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एक थे पाठक जी
Memoirs

एक थे पाठक जी

एक बार एक नाटक की रिहर्सल चल रही थी। संयोग से नाटक का निर्देशक उन्हीं के विभाग का एक टाइपिस्ट था और पाठक जी तब तक अधिकारी बन चुके थे। निर्देशक के बार बार समझाये जाने पर भी वे वही गलती दोहरा रहे थे। निर्देशक ने आव देखा न ताव, सबके सामने पाठक जी को ज़ोर से एक थप्पड़ दे मारा। पाठक जी हक्के बक्के। निर्देशक ने परवाह किये बिना कहा – अफसर आप ऑफिस में हैं। यहां मैं निर्देशक हूं। गलती कर रहे हैं आप बार बार। सज़ा तो मिलेगी और वह सबको अगला दृश्य समझाने लगा।

हम दोनों उन दिनों अहमदाबाद ट्रांसफर पर थे। एक ऐसा वक्त भी आया था कि जब उनके पास रहने के लिए घर नहीं था। उनके छोटे भाई और भाभी ने उन्हें घर से निकाल दिया था और संस्थान का फ्लैट मिलने में समय लगने वाला था। मैं बड़े से फ्लैट में अकेला रह रहा था। मेरे फ्लैट में कुछ दिन के लिए आ कर रहना चाहते थे। मैं पाठक जी की आदतें जानता था। वे बोलते बहुत थे और मेरी आदत थी कि मैं बहुत कम बोलता था। जब वे मेरे पास आये और अपनी ज़रूरत बतायी तो मैंने अपनी शर्तें रखीं – आपको ये माननी पड़ेंगी। ये बातें बहुत मुश्किल नहीं हैं लेकिन क्योंकि आपका स्वभाव और मेरा स्वभाव बिलकुल अलग हैं तो आपको मेरे साथ रहने के लिए कुछ तो त्याग करने पड़ेंगे। पाठक जी की जरूरत बहुत बड़ी थी और इसके लिए वे कोई भी शर्त मानने के लिए तैयार थे, झट से हां कह दी।

मैंने बताया – पहली बात तो यही है कि मैं सुबह के वक्त बिल्कुल भी नहीं बोलता, बिल्कुल भी नहीं तो सुबह आप उससे यह उम्मीद ना करें कि हम ढेर सारी बातें करेंगे और हम दोनों का दिन अच्छा गुजरेगा। पाठक जी के सामने हामी भरने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं था। मैंने दूसरी शर्त रखी – पाठक जी बेशक मैं अकेले रहता हूं लेकिन मेरे शाम के खाने का कोई ठिकाना नहीं रहता। रसोई में सारा सामान रहता है लेकिन तय नहीं रहता कि मैं खाना खुद बनाऊंगा, किसी ढाबे पर खाऊंगा, सड़क किनारे किसी ठेले पर आमलेट खा लूंगा या किसी अच्छे रेस्तरां में रात 10:00 बजे जाकर डिनर करूंगा। 

रात के 9:00 बजे तक यह तय नहीं रहता कि मैं खाने के लिए क्या इंतजाम करने वाला हूं तो अगर आप यह उम्मीद करें कि ऑफिस से आते ही हम दोनों मिलकर सब्जियां काटें, आटा गूंथें और खाना बनाएं तो आपको निराश होना पड़ेगा और तीसरी बात कि बेशक आप मेरे घर पर रहेंगे तब भी आप अपने समय के मालिक होंगे और मैं अपने समय का मालिक हूंगा चाहे हम घर के भीतर रहें या कहीं बाहर घूमने जाएं, दोनों की दिनचर्या अलग-अलग रहेगी। मैं अपने टाइम टेबल के हिसाब से अपने काम करता रहूंगा, कहीं आता जाता रहूंगा और आपको अपना टाइम टेबल अपने हिसाब से सेट करना होगा। कहिए मंजूर है? पाठक जी के पास कोई भी शर्त मंजूर करने का अलावा कोई उपाय नहीं था, हालांकि वे इन तीनों चीजों की सहमति मिलने की उम्मीद लेकर आए थे कि खूब बातें करेंगे, खूब घूमने जाया करेंगे और मिल जुल कर हर शाम खाना बनाया करेंगे और यहां पर एक भी शर्त पूरी नहीं हो रही थी। कुछ ही दिन में उनका दम घुटने लगा था और वे किसी और मनमाफिक ठीये की तलाश में चल दिये थे।

लेकिन पाठक जी मुझे इसलिए नहीं याद आ रहे हैं कि उन्होंने मेरे नाटक में काम किया था या मेरे घर पर रहे थे। दरअसल वे खुद एक अनोखे चरित्र थे और जैसा कि मैंने बताया, उन पर कई व्यंग्य लिखे जा सकते थे। तब वे क्लर्क थे और उनके अधिकारी संयोग से व्यंग्य लेखक थे। पाठक जी के जीवन में हर दिन कोई न कोई ऐसी घटता घटती जो अपने आप में रोचक होती ही, लिखने का भरपूर मसाला देती। हर घटना एक व्यंग्य रचना होती। पाठक जी के अधिकारी इस बात का पूरा फायदा उठाते। चाय की ट्रे आते ही पाठक जी को बुलवा भेजते। पाठक जी से दुआ सलाम करते और पूछते – और बापू, क्या हाल हैं।

बापू शुरू हो जाते और चाय खत्म होने तक अधिकारी महोदय को उनके साप्ताहिक व्यंग्य के कॉलम के लिए भरपूर सामग्री दे जाते। ये सिलसिला बरसों तक चलता रहा और बापू की कहानी अधिकारी की ज़बानी घर घर में पहुंचती रही। इतना ही नहीं, इन साप्ताहिक कॉलमों में छपने वाले बापू के सच्चे किस्से बाद में दो किताबों में छपे और दोनों किताबें पाठक जी को ही समर्पित की गयीं। इन किस्सों का मालिकाना हक तो उन्हीं का था न।

इस बात को लगभग पैंतीस बरस बीत चुके हैं लेकिन उनके कई किस्से मुझे आज भी याद आते हैं। कुछ ऐसे भी किस्से हैं जो मेरे और पाठक के बीच में घटे।

पहले वे किस्से जो उनके अधिकारी की किताब में दर्ज हैं। तब पाठक जी ऑफिस की सांताक्रूज कॉलोनी में रहा करते थे और अपनी सेहत ठीक रखने के हिसाब से साइकिल चलाकर रोज़ बांद्रा स्टेशन जाते, वहाँ साइकिल स्टैंड पर साइकिल रखते, और वहां से शुरू होने वाली ट्रेन लेते। उन दिनों बंबई की यह हालत थी कि सब जगहों पर, सड़कों पर, इमारतों की सीढ़ियों पर, नालियों के ऊपर और जहां भी जगह मिलती, लोग झोपड़े खड़े करके, या टाट लगा कर रहना शुरू कर देते। कई बार तो ये झोपड़े इतने खस्ताहाल होते कि चारों तरफ लटके टाट के पीछे एक पूरा भरा पूरा परिवार रहता।

तो हुआ यूं कि पाठक जी जहां पर अपनी साइकिल खड़ी करते थे, वहां पर भी साइकिल स्टैंड पर कई लोगों ने झोपड़े बनाकर जीवन बसर करने का साधन जुटा लिया था। सुबह जब पाठक जी अपनी साइकिल खड़ी करते तो वहीं पर एक गरीब से लगने वाले आदमी का पूरा परिवार सड़क पर ही खाना बना रहा होता, बच्चे आसपास खेल रहे होते, घर का मुखिया वहीं पर बैठे बीड़ी पी रहा होता। दोनों की कई बार आंखें मिलती और समाज सेवी पाठक जी को उस व्यक्ति पर तरस आता कि यह व्यक्ति अपने परिवार के साथ इस बुरी हालत में रहने के लिए मजबूर है।

कुछ दिन बाद पाठक जी के बेटे का जन्मदिन आने वाला था तो पाठक जी ने तय किया कि अपने बेटे का जन्मदिन एक अलग ही तरीके से मनाएंगे। पाठक जी उस व्यक्ति गरीब आदमी और उसके परिवार के चेहरे पर खुशी की चमक लाना चाहेंगे चाहे वह एक दिन के लिए ही क्यों ना हो। अगले दिन साइकिल खड़ी करते समय पाठक जी ने उस व्यक्ति से दुआ सलाम की और बताया कि अगले हफ्ते मेरे बेटे का जन्मदिन है और मैं इसे खास तरीके से मनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मैं उस दिन तुम्हें और तुम्हारे परिवार को तुम्हारी पसंद का खाना खिलाऊं और इस तरह से मेरे बच्चे को तुम्हारी दुआएं मिलेंगी।

उस आदमी ने बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए कहा – ठीक है साहब, जब दिन आएगा तो मुझे बता देना। बात यहीं खत्म हो गई। अब जब तक बच्चे का जन्मदिन नहीं आ गया, पाठक जी उसे रोज सुबह शाम याद दिलाते कि वे उन्हें दावत खिलाने वाले हैं। दावत वाले दिन भी सुबह पाठक जी ने उसे याद दिलाया कि शाम को तैयार रहना, खाना खाने जाना है। उस व्यक्ति ने लापरवाही से कहा – ठीक है साहब, शाम को मिलते हैं। शाम को पाठक जी फिर उसके सामने हाजिर थे –  आप लोग तैयार हो जाइए। खाना खाने चलते हैं। उस आदमी ने हंसकर कहा – क्या साहब जोक मारते हैं आप। हम तो हमेशा तैयार रहते हैं। चलो कहां चलना है? तब पाठक जी ने बताया कि बेटे के जन्मदिन के कारण उनका तो उपवास है, वे खाना नहीं खाएंगे लेकिन वह व्यक्ति जहां और जिस जगह खाना खाना चाहे, वे उन्हें ले जाएंगे और तबीयत से खाना खिलाएंगे। खैर, सब लोग चले। उस आदमी ने और उसके परिवार ने अपनी पसंद का खाना खाया और पाठक जी के बच्चे को खूब दुआएं दी कि वह बड़ा आदमी बने वगैरह वगैरह। पाठक जी खिला कर तृप्त।

 अगले दिन से पाठक जी को लगा कि उन्होंने एक बहुत बड़ा काम किया है लेकिन एक और काम है जो उन्हें करना चाहिए। वह यह कि उस व्यक्ति को बताना चाहिए कि बेहतर जीवन, साफ सुथरा माहौल, बच्चों की पढ़ाई, बच्चों का कैरियर कितना जरूरी होता है। उसके लिए उस आदमी को कोशिशें करनी चाहिए। पाठक जी ने तय किया कि वे इस व्यक्ति और उसके बच्चों के जीवन में सुधार लाने के लिए काम करेंगे। दो-तीन दिन तक तो पाठक जी उस व्यक्ति से दुआ सलाम करते रहे और व्यक्ति पूरे सम्मान के साथ उनकी दुआ सलाम का जवाब देता रहा और अपनी तरफ से भी सलाम करता रहा। जब तीसरे दिन पाठक जी को लगा कि अब सही मौका आ गया है तो उसके पास बैठ गए और लगे उसे समझाने – इतनी गंदी जगह पर रहते हो, ना सोने की जगह, ना बैठने की, न खाने की, कपड़े धोने की जगह। कितने गंदे रहते हो और बच्चे देखो, कितने गंदे माहौल में बड़े हो रहे हैं। तुम क्यों नहीं किसी अच्छी जगह पर रहते, कोई अच्छा काम करते, और बच्चों के कैरियर की तरफ ध्यान देते। और इस तरह की बीसियों बातें पाठक जी ने उस व्यक्ति को सुनाई। पहले तो वह व्यक्ति चुपचाप बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए पाठक जी की बातें सुनता रहा, लेकिन जब पाठक जी के बातें कुछ ज्यादा ही ऊपर जाने लगीं तो उसने पाठक जी को टोकते हुए कहा – ठीक है, साहब कि आपने हमें खाना खिलाया है, उसके लिए मैं आपको थैंक्स बोल चुका हूं और हमेशा आपको सलाम करता रहूंगा। जहां तक मेरी पर्सनल लाइफ में, लाइफ स्टाइल में दखल देने की बात है, उसमें मैं आपको कोई अधिकार नहीं देता कि आप इसके बारे में कोई कमेंट करें। सच सुनना चाहते हैं तो आपको हजम नहीं होगा लेकिन आपने मुझसे इतनी बातें कहीं तो आपको भी सुनना पड़ेगा। सच यह है कि मैं इस हालत में यहां पर रहते हुए अफीम चरस का धंधा करता हूं। आपकी महीने की जितनी पगार होगी, उतनी मैं 2 दिन में कमा लेता हूं। अगर आपके कहे अनुसार मैं ढंग की जगह पर रहने लगा तो हो चुका मेरा धंधा और हो चुका मेरा दाना पानी। जाइए साहब, अपना काम कीजिए और मुझे मेरा काम करने दीजिए। मेरे धंधे का टाइम हो रहा है।

पाठक जी के पास अब साइकिल उठा कर चल देने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा था।

एक बार पाठक जी एक बार सांताक्रुज ईस्ट से सांताक्रुज वेस्ट जा रहे थे। उन्हें रेलवे पुल पार करके दूसरी तरफ जाना था। तभी उन्होंने देखा कि एक महिला दो बड़े बड़े थैले लिए पुल पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी। थैले वाकई भारी थे। हमारे दयावान पाठक जी को उस पर दया आ गई और वे उस औरत की मदद करने की नियत से आगे आये। उसका एक बैग उठाया और पहले सीढ़ियां चढ़ कर पुल पार किया और फिर दूसरी तरफ नीचे उतर कर दूसरी तरफ पहुंचाया। उन्हें लगा कि वह महिला कहीं आस-पास ही रहती होगी तो पाठक जी ने ऑफर किया – अगर आपका घर आस-पास ही है तो मैं आपके घर तक आपका थैला पहुंचा देता हूं। उस औरत ने कहा – नहीं भाई साहब, इसकी जरूरत नहीं है। मेरे हस्बैंड पीछे आ रहे हैं। मैं चली जाऊंगी। पाठक जी सकते में आ गए। पीछे मुड़कर देखा तो एक मोटा सा आदमी गन्ना चूसते हुए मैडम के पास चला रहा था।

पाठक जी हर काम पूरे सलीके से और परफैक्शन से करते थे और उसमें कोई भी चूक नहीं होती थी। एक बार की बात, स्कूटर पर मेरे घर तक आए। स्कूटर लॉक किया। सिर से हेलमेट उतारा, डिक्की का ताला खोला और हेलमेट रखा। अब चश्मा उतारा, डिक्की में से चश्मे का कवर निकालकर उसमें रखा। अब मफलर निकाला और डिक्की में से मफलर की थैली निकाल कर उसमें रखा। अब कानों में से ईयर प्लग निकाले और डिक्की में से प्लग रखने की डिब्बी निकालकर ईयर प्लग रखे। अब हाथों के दस्ताने उतार कर डिक्की में से थैली निकाल कर उसमें रखे। सारा सामान सुरक्षित रखने के बाद स्कूटर का ताला चेक किया और मेरे घर के दरवाजे तक आए। देखा, वहां ताला बंद था। 2 मिनट के लिए खड़े रहे। फिर दरवाजे पर लटक रही पर्ची पर वहीं लटकते पेन से लिखा – मैं आया था। पाठक। वापिस जा रहा हूं, बाद में मिलते हैं। 

यह लिखने के बाद वे वापिस स्कूटर के पास आए और वे सारी क्रियाएं दोहरायीं जो थोड़ी देर पहले साजो-सामान उतारने के लिए की थी। अब यह सारी क्रिया शरीर पर साजो सामान धारण करने के लिए की गयी। अभी वे स्कूटर पर किक मारने ही वाले थे कि मैं अपने घर अपनी मोटरसाइकिल पर आ पहुंचा। उन्होंने फिर से स्कूटर रोका, स्टैंड पर लगाया और फिर से वे सारी प्रक्रिया अस्त्र शस्त्र उतारने के लिए दोहरायी जो 5 मिनट में दो बार कर चुके थे। यानी सारी चीजें उतारकर सहेज कर रखना। मैं उन्हें ये सब करते हुए देख रहा था और अभी मोटरसाइकिल से उतरा नहीं था। जब वे ये सब चीजें उतार चुके तो मैंने बताया – यार, घर बैठ कर क्या करेंगे। चल, फिल्म देखने चलते हैं। पारस में एक अच्छी फिल्म लगी है। और पाठक जी एक बार फिर सारी चीजें अपने शरीर पर धारण करने लगे – दस्ताने, चश्मा, ईयर प्लग, मफलर और हेलमेट।

पाठक जी के जीवन में कोई दिन ऐसा नहीं होता था जब उनके साथ कोई रोचक घटना ना घटती हो और उसे वे अपने मित्रों के साथ शेयर ना करते हों। आमतौर पर वे एक बार बेवकूफ बन ही चुके होते थे लेकिन वही घटना उनके साथ दोबारा घटती तो उन्हें लगता था कि अपनी तरफ से अच्छा ही किया था, उनके साथ हर बार ऐसा क्यों होता है

ये घटना उनके जीवन की ऐेतिहासिक रही। उन दिनों वे अहमदाबाद में थे। उम्र लगभग चालीस बरस रही होगी। शरीर से फिट थे। एक शाम पैदल चलते चलते वे बहुत दूर तक चलते चले गये। राह चलते किसी अनजान आदमी से दुआ सलाम हुई। दोनों बातें करते करते साथ साथ चलने लगे। आगे एक चाय की टपरी आयी तो उस आदमी ने पाठक को चाय पिलायी और नाश्ता कराया। पाठक जी खुश। तभी उस आदमी ने कहा कि पास ही मेरा घर है। अकेला रहता हूं। कोई मेरे घर आये तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। और ये कह कर वह बंदा पाठक जी को एक किमी दूर अपने डेरे तक ले गया।

उस बंदे ने दरवाजा खोला,  पाठक जी को बिठाया और दरवाजा बंद कर दिया। जब तक पाठक जी कुछ समझ पाते, वह आदमी अपनी पैंट खोल चुका था और पाठक जी के आगे गिड़गिड़ा रहा था – साब जी, बहुत दिल कर रहा है। आइये, वी आर जस्ट फ्रेंड्स।

तब पाठक जी को समझ में आया कि इस बंदे ने उन्हें नाश्ता क्यों करवाया है और घर तक किस काम के लिए ले कर आया है।

पाठक जी जो सरपट भागे, घर आ कर ही दम लिया।

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