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Poem

शहर में एक उम्र

एक शहर में मेरी रिहायश को सोलहवाँ साल लगा है
पर यह उम्र का वह सोलह नहीं
जहाँ से एक दुनिया बननी शुरू होती है
इस सोलहवें में एक शहर के हिस्से लिखे जा चुके हैं :
मेरे जीवन के सबसे सुंदर साल
जिनके बारे में मैं अब तक निश्चित नहीं
कि उनके बीत जाने का आनंद मनाऊँ
या उनके नष्ट हो जाने का दुःख

शहर से पूछो कि यहीं आने को निकले थे हम
तो उसकी आँखों में भी वही ऊब और नींद दिखती है
जो हमारी आँखों के इर्द-गिर्द बनते जा रहे काले घेरे में जमा है
हमारी ताज़ा आँखों में तब एक नया शहर बसा था
हमारे नए उगे ख़्वाबों की तरह ज़िंदा
अब कचड़े के पहाड़ पर उगाए गए फूलों की गंध भी
उसके सदियों से मृत शरीर की सड़ाँध नहीं छुपा पाती
मैं यह भी निश्चित रूप से नहीं कह सकती
कि यह शहर का शव है
या हमारे सपनों का
जिसकी असह्य गंध के आदी हो चुके हैं हम
तय तो यह भी नहीं कि वाक़ई कुछ बदला है
या कि बदला है बस हमारा एक दूसरे को देखने का नज़रिया
एक शहर की उम्र में अपने सोलह साल जोड़ देने के बाद


शहर पर इल्ज़ाम था
उसकी रफ़्तार में भागते पीछे छूट जाते हैं लोग
जबकि शहर नहीं भागता
भागते हैं लोग
अपनी स्मृतियों से, अपने-आप से
अतीत से, वर्तमान से
प्रेम की चाह में
प्रेम से दूर
एक अनिश्चित भविष्य की ओर
और यहाँ भविष्य है कि अपने पहले अक्षर के उच्चारण भर से बीत जाता है


मैं दो शहरों में खोजती हूँ
एक बीत गई उम्र
एक ने मुझे नहीं सहेजा
दूसरे को मैंने नहीं अपनाया
मैं दोनों की गुनहगार रही

जबकि दोनों ही गुनहगार थे
अपनी नदियों, स्त्रियों और कवियों के
जिनकी भाषा से वे हमेशा अनजान रहे
जिनकी आँखों में कभी आठों पहर की नमी बसती थी
अब वे चौमासे भी सूखी रह जाती हैं
और इतिहास दर्ज करता है
कि उस साल, उस सदी
एक शहर फिर से उजड़ गया है


जिसने तुम्हें भुला दिया
तुम उसे पहले ही भुला देना
और मेरे महबूब शहर ने नष्ट कर दी मेरी स्मृति से जुड़ी हर चीज़
जवाहर टॉकीज़ के ऊपर से एक पुल गुज़रने लगा है
मोतीझील की वह चाय की टपरी का अंश भी शेष नहीं

दोस्त जिनके चेहरे पहचान में आ जाते हैं
उनका नाम भूल जाता है
और वह जिससे हर शहर ही अपने होने का अर्थ पाता था
मुझे उसके होने का अर्थ
दुनिया के किसी शब्दकोश में नहीं मिल पाता

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