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Memoirs

एक फर्लांग का सफरनामा

मुंबई में चर्चगेट स्टेशन से दो तरफ के एक फर्लांग के सफरनामे लिखे जा सकते हैं। एक सफरनामा बनेगा वीर नरीमन रोड से होते हुए मैरीन ड्राइव तक और दूसरा बनेगा चर्चगेट से मेरी रोज़ी-रोटी के ठीये रिज़र्व बैंक तक। आज मैं बेशक दूसरा वाला एक फर्लांग का सफरनामा लिखने वाला हूं लेकिन पहले वाले सफरनामे के बारे में सिर्फ दो बातें ज़रूर बताना चाहूंगा।

वैसे मुंबई की हर गली और हर सड़क पर सैकड़ों सफरनामे लिखे जा सकते हैं। समंदर की हर लहर अपने साथ न जाने कितनी कहानियां रोज़ किनारे तक लाती हैं और वापिस ले जाती हैं। मैरीन ड्राइव की मुंडेर ही लें। इस दीवार पर रोज़ाना कितने किस्‍से बनते और बिगड़ते हैं, कोई हिसाब नहीं। किस्‍सों की कोई कमी नहीं, बस धैर्य से सुनने वाले चाहिये।

तो भाई जान, वीर नरीमन रोड पर चर्च गेट से दायीं तरफ जाने पर पांचवीं बिल्डिंग है रेशम भवन। चर्चगेट से पैदल चलें तो यही कोई सत्‍तर कदम पर होगी ये इमारत। इसमें एक है टी सेंटर। इसने बदलते वक्त के साथ कई मालिक देखे और कई ग्राहक भी। ये सरकारी टी सेंटर है जो टी बोर्ड की मिल्कियत है और कई बार ये निजी हाथों में भी रहा। कभी ये बुद्धिजीवियों का अड्डा हुआ करता था और कई लेखकों की अमर रचनाओं के बीज यहीं पड़े होंगे। हिन्‍दी के प्रख्‍यात लेखक मोहन राकेश अक्‍सर यहां बैठते थे। उनकी किसी रचना में इसका जिक्र भी है।

उनका कथा नायक टी सेंटर से बाहर निकल कर वहां से चर्चगेट के लिए टैक्‍सी करता है। टैक्‍सी वाला कथा नायक से कहता है कि ये सामने ही तो रहा आपका चर्चगेट। भला इतनी छोटी दूरी के लिए टैक्‍सी . . ! अब जैसे ठहरे मूडी हमारे मोहन राकेश वैसे ही ठहरे उनके पात्र। जो कह दिया सो कह‍ दिया। टैक्‍सी चाहिये तो चाहिये। बाकायदा उस सत्तर कदम की दूरी के लिए टैक्‍सी की गयी और बिल अदा किया गया।

ये तो रहा पहला प्रसंग। दूसरा प्रसंग ये है कि वीर नरीमन रोड के मैरीन ड्राइव वाले कोने पर है एक रेस्‍तरां। थोड़ा सा ओपन और थोड़ा सा ढका छुपा। नाम है टॉक ऑफ द टाउन। इसी रेस्‍तरां पर पिछले बीसियों बरसों से एक बैनर लगा हुआ है‍ जिस पर हर हफ्ते एक नया और मजेदार संदेश नज़र आता है और वहां से गुज़रने वाले हर मुंबईकर के लिए ये संदेश मायने रखता है। ये वन लाइनर संदेश कुछ भी हो सकता है लेकिन होता मौजूं है। इसे लिखते हैं मुंबई के भूतपूर्व शेरिफ और मुंबई की एक नामचीन हस्‍ती नाना चुडासमा। बीसियों बरस पहले का एक संदेश मुझे अभी भी याद है। तब फाकलैंड के लिए युद्ध चल रहा था। तब हमारे नाना ने लिखा था – व्‍हाई फाइट फॉर फाकलैंड। टेक अवर फॉकलैंड रोड। यहां मैं अपने पाठकों को बता दूं कि मुंबई का फाकलैंड रोड इलाका यहां का सबसे पुराना और बदनाम रंडी बाजार है।

अब मैं आता हूं अपने आज के एक फर्लांग के सफरनामे पर। पश्चिम रेलवे के अंतिम स्‍टेशन चर्चगेट से बाहर निकलने के कई रास्‍ते हैं। कुछ बायीं तरफ तो कुछ दायीं तरफ। दायीं तरफ के सभी रास्‍ते अमूमन आपको मैरीन ड्राइव ले जाते हैं। दो सड़कें सामने की तरफ फूटती हैं। एक सड़क आपको मंत्रालय और फिर आगे कफ परेड की तरफ ले जायेगी और दूसरी ओवल मैदान के बगल से आपको कोलाबा, ताज होटल और गेटवे आफ इंडिया की तरफ ले जा सकती है। चर्चगेट से बायीं तरफ से बाहर जाने के जो रास्‍ते हैं, उनमें से एक रास्‍ते से आप पश्चिम रेलवे के मुख्‍यालय की तरफ जा सकते हैं और वहीं से आप मुंबई शहर की विभिन्‍न दिशाओं के लिए बसें भी पकड़ सकते हैं।

तो इसी रास्‍ते की सीढ़ि‍यों पर बीसियों बरसों से रहा करती थीं मिसेज ग्रेसी राफेल। भिखारिन की-सी हालत में, लेकिन पहली ही नज़र उन्‍हें देखने पर लगता था कि वे इस माहौल की तो नहीं ही हैं। काफी भव्‍य रहा होगा उनका अतीत। वे कभी किसी से कुछ मांगती नहीं थीं। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया और न भी मिला तो कोई बात नहीं। कभी उन्हें किसी से बात करते नहीं देखा था। अपने आप में मगन।

मुझे पता चला था कि उनके पति हमारे ही संस्‍थान रिज़र्व बैंक के एक बड़े अधिकारी थे और ग्रेसी राफेल के इस तरह से फुटपाथ पर भिखारिन की सी हालत में पहुंचने के पीछे सारा मामला शक का था। मिस्टर राफेल की शराबखोरी ने भी उन्हें वहां तक पागल बना कर पहुंचाने में रोल अदा किया था।

पिछले दिनों जब मैं अपने इस एक फर्लांग के सफरनामे के लिए सारी डिटेल को ताजा करने की नीयत से और कुछ तस्‍वीरें लेने के लिए चर्चगेट से अपने दफतर तक पैदल गया था तो मैंने पाया था कि अब वह वहां पर नहीं हैं। मिसेज राफेल के ठीये की जगह अब बिलकुल साफ थी। इसका मतलब अब वे नहीं रहीं। मैं अपने पाठकों को याद दिला दूं कि मैंने मिसेज राफेल पर एक कहानी क्‍या आप मिसेज राफेल को जानते हैं लिखी थी जो 2002 में फरवरी में वागर्थ में छपी थी।

पश्चिम रेलवे के मुख्‍यालय के पीछे एक उजड़ा सा मैदान है जहां एक तरफ अब रेडिमेड कपड़े बेचने वालों ने स्‍थायी ठीये बना लिये हैं। वहीं कुछ परिवार गरीबों के लिए खाना बना कर सस्ते में बेचते हैं। उसी मैदान में एक कोने में एक सरदार जी का ठीया है जो आयुर्वेदिक दवाओं का धंधा करता है। जब मैं 1981 में मुंबई आया था तो वह ठीया वहां पर था और उस पर बोर्ड लगा था कि ये दुकान पिछले सात बरस से यहीं है और बरसात को छोड़ कर हमेशा यहीं रहती है। इस बात को भी 25 बरस बीत गये हैं और सरदार जी का ठीया अब भी वहीं है। ये बात अलग है कि मैं इन 25 बरसों में दिन में दो बार के हिसाब से 10000 बार तो गुज़रा ही हूं उनके सामने से लेकिन आज तक मैंने इस दुकान पर कोई ग्राहक नहीं देखा।

अगर आप चर्चगेट से वीर नरीमन रोड से सीधे फाउंटेन की तरफ जाना चाहो तो आपको या तो मिसेज ग्रेसी राफेल वाले रास्‍ते से आना होगा या सीढ़ियां उतर कर और फिर दोबारा बायीं तरफ की सीढ़ियां चढ़ कर स्‍टेशन के अहाते से बाहर आना होगा। बहुत पहले चर्चगेट से बाहर आने के लिए सबवे नहीं बने थे और सड़क पर तेज चलते ट्रैफिक में जान जोखिम में डाल कर ही सड़क पार की जा सकती थी। अब सामने की तरफ तो दसियों बरस पहले से सब वे बन गया है लेकिन लोग हैं कि अब भी सड़क पार करने के लिए ट्रेफिक के बीच में से भागते हैं। चर्चगेट और पश्चिम रेलवे के मुख्यालय के बीच महर्षि कर्वे रोड है। मुख्यालय में बने रिजर्वेशन ऑफिस जाने के लिए या वीटी, फाउंटेन, फोर्ट, कोलाबा, बेलार्ड पीयर पैदल या बस से जाने के लिए ये सड़क पार करनी ही होती है। सुबह के वक्त जब चर्चगेट पर एक एक लोकल पांच पांच हजार सवारियां उगलती हैं तो सड़क पार करने के लिए वहां पर उतरे हुजूम को संभालना किसी के बस का नहीं होता। मुंबई में पैदल पार करने वाले सिग्नल की राह नहीं देखते, बस मौका देखते हैं, पार हो गये तो ठीक, वरना गाड़ी वालों की गालियां और टूटे हाथ पांव तो हैं ही। तो इसी हुजूम को रोकने के लिए इस सड़क पर और कई दूसरी सड़कों पर आपको भीड़ भाड़ के वक्त पुलिस वाले रस्सियों के सहारे लोगों को रोकते नज़र आयेंगे। अब तो इस सड़क पर दो ढाई फुट ऊंचा मजबूत डिवाइडर बना दिया गया है लेकिन सौ कदम दूर तक सब वे तक कौन जाये। मर्द लोग और कई बार मर्दानियां भी बढ़िया कपड़े पहने और महंगा ब्रीफकेस लिये आपको ये डिवाइडर फांदते दिखाई दे जायेंगे। मुंबई का माणुस एक एक सेकेंड बचाता है तभी चलता है। सब वे से आने का मतलब पांच पंद्रह की या छः नौ की विरार फास्ट छूट जायेगी। यहां एक एक सेकेंड कीमती है भाई।

जब मैं इस लेख के लिए इस डिवाइडर के फोटो ले रहा था तो मैंने वर्दी पहने एक ट्रेफिक पुलिस वाले को यही डिवाइडर फांदते देखा। जब तक मेरा कैमरा तैयार होता, वह पार हो चुका था।

तो सबवे में सामने की तरफ जाने वाले रास्ते में तो खाने और पीने के सामान की और सीडी वगैरह की कई दुकानें हैं। बायीं तरफ बाहर निकलते ही आपको फुटपाथ छेके कई फेरी वाले मिलेंगे जो पुराने कपड़े, नये कपड़े, जूते और तरह तरह के सामान बेचते नज़र आयेंगे। पुलिस इन्हें पिछले सौ बरस से यहां से भगा रही है लेकिन थोड़ी देर बाद ही ये फिर यहीं होते हैं। रात को तो यहां बाकायदा खाने पीने के स्टाल लग जाते हैं और आप बिरयानी से ले कर फिश फ्राई तक फुटपाथ पर खड़े हो कर खा सकते हैं। सस्‍ता और टिकाऊ खाना।

थोड़ा आगे चलें तो आपको अपनी तरफ वाली सड़क पर बीसियों स्टाल मिलेंगे जो रेडिमेड कपड़े बेचते नजर आयेंगे। ये भी सैकड़ों बरसों से यहीं हैं और अब इनके अस्तित्व को स्वीकार करके स्टाल बना कर दे दिये गये हैं। इसके बाद है एक पारसी मंदिर और उनका पवित्र कूंआ। पारसियों के मंदिर में गैर पारसी नहीं जा सकते। उनके मंदिर में तो दूर, उनकी जिंदगी में भी इतनी आसानी से नहीं झांका जा सकता। दायीं तरफ सड़क के पार है मशहूर ओवल मैदान जहां पर हर वक्त बीस पच्चीस टीमें क्रिकेट खेलती नजर आयेंगी। सड़क की तरफ वाला कोना दिलीप वेंगसरकर की क्रिकेट अकादमी ने घेरा हुआ है इसलिए वहां अमूमन साफ सुथरे बच्चे खेलते नजर आते हैं। बाकी जगहों पर कभी कोई क्लब और कभी कोई टीम अपने मैच खेल रही होती है। हालांकि अब ओवल की देख रेख बड़ी बड़ी निजी कम्पनियों के हाथों में है और सुरक्षा और सफाई का इंतजाम है लेकिन मैंने ओवल के वे दिन भी देखे हैं जब इस विशाल मैदान के अंधेरे कोनों में समलिंगी, उभयलिंगी और विषम लिंगी गतिविधियां सरे आम और सरे शाम चलती थीं और आप मैदान पार करने में भी डरते थे।

ओवल के एक तरफ हाई कोर्ट है और उससे ठीक सटी हुई मुंबई विश्व विद्यालय के पुस्तकालय की इमारत – राजा भाई टावर। दोनों इमारतें शहर की शान हैं।

ये चौराहा पार करने पर आपके अपनी तरफ सीटीओ है और सामने की तरफ हाई कोर्ट के अहाते की दीवार। इस चौराहे को भी पैदल पार कराने के लिए अभी भी सुबह और शाम पुलिस वाले रस्सी ले कर खड़े होते हैं। रस्सी का एक सिरा एक तरफ खम्बे से बंधा होता है और दूसरी तरफ उसे पुलिस वाला तब तक पकड़ कर खड़ा रहता है जब तक पैदल पार करने वालों के लिए बत्ती हरी न हो जाये। सीटीओ इलाके में एक बरस पहले तक खूब रौनक रहती थी। ये मुंबई का सबसे अच्छा, बढ़िया और विश्वसनीय पुरानी किताबों का अड्डा रहा। पचास बरस से भी ज्यादा तक। अब इस जगह को खाली करा लिया गया है। किताबों से गहरा नाता रखने वालों के लिए इन किताबों वालों को बेदखल किया जाना बहुत बड़ा हादसा था। अखबारों में इस कदम के विरोध में लिखा गया, अलग अलग मंचों से आवाज उठायी गयी लेकिन वही हुआ जो सरकार ने चाहा।

मुंबई के सबसे विवादास्पद तोड़क मुहिम के अगुवा रिटायर्ड डिप्टी कमिश्नर जी के खैरनार तक ने माना था कि उन्होंने यहां से सैकड़ों बार बेहतरीन किताबें खरीदी हैं। शनिवार को दोपहर को दफ्तर छोड़ने वालों का ये सबसे नायाब और सस्ता टाइम पास और मीटिंग प्लेस हुआ करता था। यहां दुर्लभ और कीमती किताबें कई बार हाथ लग जाती थीं। किताबें बेचने वालों के कम पढ़े लिखे नौकर तक इतने कुशल थे कि ग्राहक के खड़े होने, किताब देखने और किताब उठाने के तरीके से समझ जाते थे कि ग्राहक सिर्फ टाइम पास कर रहा है या इस या किसी खास किताब की तलाश में है। कई बार वे अपने इसी हुनर के बल पर किताब की कीमत बढ़ा कर बताते और वसूल भी कर लेते। उन्हें बिना पढ़े किताबों के बारे में इतनी जानकारी थी कि आप अगर हावर्ड फास्ट की एक किताब उनके स्टाल से उठायें तो वे आपको नोबल पुरस्कार से सम्मानित दस लेखकों की किताबें निकाल कर दिखा दें और अगर आप सिडनी शेल्डन की किताब उठायेंगे तो वह आपको काफ्का की नहीं, सिडनी शेल्डन के स्तर के ही किसी लेखक की किताब थमायेंगे। तो ये थी दुनिया किताबों की जिससे मैं दिन में दो बार गुज़रता था और मैंने भी यहां से कई दुर्लभ किताबें खरीदी हैं।

जब मैंने तय किया कि चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद करना है तो नयी किताब मुझे भारत के किसी भी शहर में नहीं मिली थी। लंदन तक में वह किताब आउट आफ प्रिंट थी। तब यही फुटपाथ मेरे काम आया था। मैं सुबह के वक्त सीटीओ की तरफ वाले फुटपाथ पर लगी दुकानों पर पूछता और आफिस से वापिस आते समय हाई कोर्ट वाले फुटपाथ पर। लगातार दो महीने के बाद लगभग हर दुकान पर कई कई बार पूछ चुकने के बाद ये किताब मेरे हाथ लग पायी थी।

सीटीओ की दीवार खत्म होते ही एक स्टाल है वडा पाव का। मुंबई वासी का सबसे सस्ता, लोकप्रिय और हैंडी फास्ट फूड। यहां जो स्टाल है वह चालीस बरस पुराना तो होगा ही और अब तक कई करोड़ वडा पाव बना कर बेच चुका होगा। उस स्टाल पर हर समय कम से कम बीस आदमी तो खड़े होते ही हैं अपनी बारी के इंतज़ार में।

लगभग सौ मीटर लम्बी इस गलियारे नुमा सड़क के एक सिरे पर एक बहुत बड़ा चौराहा है। इसके बीचों बीच में है फ्लोरा फाउंटेन। यहां पर सफेद पत्‍थर से बनी रोमन देवी फ्लोरा की मूर्ति है। इसे 1864 में लगभग 47000 रुपये की लागत से बनवाया गया था। ये मुंबई की विरासत के रूप में शामिल ढांचों में से एक है। इसके चारों तरफ फव्वारा सा चलता रहता है। दस बीस बरस पहले मुंबई (तब की बंबई) के महापौर ने सन 1960 में हुए बंबई आंदोलन में शहीद हुए लोगों के सम्मान में यहां शहीद स्मारक नुमा एक चबूतरा बनवा दिया था, जिस पर उस सस्ते जमाने में भी 40 लाख रुपये खर्च हो गये थे। मुंबई के शहरी इलाके का केन्‍द्र है ये। अब यहां कार पार्किंग है।

यहां कुछ अच्छे रेस्तरां, कुछ बैंक, कुछ सड़क छाप स्टाल वगैरह हैं लेकिन हमेशा भागम भाग। रीगल की तरफ जाओ तो थोड़ी ही दूर है काला घोड़ा नाम की जगह। कभी यहां किसी की मूर्ति रही होगी जो काले घोड़े पर सवार रहा होगा। अब न तो घोड़ा है न सवार। यहीं पर मुंबई का कला क्षेत्र है – जहांगीर आर्ट गैलरी। इसके बारे में फिर कभी।

 हां, तो बात हो रही थी फाउंटेन की। इसके एक तरफ पुलिस चौकी है क्योंकि शहर में जो भी धरने होते हैं, जुलूस निकलते हैं, उनका अंतिम पड़ाव यही स्थल होता है। फाउंटेन की परली तरफ वाली सड़क का पूरा हिस्सा फुटपाथ बाजार है। ये भी बीसियों बरस से हटता/लगता रहता है। हां, जिस दिन कोई मोर्चा हो, धरना हो या शहर को हिला कर रख देने वाली और कोई घटना हो, इस चौराहे के सभी फेरीवालों को उस दिन की जबरन छुट्टी रखनी ही पड़ती है। इन फेरी वालों के पास रोजाना ज़रूरत की चीजें बहुत सस्ते दामों पर मिल जाती हैं। हां, अगर आप इसी फुटपाथ से होते हुए वीटी स्टेशन की तरफ पैदल जायें तो आपको लैपटाप ले कर आइपॉड बेचने वाले, ब्लू फिल्मों की सीडी बेचने वाले और हर तरह के असली नकली सामान बेचने वाले मिल जायेंगे। बस आप में बार्गेन करने का हुनर होना चाहिये। कोई बड़ी बात नहीं, कोई सड़क छाप सेल्समैन आपको रिवाल्वर या एके सेवन का सौदा करता भी मिल जाये।

अब आपको इस चौराहे से नाक की सीध में आगे बढ़ना है। यहीं पर आपको कुछ बड़ी कम्पनियों के शो रूम मिलेंगे और उन्हीं के बीच नज़र आयेगा मुंबई का सौ बरस से भी पुराना मॉल जिसका नाम है अकबरअलीज़। यहां आपको मौसम के बढ़िया हापूस आमों से लेकर बेहतरीन सूटिंग तक मिल जायेंगे। पहले ये सड़क भी आम ट्रैफिक के लिए खुली रहती थी, अब इसे एक सिरे से बंद करके ट्रैफिक आइलैंड बना दिया गया है। ये सड़क भी लगभग सौ डेढ़ सौ मीटर लम्बी होगी। सड़क खत्म होते ही दायीं तरफ आपको एक ऊंची भव्य इमारत दिखायी देगी। ये बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर है। इसका नाम है स्टॉक एक्सचेंज जो हर दिन करोड़ों लोगों के दिल की धड़कन बढ़ाती है और उनका सुख चैन छीनती है। मुंबई के लाखों लोगों के दिल की धड़कन यही शेयर बाजार नापता है।

आपकी नाक के ठीक सामने है हार्निमन सर्किल। सैकड़ों की तादाद में पेड़ों से घिरा हरियाली का खूबसूरत टापू। कभी ये बगीचा भी उजाड़ हुआ करता था लेकिन टाटा कम्पनियों ने इसे गोद लिया और सजाया संवारा। अब तो यहां शाम के वक्त कई बार संगीत और नाटकों के आयोजन भी होते हैं। दिन में तो ये गोल बगीचा थके हारे और दूर दूर से काम धंधे से शहर में आये उन सैकड़ों लोगों की आरामगाह है ही जिनके पास एक आध घंटा इंतजार करने को होता है।

इस हार्निमन सर्किल की एक और विशेषता है। इस के एक फर्लांग के दायरे में अमूमन दुनिया के हर बैंक की एक न एक शाखा जरूर है। स्टेट बैंक और देना बैंक ने तो इसे दो तरफ से घेर ही रखा है। देशी विदेशी बैंकों की कम से कम 150 शाखाएं या दूसरे कार्यालय तो होंगे ही यहां। शायद दुनिया में कहीं और इतनी बैंक शाखाएं इतने कम इलाके में न हों।

हार्निमन सर्किल के चारों तरफ पे एंड पार्क वाली पार्किंग है लेकिन आप किस्मत के बहुत धनी होंगे अगर आपको सर्किल का एक ही चक्कर लगाने में पार्किंग मिल जाये। 

सर्किल के ठीक पीछे सफेद रंग की एक बहुत ही भव्य इमारत है जिसकी चौड़ी सीढ़ियां आपका मन मोह लेंगी। ये एशियाटिक लाइब्रेरी है। मुंबई का ज्ञान का अकूत और सबसे पुराना भंडार। ये पुस्तकालय मल्टी पर्पज है। किसी भी तरह के स्टाम्प यहीं मिलते हैं जिसकी वजह से हर समय यहां सैकड़ों की तादाद में लोग धूप, बरसात और खराब मौसम की परवाह न करते हुए अपनी बारी के इंतजार में खड़े रहते हैं। अब तो बैंक भी स्टाम्प पेपर बेचने लगे हैं वरना पहले तो और भी बुरी हालत थी।

इस विशालकाय पुस्‍तकालय की विशाल सीढ़ियां अक्सर आपने हिन्दी फिल्मों में देखी होंगी। आम तौर पर अदालत में जाने या वहां से बाहर आने के दृश्यों में। कुछ खून खराबे वाले दृश्य भी यहीं फिल्माये जाते हैं। इसी लाइब्रेरी के अहाते में एक ओर रेड क्रॉस का दफ्तर है और उसके पीछे भारतीय जल सेना के बहुत से दफ्तर। लाइब्रेरी के सामने वाली सड़क शहीद भगत सिंह मार्ग है जिसके एक सिरे पर बड़ा डाक घर और वीटी स्टेशन हैं और दूसरी तरफ रीगल और गेट वे ऑफ इंडिया। वीटी जाने वाली सड़क पर सिर्फ दस हाथ पर सड़क के दोनों तरफ है रिज़र्व बैंक। बायीं तरफ तीन मंजिला तिकोनी इमारत और दायीं तरफ 27 मंजिला भव्य इमारत। बैंक की ये इमारत 25 बरस पुरानी है और टकसाल के अहाते में बनी हुई है। टकसाल की दीवार के साथ साथ पचास गज आगे जाओ तो सड़क दायीं ओर बेलार्ड पीयर की तरफ मुड़ जाती है। ये इलाका मुंबई का होते ही भी यहां का नहीं लगता। पुरानी बड़े बड़े गलियारों वाली इमारतें जिनमें बड़ी कम्पनियों के बड़े बड़े कार्यालय हैं। दिन भर यहां चहल पहल रहती है। इस इलाके को भी आपने कई हिन्दी फिल्मों में देखा होगा।

तो भई, रिज़र्व बैंक की इन दोनों इमारतों में मैंने अपनी जिंदगी के बीसियों बेहद खूबसूरत बरस बिताये हैं और जवान से अधेड़ होने की रस्‍म पूरी की है। पुणे आने (अब पुणे से वापिस) से पहले मैं इस इमारत की 23वीं मं‍जिल पर बैठा करता था और दिन भर समंदर में आते जाते जहाजों को देखा करता था। मैं अमूमन रात आठ बजे के बाद ही वापिस लौटता था तो शहर को 23वीं मंजिल की खिड़की से रौशनी में नहाये देखने का सुख ही कुछ और था। रात के ये नजारे पांच बरस तक मेरे हिस्‍से में रहे। रात को देर से चर्चगेट लौटने का मतलब एक अलग ही तरह की दुनिया से साक्षात्‍कार होता था। फुटपाथ पर रहने वाले रात के खाने की तैयारियों में रहते। दूसरी गतिविधियों वाले/वालियां इमारतों के गलियारों में खड़े हो कर अपने अपने ग्राहकों को आवाज देते नज़र आते। कुछ सन्‍नारियां तो दिन में भी ओवरटाइम करती नज़र आ जाती हैं।

एक वक्‍त था कि इस इलाके के हर गलियारे में, दरवाजे के पास, सीढियों के नीचे दस बीस परिवार अपने पूर ताम झाम के साथ गुजर बसर करते नजर आ जाते। अब उतने परिवार यहां नहीं।

अगर मोटा सा हिसाब लगाया जाये तो इस फर्लांग भर के सफर में सीडी, किताबें, रुमाल, जूते, कपड़े, घर के सामान, केले, फल, बेल्‍ट, प्‍लास्टिक का सामान, वडा पाव, खिलौने, सींगदाना (भुनी मुंगफली) फुटपाथ पर बेचने वालों की संख्‍या तीन हजार के करीब तो होगी ही। वैसे अक्‍खी मुंबई में फुटपाथ पर सामान बेचने वालों की संख्‍या भारत के किसी भी मझौले शहर की जनसंख्‍या से तो ज्‍यादा ही होगी। हमारे शहर की वैध, अवैध, घोषित और अघोषित वेश्‍याओं की संख्‍या ही किसी कस्‍बे की पूरी जनसंख्‍या से ज्‍यादा ही निकलेगी।

तो ये था हमारा आज का एक फर्लांग का सफरनामा जो है बेशक एक ही फर्लांग का लेकिन जीवन के इतने विभिन्न रंग आप इस बारह मिनट की यात्रा में देख लेते हैं कि यकीन नहीं होता कि इस जरा से इलाके में इतनी विविधता है। एक दूसरे से बिलकुल अलग तरह का जीवन है। और लाखों लोगों की भीड़ है और हर वक्त भागम-भाग है। एक अनुमान के अनुसार चर्चगेट और वीटी स्टेशन एक ही दिन में साठ सत्तर लाख लोगों को इधर से इधर कर देते हैं। ये सत्तर लाख लोग रोजाना इसी एक फर्लांग के इलाके में दिन गुज़ार कर लौट जाते हैं। अगले दिन एक और संघर्ष करने के लिए तैयार होने के लिए। दिन में संघर्षरत लोगों से भरी सड़कें और रात के वक्‍त उन्‍हीं सड़कों पर गश्‍त लगाती रूप बालाएं और सोने का ठिकाना खोजते आवारा और बेघर बार लड़के। दिन में तेजी से भागती कारों की रेलम पेल और रात में महंगी कारों में आवारागर्दी करने निकले अमीरजादों के झुंड।

इस सड़क पर ये सफर मैंने 1981 में शुरू किया था और साल भर पहले पुणे स्‍थानांतरण तक लगातार जारी रहा। बीच में कुछ बरस अहमदाबाद में भी रहा लेकिन इस सड़क पर आना जाना रहा ही। गिनती करूं तो दस हजार बार तो गुज़रा ही यहां से। कभी दफ्तर में काम रहा तो आधी रात को भी। और छुट्टियों के दिनों में भी। हर बार अलग अनुभव। अलग लोग, लेकिन भाग दौड़ वही। सपने अलग मंजिल अलग लेकिन कोशिश वही। वहां तक पहुंचने की दौड़ वही।

तो इस बारह तेरह मिनट के सफरनामे की रनिंग कमेंटरी के जरिये आपने मुंबई की भाग दौड़ का कुछ तो अंदाजा लगा ही लिया होगा। असली मैच देखने के लिए आपको खुद यहां आना होगा। बिन आये मुंबई को कैसे पहचानेंगे मेरे भाई . . .

अगली बार किसी और इलाके के सफरनामे पर चलेंगे।

तब तक . .

चलो, मिलते हैं  . .

 2007 जून

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