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कुर्सी खाली करने के बाद..
Opinion

कुर्सी खाली करने के बाद..

खबर है पोलैंड के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब फिर से अपने पुराने धंधे में लौटना चाहते हैं। मजदूर नेता से राष्ट्रपति बनने से पहले वे बिजली मिस्त्री थे। अब फिर से बिजली की बिगड़ी चीजें दुरुस्त करेंगे।

स्वाभाविक है कि जब वे काम करेंगे तो अपने संस्थान के सेवा नियमों का भी पालन करेंगे। वक्त से आएँगे, जाएँगे। दिन-भर डांगरी या यूनिफार्म पहन कर अपने औजारों का झोला लटकाए ड्यूटी बजाते फिरेंगे। लंच का भोंपू बजने पर साथियों के साथ मिल-बैठकर टिफिन खोलेंगे। शाम होते ही अपनी साइकिल की घंटी टुनटुनाते हुए बाजार से सब्जी-भाजी लाते हुए घर लौटेंगे।

यह भी सहज स्वाभाविक है कि नौकरी की उन सारी सुविधाओं का लाभ भी उठाएँगे, जो नौकरी के साथ जुड़ी हुई हैं। वे भी वार्षिक वेतनवृद्धि का, महँगाई भत्ते की अगली किस्त का और त्यौहार अग्रिम का इंतजार किया करेंगे। उनके संस्थान में जब हड़ताल होगी, तो. वे भी नारेबाजी करेंगे ही, तोड़ फोड़ बेशक न करें। 

ये सारी बातें सोचते हुए ख्याल आ रहा है कि अगर यहाँ भी सेवानिवृत्त या भूतपूर्व या हारे हुए प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मंत्री या अन्य नेता लोग भी पुराने काम-धंधे में लौटने लगें, तो कैसा माहौल बनेगा! अगर राजीव गांधी की हत्या न हुई होती, तो वे भी दस सशस्त्र कमाण्डाओं से घिरे इंडियन एयरलाइंस के जहाज़ उड़ा रहे होते या पाइलटों की अक्सर चलने वाली हड़तालों में हिस्सा ले रहे होते। ज्ञानी जैलसिंह बढ़ईगिरी करते हुए कुर्सियाँ-मेजें ठोकते मिलते। जो राष्ट्रपति या मंत्रीगण खेती की पृष्ठभूमि से आए हैं, वे भी सेवानिवृत्ति के बाद बीज-भंडार में या डीज़ल या खाद के लिए अपनी बारी का इंतजार करते दिन गुजारते। कितना अजीब लगेगा नारियल की खेती से जुड़े भूतपूर्व नेता को पेड़ पर चढ़े नारियल तोड़ते देखकर।

वैसे तो अपने यहाँ न कोई नेता रिटायर होता है, न भूतपूर्व। भूतपूर्व मंत्री गवर्नर बना दिए जाते हैं और वर्तमान गवर्नर सक्रिय राजनीति में आकर मंत्री बनने के लिए रात-दिन छटपटाते रहते हैं। कुसी से उनका नाता सिर्फ ऊपर वाला की काट सकता है। उस हालत में उनकी कुर्सी, पद, मकान वगैरह उनके परिवार जनों के हिस्से में ही आते हैं। वे न भी लेना चाहें-लोग बाग उनके पैर पकड़ते हैं-आप आ जाइए। देश अब संकट में है। देश की डूबती नइया आप ही बचा सकती हैं। 

अपने देश का यह आलम है कि यहाँ के ज्यादातर नेता आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। इस चुनाव में उन वृद्ध और वयोवृद्ध नेताओं की आखिरी खेप भी निपट जाएगी, जो वाया आजादी की लड़ाई राजनीति में आए थे। बाद में तो जो भी सत्ता सँभालेंगे, उनकी सप्लाई का ठेका तो अपराध जगत ही लेगा, जो आपराधिक पृष्ठभूमि से नहीं भी आए हैं, कारनामे उनके ऐसे हैं कि प्रोफेशनल अपराधी उनसे ट्रेनिंग लें।

आपराधिक पृष्ठभूमि में आने वाले नेताओं को वहीं वापिस लौटना होगा। वैसे खैर, तो वे चुने जाने के बाद भी, बिना वापस लौटे भी वे अपने पुराने धंधे करते रहे थे। कई लोगों ने तो चुनाव भी जेल के भीतर रहते लड़े और जीते हैं। शायद ही किसी देश को राजनीति में एक साथ बलात्कारी, स्मगलर, कर चोर, रिश्वत खोर, जालसाज, अपराध जगत से सीधा रिश्ता रखने वाले, सरकारी मकान पर कब्जा जमाए रखने वाले, करोड़ों डकार जाने वाले नेता मिलें। तो क्या फर्क पड़ेगा-वे अगर रिटायर भी हो जाएँ, जो जेल से आए थे, उन्हें ज़रूर तकलीफ होगी। इतनी सुविधाएँ भोगने के बाद फिर से चक्की पीसना।

कुछ और भी ऐसे होंगे, जिन्हें अपना पुराना धंधा अपनाने में तकलीफ होगी। पहले सत्संग करते थे। आशीर्वाद देते थे। हालाँकि पैर छूने वालों की यहाँ भी कमी नहीं थी, लेकिन राजनीति का खून चख लेने के बाद भला गंगा-जल और कंद मूल उन्हें कैसे अच्छे लगेंगे। कुछेक के लिए तकलीफ यह होगी कि वे कई-कई बरसों से अपने चुनाव-क्षेत्र में ही नहीं गए हैं। और उनके मतदाता लट्ठ लिए घूम रहे हैं, कुछेक को वे लोग ढूँढ़ रहे हैं, जिनसे पैसे खाकर भी उनका काम नहीं किया गया है। ऐसा नहीं है कि हमारे सारे नेता वहीं से आए हों। कई तो दूध के धुले हुए हैं। वे भी, उनके वस्त्र भी। कहीं कोई दाग नहीं, तो कितना अजीब लगेगा, सेवानिवृत्त होकर कोई राष्ट्रपति फिर से अध्यापकी में लौटकर बच्चों को पहाड़े याद कराए और उन्हें बैंच पर खड़ा करे, या कोई प्रधानमंत्री पत्रकारिता में लौटकर प्रूफ पढ़े। कॉलम लिखे। 

एक संकट और भी है। लेख वालेसा जब राष्ट्रपति का चुनाव हारकर अपने धंधे में लौट रहे हैं, तो भी उनकी इतनी उम्र बाकी है और उनमें इतना दमखम भी है कि अपने पुराने काम को कर सकें। बल्कि कुछेक साल करते रह सकें। अपने यहाँ तो आलम यह है कि जब वे समाज के किसी काम के नहीं रहते, तभी राजनीति में आते हैं। 

नहीं, हम नहीं चाहेंगे कि हमारे लोग अपने पुराने धंधे में लौटें। किसी भूतपूर्व मंत्री को गैंगवार करते या बलात्कार करते हमसे नहीं देखा जाएगा। राजनीति के अपराधीकरण तक का मामला फिर भी हमने झेल लिया है। अब अपराधों का राजनीतिकरण भी होने लगे तो।

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