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Poem

इस महादेश के अनिवासी का एक बयान

हम एक घर चाहते थे सुरक्षित
हम से कहा गया राजगृह में एक आदमी तुम्हारा भी है
तुम्हारी कमज़ोर भुजाओं में जो मछलियाँ हैं मरी हुईं
उस आदमी की आँखों में तैर रही हैं देखो
वह तुम्हारा आदमी है, उसका रंग तुम्हारे जैसा
इत्र न लगाए तो उसकी गंध तुम्हारे जैसी
तुम्हारे जैसा नाम तुम्हारे घर का ही पता उसका पुश्तैनी
वह सुरक्षित तो तुम सुरक्षित
वह अरक्षित तो तुम अरक्षित

इस विशाल महादेश में हम एक कोना चाहते थे अपने सपनों के लिए
हमसे कहा गया कि अयोध्या के राजकुमार की कथा में ही शामिल है सबकी कथा
वहीं सुरक्षित है इतिहास का एक अध्याय तुम्हारे लिए भी
और वहीं किसी कोने में संरक्षित तुम्हारे स्वप्न
क्या हुआ जो बचपन में नहीं सुनीं तुमने चौपाइयाँ
क्या हुआ कि राजा बलि के प्रतीक-चिह्न बनाते रहे तुम अपनी दीवारों पर
क्या हुआ कि तुम्हारे गाँव के डीह बाबा का चौरा ही रहा तुम्हारा काशी-मथुरा
हृदय है यह इस महादेश का
इसमें ही शामिल सारे देव-देवता
इसी कथा से निसृत सारी उपकथाएँ
यही तुम्हारी भाषा-बानी

जब कि हम जो बोलते थे वह राजभाषा से कोसों दूर थी

हम जो गाते थे वह नहीं था राष्ट्रगीत
हम जिन्हें पूजते थे नहीं चाहिए था उन्हें कोई मंदिर भव्य
दो मुट्ठी धान और कच्ची दारू से संतुष्ट हमारे देव
महज़ एक नौकरी के लिए चले आए थे हम छोड़कर अपना देस इस महादेश में
हमारा देस था जो उसकी कोई राजधानी नहीं थी
हमें दो जून की रोटी चाहिए थी,
सिर पर एक छत और थोड़े-से सपने
जिसके लिए मान लिया हमने वह सब कुछ जो सिखाया गया स्कूलों में
और बिना सवाल किए उगलते रहे उसे जहाँ-तहाँ
अजीब से हमारे नाम दर्ज़ हुए किन-किन सूचियों में
हमसे जब पूछी गई हमारी भाषा हमने हिंदी कहा और माँ की ओर देख नहीं पाए कितने दिन
हमसे जब पूछा गया हमारे देश का नाम हिंदुस्तान कहा और पुरखों की याद कर आँसू भर आए
हमने समझाया ख़ुद को समंदर होने के लिए भूलना पड़ता है नदी होना
हमारे भीतर की किसी धार ने कहा
वह कौन-सा समंदर जिसके आगोश में बाँझ हो जाती हैं नदियाँ?

तुलसी की चौपाइयाँ रटते अपने बच्चों को हम सुनाना चाहते थे जंगलों की कहानियाँ कुछ
उनकी पैदाइश पर चुपके से गुड़-रोट का प्रसाद चढ़ा आना चाहते थे चौरे पर
कंधे पर ले उन्हें सुनाना चाहते थे किसी गड़रिए का रचा कोई गीत
धान की दुधही बालियाँ निचोड़ देना चाहते थे उनके अंखुआते होंठों पर
भोर की मारी सिधरी भूज कर रख देना चाहते थे कलेऊ में

किसी रात ताड़ की उतारी शराब में मदहोश होना चना चाहते थे अपनी प्रेमिकाओं के साथ
सात समंदर पार से आई किसी चिड़िया के उतारे पर खोंस देना चाहते थे उनकी लटों में
जंगलों की किसी ख़ामोश तन्हाई में चूम लेना चाहते थे उनके ललछौहे होंठ
और अपनी मरी हुई मछलियों वाली उदास बाँहों में गोद लेना चाहते थे उनके नाम

कोई देश नहीं था जिसे चाहते थे हम अपनी जेबों में
किसी गड़े हुए ख़ज़ाने की रक्षा करते बूढ़े सर्प की तरह नहीं जीना चाहते थे हम
इस हज़ार रंगों वाली दुनिया में सिर्फ़ एक रंग बचाना चाहते थे
जो पुरखों ने कर दिया था हमारे हवाले
पर कहा गया हमसे कि बसंती रंग हैं इस देश के झंडे में

अपनी लाल-पीली-हरी-नीली-बदरंग कतरनें सजाए इसी भाषा में लिखी हमने कविताएँ
पर कहा गया यह नहीं है हमारी परंपरा के अनुरूप
इसमें जो ज़िक्र है महुए और ताड़ी और मछलियों और जंगलों और पहाड़ों और कमज़र्फ़ देवता ओंका
वह सब नहीं हैं कविता की दुनिया के वासी उन्हें विस्थापित करो

लाल को लाल लिखो वैसे जैसे लिखते हैं हम आसमान को नीला कहो तो बस नीला कहो बादल हों तो भी धूप हो तो भी कुछ न हो तब भी कुछ इस तरह कहो नीला कि आसमान न लिखा हो तो भी समझा जाए आसमान समंदर-सा गहरा तो भी उसे हिमालय से ऊँचा कहा जाए अगर नीला कह दिया गया हो उसे जो नीला हो उसे कुछ और कहने की आज़ादी कुफ़्र है जो आसमान हो उसे कुछ और न कहो नीले के सिवा…

हमने देखे थे काले पक्षियों और सफ़ेद बादलों से भरे आसमान
हमने लिखा और पक्षियों की तरह विस्थापित हुए
हमने देखे थे महुए-से टपकते रंग
हमने दर्ज किया और इस तरह तर्क हुई हमारी नागरिकता
हमारी स्मृतियाँ हमारे निर्वासन का सबब थीं और हमारे सपने हमारी मजबूरियों के
हमारी कविता राजपथ पर हथियार ढोते रथों के पहियों का शिकार हुई
जिनके ठीक पीछे चली आ रही थी हमारी स्मृतियों की कुछ क्रूर अनुकृतियाँ

हम क्या कहते
उन रथों पर हमारा ही एक आदमी था सैल्यूट मारता इस महादेश को…

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