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Poem

लम्हे ख़त्म नहीं होते पानी की बूँदों की तरह मिलकर बड़े हो जाते हैं

धूल भरी हवा उठती है तुम्हारे क़दमों के एकदम क़रीब से
एक समंदर धुँधला-सा निकल गया है छूते तुम्हें
किसी पेड़ ने अपनी पत्तियाँ गिरा कहा है कुछ तुमसे
रौशनी का एक उदास क़तरा उलझे बालों में ठहर गया है
और तुम चलती जा रही हो भीड़ भरी सड़क पर रास्ता बनाते

मैं कहाँ हूँ इस दृश्य में?
इतने चेहरों के बीच अपना चेहरा तलाशते खो गया हूँ एक बार फिर

पार्क है अनमने पैरों से दबी घास और सी-सा के दूसरी तरफ़ जाने कौन है
इस तरफ़ तुम हो नीचे आने की प्रतीक्षा करती
बार-बार कहता है चौकीदार कि वक़्त हो गया है बंद करना है दरवाज़ा
और तुम एक बेबस-सी हँसी में देखती हो नीचे
फिर मोच लिए पाँवों में निकल पड़ती हो बाहर देखना था न कौन था उस तरफ़

मुझे बाहर करनी थी प्रतीक्षा
और तुम्हारे आने के पहले चले जाना था वहाँ से

भीगी हुई है आवाज़ तुम्हारी शरीर टूटता दर्द से होंठों पर चुप्पियों की पपड़ी
चारो तरफ़ एक शोर अनेक आवाज़ों में एक ही बात : बहुत प्यार करता हूँ तुम्हें
गडमड्ड हुए चेहरे पिघलते हुए पसर जाते हैं तुम्हारी आत्मा पर प्लास्टिक से चिपकते
सारी त्वचा पर चकत्ते हैं लाल लाल और आवाज़ें कहती हैं, देखो कितना प्यार करते हैं हम तुम्हें
एक खिड़की है खुली जिससे कूद जाना चाहती हो तुम वे आवाज़ें ग्रिल बनकर ढँक लेती हैं उन्हें

मैं खड़ा हूँ उस खिड़की के नीचे
ऊपर आना था मुझे?

यह तुम्हारी ही आवाज़ है?
वह मेरा ही नाम है जो पुकारा तुमने टूटती साँसों से?
तुम्हारी ही देह है यह चाँदनी-सी पसरी हुई रौशनी भरती इस वीरान कमरे में?
यह तुम हो या कोई स्वप्न है जिसमें डूबता हूँ मैं जैसे शंख नदी के कुंड में डूबती हो कुष्ठ से ग़लती कोई देह

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