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Poem

हम आजकल कहीं नहीं रहते

हम स्मृतियों में लौटते हैं
क्योंकि लौटने के लिए कहीं कुछ और नहीं
वे सभी जगहें जहाँ हम जा सकते थे
हमारी पहुँच से थोड़ा आगे बढ़ चुकी हैं
या इतना पीछे छूट गई हैं
कि हमारे पैर नहीं नाप पाते वहाँ तक की दूरी

स्मृतियों में लौटना दरअस्ल भटकना है अरण्य में
दिशा, काल, पहर का हिसाब यहाँ कोई मायने नहीं रखता
मुक्त, निर्बंध भागते मन के पैर
कई बार लहूलुहान होकर चीख़ पड़ते हैं
फिर भी ये कुछ बची-खुची जगहें हैं
जहाँ हम ख़ुद को अब भी खोज निकाल लाते हैं
अपने आज में पूरी तरह गुम हो चुकने के बाद भी

हमारे वर्तमान को ज़रूरत है एक स्थायी पते की
जहाँ रहने के सुबूत दिए जा सकें
लेकिन यह क़तई ज़रूरी नहीं कि हर रोज़ वहाँ सोने-जागने पर भी
हम वहाँ साबुत पाए जाते हों
हमारी उँगलियों की छुअन से उकताई चीज़ें
अक्सर अजनबीपन की गंध से भर आती हैं
रोज़ की भटकन से आजिज़
पीछे छूटी चप्पलें भी हमारी शिनाख़्त करने से इंकार कर सकती हैं
कई बार घर के बाहर लगी तख़्ती तक हमारे अस्ल चेहरे से नावाक़िफ़ होती है
दरअस्ल, हम आजकल कहीं नहीं रहते
अपने ओढ़े गए खोल में भी नहीं

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