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आधुनिक बोध - भाग 1
Memoirs

आधुनिक बोध – भाग 1

1. बर्तनों के बच्चे

एक गांव में रहने के लिए एक नया शहरी आया। चाय पानी के बहाने सबसे मेल जोल बढ़ाया।
एक दिन वह गांव के सबसे धनी आदमी के घर पहुंचा और बोला – शहर से कुछ मेहमान आने वाले हैं। खाना बनाने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं। थोड़े से बर्तन उधार दे दीजिये, शाम को लौटा दूंगा।
अब भला बर्तनों के लिए कौन मना करता है। उन्होंने गिन कर ढेर सारे बर्तन दे दिए।
शाम को जब बर्तन वापिस आए तो धनी आदमी ने देखा कि दो-एक कटोरी और कुछ चम्मच ज्यादा हैं। पूछने पर शहरी ने लापरवाही से बताया कि बर्तनों ने बच्चे दे दिए होंगे।
धनी आदमी हैरान – ये तो अनहोनी बात है कि बर्तन भी बच्चे देते हैं। अब वह भला घर आए अतिरिक्त बर्तनों को कैसे ठुकराता।

अब तो ये अक्सर होने लगा। बर्तन मांगे जाते और शाम को कुछ अतिरिक्त बर्तन भी मिल जाते। धनी व्यक्ति खुश।
अब होने ये लगा कि बहुत ज्यादा बर्तन मांगे जाने लगे और बच्चों के रूप में बर्तन भी बड़े और ज्यादा आने लगे।
एक दिन हुआ ये कि शहरी आदमी ढेर सारे बर्तन ले गया और कई दिन तक वापिस ही नहीं किए। सेठ घबराया और खुद चल कर शहरी के घर पहुंचा और बर्तनों के बारे में पूछा।
शहरी आदमी लापरवाही से बोला – वो ऐसा हुआ कि बीती रात सारे बर्तन मर गए।
सेठ हैरान – भला बर्तन कैसे मर सकते हैं।
शहरी बोला – ठीक उसी तरह से जिस तरह से बर्तनों के बच्चे हो रहे थे।

डिस्क्लेमर – इस बोध कथा का उस देश से कुछ लेना देना नहीं है, जहां पहले कुछ चतुर लोग बैंकों से पैसा उठा कर वक्त पर लौटाते भी रहते हैं और बैंक कर्मियों को कीमती उपहार दे कर खुश रखते हैं।
फिर एक दिन आता है कि बैंकों से चतुर लोगों के पास गया सारा धन खुदकुशी कर लेता है। सुसाइड नोट भी नहीं मिलता। कर लो जो करना है।

2. चोर चोर चोर …

बहुत पहले की बात है। नयी नयी नौकरी थी। वेतन मिला था। खुश होना लाजमी था। सब दोस्त फिल्म देखने निकले।
रास्ते में भीड़ में कोई जेबकतरा मेहरबान हुआ और जेब साफ। जब तक पता चलता, मेरा पर्स निकाला जा चुका था। हम सब ने शोर मचाया। तय था कि जेबकतरा अभी आसपास ही था लेकिन वहां आसपास जितने भी लोग थे, निर्विकार लग रहे थे। किसी पर भी शक करने की गुंजाइश नहीं लग रही थी। अलबत्ता, जब हमने बहुत शोर मचाया तो बीसियों सुझाव आने लगे कि पुलिस में जाओ या सब की तलाशी लो, ये करो और वो करो लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सका। चिंताएं कई थीं। कमरे का किराया, पूरे महीने का खर्च और घर भेजे जाने वाले पैसे।
भीड़ कुछ कम हुई तो मलंग जैसा दिखता एक आदमी हमारे पास आया और बहुत ही गोपनीय तरीके से बताने लगा कि वह काला जादू जानता है और चौबीस घंटे के भीतर जेबकतरे को हमारे सामने पेश कर सकता है। वह दावा करने लगा कि उसके काले जादू से कोई नहीं बच सकता। आओ मेरे साथ। तय था कि पुलिस से मदद मिलने वाली नहीं। हम उसके पीछे चल पड़े।

वह पास ही एक कोठरी में हमें ले गया। दस बीस सवाल पूछे उसने और अपनी फीस की पहली किस्त मांगी – इक्यावन रुपये और ग्यारह अंडों की कीमत। बाकी भुगतान पर्स वापिस मिल जाने पर। हमने सोचा यह करके भी देख लिया जाये। पूरे महीने के वेतन की तुलना में सौदा महंगा नहीं लगा और दोस्तों ने उसकी सेवा की पहली किस्त चुकायी। उसने दिलासा दी कि चौबीस घंटे के भीतर जेबकतरा रोता गिड़गिड़ाता हमारे सामने होगा। हमारा पता उसने नोट कर लिया।

अगले दिन वह हमारे कमरे पर हाजिर था। बताने लगा कि बस चोर का पता लगा लिया है और वह उसकी पॉवर के रेडियस में आ चुका है। बस अगले कुछ घंटे में वह गिड़गिड़ाते हुए खुद आयेगा। इस बार इक्यावन रुपये और इक्कीस अंडों की कीमत ले गया।

किस्सा कोताह कि वह हर तीसरे चौथे दिन आता और कुछ न कुछ वसूल कर ले जाता। कभी कहता कि चोर आपके घर का पता तलाश कर रहा है और कभी कि बस चल चुका है। जब हमने देखा कि उसकी फीस हमारे खोये पर्स से भी आगे बढ़ने वाली है तो हमने हाथ खड़े कर दिये। ये सब भी तो चंदा करके दिया जा रहा था उसे।
उसने एक दिन की मोहलत और मांगी और इस बार मुर्गे की कीमत ले गया।
अगले दिन वह हड़बड़ाता हुआ आया। हमारे कमरे में ही धुनी रमायी और आंखें मूंदे कुछ मंत्र उछाले, कुछ चेतावनियां बरसायीं और कुछ धमकियों का धुंआ किया।

अचानक उसने चिल्लाना शुरू कर दिया – चोर मेरे सामने है। वह आपका पर्स मार कर बहुत शर्मिंदा है। वह खुदकुशी करने जा रहा है। वह बस नदी तक पहुंचने वाला है। जल्दी बताइये क्या करूं। एक मामूली पर्स के चक्कर में उसके बच्चे अनाथ हो जायेंगे। जल्दी बतायें, वह बस छलांग मारने वाला है। कहिये तो उसे रोकूं। मुझ पर हत्या का दोष लगेगा।

पाठक गण समझ सकते हैं कि हमने तरस खा कर जेबकतरे को खुदकुशी करने से रोका ही होगा और रहीम खां बंगाली को भी कुछ दे दिला कर ही विदा किया होगा।

डिस्क्लेमर : यह एक सच्ची घटना है और इसकी तुलना उस देश से न की जाये जहां आम आदमी, बैंक, जेबकतरे और बिचौलियों के बीच ये खेल अरसे से खेला जा रहा है। बेशक वहां जेबकतरा खुदकुशी करने के बजाये शर्म के मारे देश छोड़ कर चला ही जाता है।

3. राजनीति के फ्यूचर्स

वित्तीय बाजार में फ्यूचर्स वे अदृश्य उत्पाद होते हैं जो भविष्य की किसी तय तारीख को पहले से तय दाम और शर्तों पर खरीदे और बेचे जाते हैं। इनमें शेयर भी हो सकते हैं और कोई और उत्पाद भी। आम आदमी की भाषा में कहें तो इसमें किसी खेत में कपास की भविष्य में होने वाली फसल भी शामिल हो सकती है और भविष्य में किसी खदान से निकलने वाला लोहा या सोना भी हो सकता है। जब फ्यूचर्स का सौदा हो रहा होता है तब वे दरअसल होते नहीं हैं। कब होंगे और कितने होंगे और होंगे भी या नहीं, इसके अंदाज से ही फ्यूचर्स के सौदे किये और निपटाये जाते हैं। इन्हें आप ब्लाइंड सट्टा भी कह सकते हैं।

भारतीय राजनीति में इन्हें कई नामों से जाना जाता है। सरकारों के बदलने के साथ इनके नाम बदलते रहे हैं। आजकल इनका सबसे प्रचलित नाम अच्छे दिन है। इन्हें विकास के नाम से भी जाना जाता है तो कुछ लोग इन्हें गंगा की सफाई के नाम से या स्वच्छ भारत के नाम से भी जानते हैं। इन्हें आप सुविधानुसार शानदार रोज़गार, भ्रष्टाचार और काला धन के खिलाफ मुहिम जैसे नाम से भी पुकार सकते हैं। बस ये फ्यूचर्स की तरह दिखाई नहीं देते। होते भी नहीं हैं या नहीं, और कभी होंगे भी, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती।

बस, ये फ्यूचर्स आज़ादी के बाद से हर सरकार बेचती आयी है और इन्हीं के बल पर बहुमत सेजीतती भी आयी है। पिछली सरकार के समय पर इन्हें गरीबी हटाओ देश बचाओ के नाम से जाना जाता था। उस सरकार ने लंबे समय तक इन फ्यूचर्स का सौदा कििसा और अथाह धन कमाया। कुछ काला, कुछ सफेद।

4. चट्टे बट्टे

एक देहात के बाज़ार में चार सब्जी वाले बैठते थे। दो महिलाएं और दो पुरुष। बाजार की सड़क उत्तर से दक्षिण की तरफ जाती थी। अब होता यह था कि उत्तर से आने वाले ग्राहक को सबसे पहले महिला का ठेला मिलता। मान लिया वह आलू 20 रुपये किलो दे रही है तो उसके बाद वाला पुरुष वही आलू 21 रुपये किलो बताता और अगली महिला के ठेले पर आलू 22 रुपये किलो बिक रहे होते। और एकदम दक्षिणी सिरे पर बैठा ठेले वाला वही आलू 23 रुपये किलो बताता।

अब कोई व्यक्ति दक्षिण की तरफ से आ रहा होता तो उसके सामने पड़ने वाला वही सब्जी वाला आलू 20 रुपये किलो बताता और इस तरह उल्टी दिशा में दाम बढ़ते जाते।

दोनों तरफ से आने वाले ग्राहक हमेशा परेशान रहते कि वापिस जाकर 20 रुपये किलो खरीदें या यहीं पर 21 या 22 या 23 रुपये किलो खरीदें। मज़े की बात, चारों में से कोई भी एक पैसा कम न करता। ग्राहक को किसी न किसी से तो सौदा करना ही पड़ता। कभी सही दाम पर और कहीं ज्यादा दाम पर।
एक बार एक भले आदमी ने बुजुर्ग से दिखने वाले सब्जी वाले से फुर्सत के समय में पूछ ही लिया- क्या चक्कर है। उत्तर से दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए दाम बढ़ते हैं और दक्षिण की तरफ से आने वाले ग्राहक को उत्तर की ओर आते हुए ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं।

दुकानदार ने समझाया – बाबूजी, यह बाज़ार है और बाज़ार में हमेशा कंपीटीशन होता है। सच तो यह है कि हम सब एक ही परिवार के सदस्य हैं। मियां, बीवी, बेटा और बहू। आप किसी से भी खरीदें, पैसे हमारे ही घर में आने हैं।
मामला ये है कि अगर हम चारों आपको आलू 20 रुपये किलो बतायें तो आप उसके लिए 18 या 19 रुपये देने को तैयार होंगे लेकिन जब हम 20 से 23 के बीच में आलू बेच रहे हैं तो आपको लगता है कि जहां सस्ते मिल रहे हैं, वहीं से ले लो।

डिस्क्लेमर : यही हमारी राजनीति में हो रहा है। सामान वही है। लूटने के तरीके भी वही हैं और लूटने वाले भी वही हैं। सब एक ही कुनबे के।

हमें ही पता नहीं चलता कि हम किस से नाता जोड़ कर कम लुट रहे हैं और किससे नाता बनाकर ज्यादा लुट रहे हैं। यही राजनीति का बाज़ार है।

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