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बात जूतों की
Opinion

बात जूतों की

जूतों के दिन फिरे हैं। पहले जूतमपैजार थी। अब जूता बाजार है। जूता संस्कृति हो गया है। यह अब स्टेटस सिम्बल, वैल्यू, जीवनशैली है। जूता जब पोशाक है। इसे पहनकर अब कपड़े पहनने की भी जरूरत नहीं रहती। कई बार औकात भी नहीं रहती। उस बेचारी अभिनेत्री की बात जाने दें, जिसने कुछ अरसा पहले एक रंगीन पत्रिका के मुखपृष्ठ पर हाथों से सीना ढके एक अर्धनग्न तस्वीर खिचवाई थी कि देखो-मुझे फिल्मों में काम नहीं मिल रहा, मेरे पास भीतरी-बाहरी कपड़े खरीदने लायक पैसा भी नहीं हैं।

अब उसी अभिनेत्री को एक और तस्वीर छपी है। उसने थोड़े बहुत कपड़े पहने हुए हैं, लेकिन जूते घुटनों तक ऊँचे हैं। अंग्रेजी में कहावत भी है-बेटर बीयर यूअर शूज दैन (टीएचएएन) यूअर बेड क्लोद्स । लगता है अंग्रेजी में अभिनेत्री का हाथ तंग है। उसने टीएचएएन को टीएचईएन पढ़ लिया होगा। इसलिए काम मिलने पर उसने पहले जूते खरीदे हैं। फिर धीरे-धीरे बाकी कपड़े खरीदेगी। जूते पहनते ही उसका दिमाग सातवें आसमान पर जा पहुँचा। उसने एक पैर (जूते समेत)

तानपूरे पर टिका रखा है। गोया तानपूरा न होकर मारा हुआ शिकार हो।

जूता बाजार का यही रिवाज है। जूते पहनने/बेचने वालों की नजर में संस्कृति, पूजा, कला, मूल्य ये सब मायने नहीं रखते। जिसे जूते बेचने/बिकवाने हैं, वह तानपूरा तो क्या किसी दिन आरती की थाली में सजाकर भी जूते पेश कर देगा।

एक और जोड़ी है। उन्हें तो जूते पहनने के बाद कपड़े पहनने की जरूरत ही नहीं हुई। जो थोड़ी-बहुत शर्म-हया थी, उसे उन्होंने सीने पर अजगर लपेट कर व्यक्त कर दिया। अब इसमें वे बेचारे क्या करें। अजगर लपेटा उन्होंने अपने तन पर, लेकिन असली सौप लोट गया बाकी लोगों के सोने पर। भावी पति-पत्नी को मजबूरन पूरे कपड़े पहनकर अदालत में हाजिर होना पड़ा।

एक और जनाब हैं मियाँ अजहर। क्रिकेट खेलते हैं। उन्होंने अजगर से तो छेड़छाड़ नहीं की थी, अलबत्ता जूते पर आटोग्राफ जरूर कर दिए। मियाँ की जूती मियाँ के सिर पर आ पड़ी। लेने के देने पड़ गए। ठीक वैसे ही आटोग्राफ माफीनामे

पर किए, तभी छूट पाए।

जूते के साथ यही दिक्कत है। जब से अंग्रेज इसे हिन्दुस्तान (पाकिस्तान समेत) छोड़कर गए हैं, यह पैरों में कम और चर्चा में ज्यादा रहता है। कई बार खुद चल जाता है तो कभी इसकी कीलें दिलो-दिमाग पर गड़ने लगती हैं। दरअसल हम आज तक जूते के मनोविज्ञान को समझ नहीं पाए हैं। यही वजह है कि जिस जूते को अंग्रेज इतने सहेजकर, चमकाकर, टाई से पोंछकर पहनते थे, उसी को हम अपने अज्ञान के चलते इतने नीचे ले आए कि उसमें दाल बाँटने लगे। जूतमपैज़ार करने लगे। बेशक हमने अपना उल्लू सीधा करने के लिए अक्सर लोगों को चाँदी के जूते भी मारे, लेकिन हमेशा यही हुआ कि हम या तो जूतियाँ चटखाते फिरे या अकड़ के मारे हमने किसी को भी जूते की नोक पर न रखा और पैर तले के जूते के बराबर न समझा। हाँ, जहाँ मुसीबत देखी, जूते (अपने भी, पराए भी) बगल में दबाकर पतली गली में सरक लिए। अंग्रेज़ लोग जूते की कद्र करना जानते थे। वे जूते को जूता ही मानते थे और बाकी पूरी दुनिया वालों को जूतों के ही लायक समझते थे।

तभी तो नेहरू तक को अपने हास्टल के दिनों में सबके जूतों पर पालिश करनी पड़ी थी। पनिशमेंट भी हो गया और मुफ्त में सबके जूते भी दमक गए। आप अंग्रेजी शब्दकोश या मुहावराकोश देखें तो आपको जूतों के कई शानदार मुहावरे मिलेंगे। अपन लोग इस मामले में बहुत पीछे हैं। जब किसी अंग्रेज़ ने कहा कि जिसको जूता काटता है, वही उसका दर्द समझता है, तो अपने किसी फटीचर हिन्दुस्तानी ने इसके जवाब में अपने बिवाइयों-भरे गंदे पैर आगे बढ़ाकर कहा-

जिसके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। अब आप जब नंगे पैर घूमेंगे तो बिवाइयाँ तो पड़ेंगी ही। साथ में मुहावरे भी उसी स्तर के बनेंगे।

अब इन जनाब को देखिए। घर पर मेहमान आया है। पूछ रहा है-जूते उतार दूं क्या, तो जनाव फरमा रहे हैं-उतारेंगे नहीं तो खाएँगे क्या? अंग्रेज़ की एक और खासियत है। वह न नंगे पैर चलता है, न यह बर्दाश्त कर सकता है कि किसी और के जूते उसके जूतों से बढ़िया हों, वह नंगा-भूखा रह लेगा, लेकिन बढ़िया जूते ज़रूर पहनेगा। अब अगर इन्हीं अंग्रेजों के हमारे ये देसी संस्करण जूते, जूते और सिर्फ जूते पहनकर तस्वीरें खिचवा रहे हैं तो औरों को मिर्ची क्यों लग रही है।

वे गले में जूतों की माला डाले घूमें, हमारी बला से।

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