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Poem

मैं हर जगह था वैसा ही

मैं बंबई में था
तलवारों और लाठियों से बचता-बचाता भागता-चीख़ता
जानवरों की तरह पिटा और उन्हीं की तरह ट्रेन के डिब्बों में लदा-फँदा
सन् साठ में मद्रासी था, नब्बे में मुसलमान
और उसके बाद से बिहारी हुआ

मैं कश्मीर में था
कोड़ों के निशान लिए अपनी पीठ पर
बेघर, बेआसरा, मजबूर, मज़लूम
सन् तीस में मुसलमान था
नब्बे में हिंदू हुआ

मैं दिल्ली में था
भालों से बिंधा, आग में भुना, अपने ही लहू से धोता हुआ अपना चेहरा
सैंतालीस में मुसलमान था
चौरासी में सिख हुआ

मैं भागलपुर में था
मैं बड़ौदा में था
मैं नरोदा-पाटिया में था
मैं फलस्तीन में था अब तक हूँ वहीं अपनी क़ब्र में साँसें गिनता
मैं ग्वाटेमाला में हूँ
मैं इराक में हूँ
पाकिस्तान पहुँचा तो हिंदू हुआ

जगहें बदलती हैं
वजूहात बदल जाते हैं
और मज़हब भी, मैं वही का वही!

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