अनुराधा बेनीवाल राहुल सांकृत्यायन के घुमक्कड़ी शास्त्र को जीती हैं। और जब आप ये किताब पढ़ते हैं तो लगता हैं वे नहीं आप घूम रहे हैं। दृश्य आपके सामने घूमते नहीं आप उनमें होते हैं।
किताब- आज़ादी मेरा ब्रांड लेखिका - अनुराधा बेनीवाल प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन समूह मूल्य - पेपरबैक ₹199/-, हार्डबैक ₹450/-
अनुराधा बेनीवाल राहुल सांकृत्यायन के घुमक्कड़ी शास्त्र को जीती हैं। और जब आप ये किताब पढ़ते हैं तो लगता हैं वे नहीं आप घूम रहे हैं। दृश्य आपके सामने घूमते नहीं आप उनमें होते हैं। अपने निष्कर्षों, चिन्ताओं, उमँगों से गुजरते हैं। आपके सामने जिन्दगी उन कई कोणों से सामने आती है जिनके बारे में आपने कभी सोचा भी न था। साथ ही वे इस मिथ को भी तोड़ती है कि घूमना चाहे दुनिया भर में ही क्यूँ न हो इसमें पैसा बाधा नहीं बनता। और कोई देखने लायक चीज हैं तो वे हैं भाँति-भाँति के इन्सान। पेश हैं आजादी मेरा ब्रान्ड का अन्तिम पृष्ठ जो आपको अहसास करा देगा कि ये यात्रा-वृतान्त भर नहीं है।
“……………. दो जवान अनजान लड़कों के घर में मैं ऐसा महसूस कर रही थी, जैसा मैंने कभी अपने रिश्तेदारों के बीच भी नहीं किया था! वे मेरे दोस्त, भाई, गाइड, होस्ट सब बन गए थे। यह जिसे दुनिया संस्कृति या कि कल्चर कहती है, अगर ऐसी हो तो मैं उसको सर पर रखकर नाचूँ! अगर कोई धर्म इंसान को ऐसा बनाता हो तो मैं उसको पलकों पर बिठाऊँ, सबको कन्वर्ट करने वाली मिशनरी बन जाऊँ!
मैं शहर की ओर नाचते हुए बढ़ रही थी। जैसे इस शहर में मुझे वह “चीज़” जरूर मिल जाएगी जिसकी मुझे तलाश है। वह एक चीज़ जो मुझे एकदम अनजान शहर में आज़ादी का ऐसा अहसास दिला रही है। मैं एकदम नए शहर में एकदम अनजान लोगों के साथ रुक कर, अनजान सड़कों पर देर-सवेर, रास्ते-बेरास्ते चलते-भटकते, नाचते-गाते, सोते-जागते, एकदम सुरक्षित और निश्चिंत महसूस कर रही हूँ! वह चीज़ मुझे यहाँ जरूर मिलेगी जिसे मैं दिल्ली और रोहतक की गलियों में छोड़ देना चाहती हूँ। जहाँ मैं पैदा हुई, पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी, जहाँ मैं तमाम लोगों को जानती हूँ, जहाँ के क़ायदे-क़ानून, भाषा-ढंग पहचानती हूँ; लेकिन इस उम्र तक जहाँ इस तरह निश्चिंत, बेफ़िक्र, बेपरवाह नहीं चल-घूम पाई।
मैं उस चीज़ के बिना वापस नहीं जाऊँगी! मुझे इस आज़ादी को अपने खेतों, अपने गाँवों, अपने शहरों में महसूस करना है। मुझे यूँ ही निश्चिंत बेफ़िक्र घूमना है, रोहतक की गलियों में। मुझे वह चीज़ ‘विकास नगर’ की उस गली में छोड़ देनी है, जहाँ वह लड़का मेरी छाती पर हाथ मारकर भाग गया था। सोनीपत बस स्टैंड के उस मोड़ पर छोड़ देनी है, जहाँ से गुजरते वक़्त मुझे गंदे इशारों, टिप्पणियों से नवाज़ा जाता था। दिल्ली की उन बसों में छोड़ देनी है, जहाँ वह आदमी जिप खोलकर मेरे पीछे रगड़ने की कोशिश कर रहा था। उस घर में छोड़ देनी हैं, जहाँ मेरी दोस्त के पिता ने मेरा क़द और वजन नापने के बहाने मेरे पूरे शरीर पर अपना लिजलिजा हाथ फिराया था। उस ट्रेन के स्लीपर कोच में छोड़ देनी है, जहाँ वह आदमी रात को मेरी चादर के नीचे कुछ ढूँढ़ने आ गया था।
क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे? क्यों रह-रहकर नज़रों से नंगा करते हो? क्यों तुम्हें मैं अकेली चलते नहीं सुहाती? मेरे महान देश के महान नारी-पूजको, जवाब दो। मेरी महान संस्कृति के रखवालो, जवाब दो! मैं चलते-चलते जैसे चीख़ने लगती हूँ। मुझे बताओ मेरी कल्चर के ठेकेदारों, क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकलकर चल पाना? जो समाज एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है। वह कल्चर जो एक अकेली लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकती, वह गोबर कल्चर है। उस पर तुम कितने ही सोने-चाँदी के वर्क चढ़ाओ, उसकी बास नहीं रोक पाओगे, बल्कि और धँसोगे। मेरी बात सुनो, इस गोबर को जला दो। मैं चीख रही हूँ ज़ोर-ज़ोर से ……… जला दो, जला दो!
चीखते-चीखते अब मैं रोने लगी थी- मैं वह चीज़ लिए बिना नहीं जाऊँगी …… मैं ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ देती रही। मैं चीख़-चीख़कर रोती रही। मैं रास्ते में चलते लोगों से वह चीज़ माँगती रही। प्लीज, मुझे वह चीज़ दे दो। मैं अपने देश ले जाना चाहती हूँ। मैं अपने देश में जीना चाहती हूँ। मैं अपने देश में चल सकना चाहती हूँ। वैसे जैसे चलना चाहिए किसीमनुष्य को, क्या मर्द, क्या औरत! बेफिक्र, बेपरवाह, स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार से, स्वतंत्रता के अहसास से!”
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