महात्मा गांधी जीवित होते तो इस 2 अक्टूबर को पूरे 150 बरस के हो जाते। स्वाभाविक मृत्यु को वे सवा सौ साल तो क्या सवा दो सौ वर्ष तक टाल सकने का जिगर रखते थे। हाँ, इस बीच में वे थोड़ा और बुढ़ा जाते। दाँत तो उनके पहले ही गिर चुके थे। बाल भी गिनती के ही बचे थे। इस बीच उनके चश्मे का नम्बर भी बदल चुका होता। पहनावा उनका सही, इकलौती धोती ही रहता।
लेकिन होनी को कौन टाल सकता है ! सिर्फ इसी फ्रंट पर ही नहीं, कई-कई ऐसे फ्रंट रहे, बापू के जीवन में, जहाँ उनकी दाल कच्ची रह गई। वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पाए। न सार्वजनिक जीवन में, न व्यक्तिगत जीवन में।
वे सौ साल से अधिक जीना चाहते थे। अगर गोली न लगती तो जी भी लेते। बेशक बाद में पछताते। वे देश का बँटवारा नहीं चाहते थे। हुआ। वे असली समाजवाद चाहते थे। नहीं मिला। वे शांति चाहते थे, अहिंसा चाहते थे और बीसियों चीजें चाहते थे, लेकिन चाहते ही रह गए। हुआ वही जो उन्होंने नहीं चाहा।
वे अपने बड़े बेटे हरिलाल को अपने रास्ते चलाना चाहते थे। वह कुछ दूर तक उनके पीछे चला भी। अफ्रीका में जेल भी गया। पतली दाल, फीका खाना और बकरी का दूध इन चीजों से उसे तसल्ली न हुई। वह असली बनिया था, खाना-कमाना चाहता था। वकालत करके वकील ही बनना चाहता था। उसने रास्ता बदल लिया।
यह अपने आप में रोचक विषय हो सकता है कि आज बापू होते तो क्या होता। वे खुद क्या कर रहे होते और उनकी मौजूदगी में हम क्या करते। जब वे थे तो पूरे देश में किसी भी मुख्य सड़क का नाम एम. जी. रोड नहीं हुआ करता था। न चौराहों के प्रदूषण में उनकी कोई आदमकद मूर्तियाँ ही थीं। न उनके नाम पर वाचनालय-पुस्तकालय थे। वे होते तो पता नहीं, इन सबके नाम किस पर रखे जाते। (शायद यह भी नेहरू खानदान के हिस्से में जाती।) उनके होने पर राजघाट, राजघाट न होकर यमुना पार की तर्ज पर यमुना पार का पिछड़ा इलाका होता। तब हमारे नेताओं और सरकारी मेहमानों को 2 अक्टूबर को वहाँ पर जाकर तस्वीरें खिंचवाने की जरूरत न पड़ती। हाँ, कभी-कभार उनका आशीर्वाद लेने पहुंच जाते वे।
बापू के होने पर 2 अक्टूबर को सार्वजनिक अवकाश न रहता। तब एटनबरो गांधी फिल्म बनाकर गांधी से ज्यादा नाम और पैसा न कमा सकते थे।
पता नहीं, तब भाजपा वाले उन्हें राष्ट्रपिता मानते या नहीं और मायावती उन्हें गाली देती या नहीं, लेकिन कांग्रेसी भी उनके होने से संकट में रहते कि उन्हें किस कांग्रेस में मानें । यहाँ तो हर नेता की अपनी खुद की कांग्रेस है, जिसे वह दूसरों की कांग्रेस से उजला दिखाने में दुबला हुआ जा रहा है। हो सकता है तब बापू की खुद की भी कांग्रेस होती, जिसका नाम होता कांग्रेस (मो.)।
चुनाव तो कतई न लड़ते। पता नहीं, अस्थायी पते के अभाव में उनका पहचान पत्र या राशन कार्ड या आधार कार्ड भी होता या नहीं। वोट देने तो वे क्या ही जाते।
उन्हें शायद राज्यसभा की सदस्यता आफर की जा चुकी होती, या फिर उन्हें स्वतंत्रता सेनानियों वाली पेंशन मिल रही होती। बापू के होने से रेल का तीसरा दर्जा बना रहता, जिसमें वे सीनियर सिटिज़न के रूप में 25 प्रतिशत रियायत के साथ यात्रा कर रहे होते। खाली वक्त में वे पत्र लिखते, पत्रकारिता करते, और घर पर बिजली का करघा लगवा कर सूत कातते। अलबत्ता, उनका हरिजन अखबार विज्ञापन और सरकारी कागज़ के कोटे के अभाव में कब का बंद हो चुका होता।
जब बापू थे तो लियो टालस्टाय से पत्राचार किया करते थे। आजकल वे ओबामा या पुतिन से खतो किताबत करते। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भारत रत्न के लिए बेशक न चुना जाता, लेकिन वे शांति के लिए नोबल पुरस्कार ज़रूर ठुकरा चुके होते। बापू के होने से (उनकी वजह से नहीं) बोफोर्स कांड या तंदूर कांड वगैरह या हर तरह के दूसरे कांड होते या नहीं, कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना तय है कि इन सारे वर्षों में बापू किसी-न-किसी कांड के कारण पाँच सौ बार तो अनशन पर बैठ ही चुके होते। तब तो अंग्रेज़ उन्हें डर के मारे छोड़ देते थे या रिहा भी कर देते थे, अब उन्हें कोई एक गिलास नींबू पानी भी पिलाने जाता, इसमें शक है।
तब बापू ने माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ लिखी थी। अब तक उनकी नई किताब बाज़ार में आ चुकी होती, जिसका शीर्षक होता—माई एक्सपीरियेंस विद अनटुथ अनट्रुथ एंड अनट्रुथ।
वैसे इतना तो तय है कि बापू होते अगर जीवित, तो भी, अब तक कई बार आत्महत्या कर चुके होते, या बार-बार आत्महत्या के प्रयास में किसी आश्रम में नजरबन्द अपने मुकदमों की तारीखें भुगत रहे होते।
ईश्वर उनकी आत्मा को असीम शांति दे।
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