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Poem

बहनापा

किसी कामनावश नहीं मिले थे उनके होंठ
सदियों से अतृप्त थीं वे
शताब्दियों से निर्वासित
देवों के हृदय से
जिनकी शय्या पर बिछाई जाती रहीं फूलों की तरह
और मसल कर फेंकी जाती रहीं
भोगा गया तन
अनछुई रही आत्मा
उनके ज़ख़्म
एक स्त्री का शरीर ही देख पाया था
हौले से छुए उन्होंने एक दूसरे के घाव
सहलाया हर अव्यक्त पीड़ा को
उनके बीच
न रंग था, न वर्ण, न जाति, न आयु, न शरीर
वे दो आत्माएँ थीं
हर संशय और हीनता से मुक्त
एक दूसरे में लीन
उन्हें सुख ने नहीं,
मोह और भोग ने नहीं
दुःखों ने एक दूसरे से बाँधा था


उनके गीत उनका रुदन थे
माथे से माथा जोड़
कंठ से कंठ मिला
जिसे गाती रही थीं वे : बिना सुर-ताल
उन्होंने मिट्टी की दीवारों पर साथ उकेरे अपने स्वप्न
और उनमें अपनी दमित इच्छाओं का रंग भरा
क़िस्से-कहानियाँ बाँचते
उन्होंने जी लिया अपना निर्वासित मन
चूल्हे के धुएँ से जब सजल हो आई आँखें
उन्होंने साथ मिलकर कहकहे लगाए
और भोजन में घुल आया स्वाद
आज भी उन्हें जोड़ रखा है कलाओं ने
उन्हें पढ़नी आती है एक दूसरे की आँखों की अव्यक्त भाषा


उनका मिलन छिपा है संगीत की अबूझ धुनों में
उन्हें जानना हो तो डूबना रंगों की जटिलताओं में
वे मिलेंगी कविताओं की अव्यक्त पंक्तियों के बीच
एक दूसरे को प्रेम करते हुए
वे जन्म दे रही हैं हर क्षण
एक नई पृथ्वी

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