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Poem

हो राम! चुन-चुन खाए

उस घर से जाते हुए अंजुलि भर अन्न लेना
और पीछे की ओर उछाल देना
पलट कर मत देखना पुत्री, बँध जाओगी
तुम अन्न बिखेरो, पिता-भाई को धन-धान्य का सौभाग्य सौंपो
और आगे बढ़ जाओ
ख़ुद को यहाँ मत रोपना
हमने तुम्हें हृदय में सहेज लिया है

जिस घर आओ
दाएँ पैर से बिखेरना अन्न का लोटा
रक्त-क़दमों की छाप छोड़कर प्रवेश लेना
श्वसुर-पति को धन-धान्य, वंश-वृद्धि का सौभाग्य सौंपना
ताकि हृदय में तुम्हें रोप लिया जाए

जब तक स्वामी के अधीन हो
लक्ष्मी, अन्नपूर्णा
राजमहिषी हो
आँगन में बँधी सहेजती रहो अनाज
तुम्हें आजीवन मिलता रहेगा
पेट भर अन्न, हृदय भर वस्त्र-शृंगार
परपुरुषों से सुरक्षा
तुम्हारे निमित्त रखे गए हर अन्न के दाने पर यही सीख गुदी है

तुम इसे भूली
कि हृदय से उखाड़ी गईं
अपने खूँटे से खुली कहलाईं
खुली हुई स्त्री पर सब अधिकार चाहेंगे
वे चाहेंगे तुम्हारे हृदय में अपनी छवि रोप देना
तुम कभी किसी घर में नहीं रोपी जाओगी
किसी हृदय पर तुम्हारा अधिकार नहीं होगा

पूर्व कथा : यथार्थ या दुःस्वप्न

दादी की कथा की गोलमंती चिड़ैया
चौराहे पर खड़ी कहती थी
मेरा खूँटा पर्वत महल पर बना है
मुझे मेरे बच्चों सहित वहाँ से निकाल दिया गया
मैं और मेरे बच्चे भूखे मर रहे थे
जिसके हिस्से का अन्न खा लिया मैंने
भूख से बिलखते बच्चों को खिलाया
वह मुझे पकड़ कर ले जाए
हो राम! चुन-चुन खाए
ज्यों मैंने उनका अनाज चुन-चुन कर खाया था

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