस कवियों (कवि में कवयित्रि शब्द शामिल है) को ही तो जुटाना होता है। कहीं भी जुट जाओ और कर लो। बाकी शहर मैट्रो का इंतजार कर रहे हैं। मैट्रो आये तो सीटें घेरें और कविता पाठ हो। पिछली बार तो मैं ये देख कर हैरान हो गया था कि एक भला कवि दिल्ली में पुस्तक मेले के ऐन दरवाजे पर ही दस जन जुटा कर कविता पाठ कर रहा था। आसपास जुट आयी या ठिठक कर खड़ी हो गयी भीड़ को देख कर पता नहीं चल रहा था कि बाकी लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे कवि हैं या यूं ही खड़े हो कर कविता के हिस्से में आयी इस क्रांति को देख रहे हैं।

अब कविता की किटी पार्टियों के दिन आ गये हैं। व्हाट्सअप आजकल कविता की किटी पार्टी करने के लिए सबसे मुफीद जगह बन गयी है। एक ग्रुप बनाइये, एडमिन बन जाइये और जोड़ लीजिये आसपास और दूर दराज के सब कवियों को। शुरू हो गयी कविता की किटी पार्टी। न पूछने की जरूरत और न ही सहमति लेने की। जोड़ते जाइये।

बाजार का हाल और भी बुरा है। खराब कविता से भरा पड़ा है। सारे मंच इन कवियों ने हथिया लिये हैं और प्रकाशक, आयोजक और संपादक अपने कब्जे में कर लिये हैं। दस बीस कवि जुटाओ, 1500 रुपये की नकद राशि के साथ दस दस कविताएं मांगों, और बन जाओ संपादक। फिर सीधे सीधे कविता की किताब छपवाने की बात करो। एक बार किताब छप जाये तो लोकार्पण, गोष्ठी, सम्मान और साहित्य शिरोमणि की उपाधि दिलाना चल निकलता है।

कविता और कविता की किताब पैकेज डील की आइटम हो गयी है। कुछ शूरवीर तो उनसे भी आगे ग्लोबल हो गये हैं। वे हांका करके, चुग्गा डाल कर दुनिया के मानचित्र पर उपलब्ध किसी भी देश में आपके लिए कविता की किटी पार्टी कराने की कूवत रखते हैं। ये कविता टूरिज्म के नये राजदूत हैं।

आज अच्छी कविता ढूंढनी पड़ती है। बेशक लिखी जाती है, पढ़ी भी जाती है लेकिन वह बुरी कविता की भीड़ में खो गयी लगती है। रजिया चारों तरफ से गुंडों से घिरी हुई है और कोई समालोचक, संपादक या गुणीजन उसकी इस हालत पर कुछ नहीं कह रहा। यही हाल रहा तो अच्छी कविता संग्रहालय की शै हो जायेगी।

भला हो सोशल मीडिया का, व्हाट्सअप का, ट्विटर का और अलां का और फलां का कि कविता की वापसी हो गयी है। उसके इतने अच्छे दिन आ गये हैं कि फेसबुक और व्हाट्सअप पर मौजूद हर दूसरा व्यक्ति कवि है। बल्कि वह वहां पर उपस्थित ही इसलिए है कि वह कवि है। कोई सर्वेक्षण कराये तो देश के इतिहास में एक साथ इतने कवि कभी भी नहीं हुए थे।

कविता को अब नये मंच और आधुनिक प्लेटफार्म मिल गये हैं। अब कविता पहले की तुलना में कई हजार गुना ज्यादा लिखी जाने लगी है लेकिन इसका प्लेटफार्म बदलना पर्यावरण के हित में गया है। अब पेड़ कम कट रहे हैं क्योंकि अब कविता काग़ज़ पर नहीं, टच स्क्रीन पर लिखी जाती है। हां, एक अंतर जरूर हो गया है। पहले किसी को डायरी खोलते देखते ही लोग बाग डर जाते थे कि कहीं कविता सुनाना न शुरू कर दे। अब तो कविता मोबाइल पर ही लिखी जा रही है, वहीं से पढ़ी जा रही है, वहीं से वह फेसबुक की अनंत विस्तार वाली दुनिया और व्हाट्सअप के ग्लोब में प्रवेश कर जाती है और देखते ही देखते नेटवर्क से जुड़े हर शख्स के इनबाक्स में अपने सूक्ष्म शरीर के साथ आसन जमा कर टीआरपी बटोरने लगती है। अब ये देखना होता है कि सामने वाला आदमी अपने मोबाइल के खजाने में से कब कविताएं सुनाना शुरू कर सकता है।

कविता के साथ कवियों के कितने अच्छे दिन आ गये हैं। वे दिन फाख्ता हुए जब हम सच में देखते थे कि कवियों को श्रोताओं की तलाश में कहां कहां नहीं भटकना पड़ता था। लोग थे कि कवि को देखते ही भाग खड़े होते थे। आगे श्रोता और पीछे कवि। अब तो टैक्नालाजी इतनी आगे बढ़ गयी है कि आपको पता ही नहीं चलता कि बस में, ट्रेन में या बस स्टैंड पर बैठा या खड़ा आदमी मोबाइल पर एसएमएस देख या लिख रहा है या कविता रच रहा है। दो मिनट बाद जब वह राहत की सांस लेता हुआ आपकी तरफ देख कर मुस्कुराता है तभी पता चलता है कि वह कविता लिख कर पोस्ट भी कर चुका। अब दो मिनट में टीआरपी अपना काम करना शुरू कर देगी। फेसबुक पर घेर घार कर ये जो 5000 दोस्त बना रखे हैं या व्हाट्सअप पर बीसियों ग्रुप्स में घुसे बैठे हैं, कविता के लिए ही तो। इन प्लेटफार्मों पर हर दूसरा शख्स दिन में दस कविताएं पेल रहा है। (अरसा पहले इलाहाबाद में एक कवि हुए हैं नागानंद मुक्तिकंठ। वे हिंदी में कविता पेलने वाले वाले पहले कवि माने जाते हैं। वे हर समय और हर किसी के सामने और हर विषय पर कविता पेल सकते थे। पेलते थे।) अब तो जिसे देखो पेल ही रहा है। हर व्यक्ति कविताया हुआ है। आजकल वह बतियाता नहीं कविताता है। न कविता के मर्म की जरूरत, न वर्तनी की परवाह और न ही कविता में कवितापन की आस की बात, बस पेलते चलो, टीआरपी देने वाले भरे पड़े हैं। तू मेरी कर, मैं तेरी करता हूं। रोजाना दस बरस कवि गण अपनी कविता पर लाइक और कमेंट के लिए गुहार लगाते हुए इनबॉक्स तक घुसे चले आते हैं। टैग करना तो इनका जन्म सिद्घ अधिकार है। फिल्मी भाषा में कहें, तो वे सबसे ज्यादा फुटेज खा रहे हैं। बाजार में भी और आभासी दुनिया में भी। सारे मंच इन्होंने हथिया लिये हैं और प्रकाशक, आयोजक और संपादक अपने कब्जे में कर लिये हैं। माहौल पूरी तरह से कवितामय है।

बस इस सारे तंत्र में एक ही खतरा है कि हर ग्रुप में जितने भी मेंबर आपने आज कवियों के रूप में शामिल किये हैं, वे सब के सब कल एडमिन बनकर अपने अपने ग्रुप शुरू करने वाले हैं। दीप से दीप इसी तरह जलता है। कविता कर्म इसी तरह से आगे बढ़ता है और आज के एडमिन ही कल के संपादक और कविता की पुस्तक के प्रकाशक और कविता सम्मान के आयोजक बनते हैं। ऑनलाइन हो जाने के सुविधा का सबसे ज्यादा फायदा कवि उठा रहे हैं। घोषणा कीजिये कि हम इतने बजे ऑनलाइन कविता सुनाएंगे और तय समय पर शुरू हो जायेंगे। आप मोबाइल को माइक को ठकठका का पूछते रहें कि क्या आप सब तक मेरी आवाज पहुंच रही है। मजे की बात उस समय सुनने वाले दो श्रोता भी नहीं होते।

आनलाइन बाजार का हाल और भी बुरा है। जिधर देखो कविता से अटा पड़ा है। कविता ही कविता। दस बीस कवि जुटाओ, 1500 रुपये की नकद राशि के साथ दस दस कविताएं मांगों, और बन जाओ संपादक। फिर चुपके से इन कवियों की जेबें टटोलो, उनमें छपास के किटाणुओं का एक्सरे कराओ और सीधे सीधे कविता की किताब छपवाने की बात करो। एक बार किताब छप जाये तो लोकार्पण, गोष्ठी, सम्मान और साहित्य शिरोमणि की उपाधि दिलाना चल निकलता है। कविता और कविता की किताब पैकेज डील की आइटम हो गयी है। खर्च करने का माद्दा रखिये, बाकी उन पर छोड़ दीजिये। लोग हैं कि टूटे पड़ रहे हैं। धक्कमपेल चल रही है। कवि लोग इस कुछ ही कविताओं पर पूरे आसमान पर छा गये हैं। हैं। ज़मीन उनकी, आसमान उनका, सारे मंच उनके और सारे पुरस्कार उनके।

मैं एक ऐसे कवि को जानता हूं जो 1971 में लिखी अपनी एक कविता हर जगह, हर मंच पर और हर बुलावे पर अनिवार्य रूप से पिछले 44 बरस से सुना रहे हैं। वह कविता उनकी सिग्नेचर ट्यून है जिसके बिना वे अपना रचना पाठ शुरू ही नहीं कर सकते। ये कविता उनकी इकलौती बेटी है जो तब से अब तक उनके घर राशन पानी भर रही है। ये कविता महीने में दस विमान यात्राएं कराती है। ये उनका तगड़ा बैंक बैलेंस है, मजबूत आर्थिक आधार है। बेटी का दहेज है। लड़के की तगड़ी फीस है। ये कविता उनकी पहचान है। अगर वे यह वाली कविता सुनाना बंद कर देंगे तो आयोजक उन्हें बुलाना बंद कर देंगे। ये कविता उनकी सांस है। उनकी हरी घास है।

कुछ शूरवीर तो उनसे भी आगे ग्लोबल हो गये हैं। वे हांका करके, चुग्गा डाल कर दुनिया के मानचित्र पर उपलब्ध किसी भी देश में आपके लिए कविता की किटी पार्टी कराने की कूवत रखते हैं। ये कविता टूरिज्म के नये राजदूत हैं। बस, पास पासपोर्ट और शुल्क जमा कराइये और चल पड़िये किसी भी सुंदर देश में कविता पाठ करने। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह देश सोमालिया या है कोरिया, बाली है या सुमाली, सारा आयोजन तो होटल के एक हॉल में होना है, बाकी पैसे और समय तो सैर सपाटे के लिए है। गली गली आपको कविता टूरिज्म के बोर्ड टांगे ये सांस्कृतिक राजदूत मिल जायेंगे। फेसबुक पर आये दिन इस तरह की घोषणायें आप देख सकते हैं। और लोग हैं कि जा भी रहे हैं। परिवार के साथ, एलटीसी पर। घूमने का घूमना, कविता पाठ, कविता की किताब का लोकार्पण मुफ्त में। इस सब की तस्वीरें फेसबुक पर आपकी वॉल की शोभा बढ़ाने के काम आती हैं। सब की चल निकली है।

आजकल लोग कहीं भी हों, मोबाइल में से कवितायन शुरू कर सकते हैं। बहुतेरे कवि तो ऐसे हैं जो रोमन में हिंदी कविता लिख रहे हैं। अब कविता स्टेटस सिंबल है, कविता आइ कार्ड है। आधार कार्ड है। जीवन मंत्र है जो हर मोबाइल के स्क्रीन पर चमक रहा है।

इस बीच मैं उस कविता से मिला जो सदियों से हमारे साहित्य के केन्द्र में, हमारे लोक जीवन में और हमारे मर्म के निकट रही है। मैंने कविता को बधाई दी कि तुम्हारे कितने अच्छे दिन आ गये हैं कि देश का हर दूसरा नागरिक कवि हुआ जा रहा है। इतनी टीआरपी तो कविता ने कभी नहीं जोड़ी थी। मेरी बात सुन कर कविता ने ठंडी सांस भर कर कहा – कविता हमेशा से लिखी जाती रही है। अच्छी भी और बुरी भी। लेकिन तुलना की दृष्टि से इतनी खराब कविताएं कभी नहीं लिखी गयी थी कि अपने हाल पर रोना आये। आज अच्छी कविता ढूंढनी पड़ती है। बेशक लिखी जाती है, पढ़ी भी जाती है लेकिन वह बुरी कविता की भीड़ में खो गयी लगती है। रजिया चारों तरफ से गुंडों से घिरी हुई है और कोई समालोचक, संपादक या गुणीजन उसकी इस हालत पर कुछ नहीं कह रहा। यही हाल रहा तो अच्छी कविता संग्रहालय की शै हो जायेगी।

मुझे उसकी बात में दम लगा। आपका क्या ख्याल है?

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