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Home Literature Poetry Trikal Sandhya
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Trikal Sandhya
by Bhawaniprasad Mishra
4.3
4.3 out of 5
Creators
AuthorBhawaniprasad Mishra
PublisherPratishruti Prakashan
Synopsisत्रिकाल संध्या की सारी कविताएं ध्यान से और स्नेहजन्य भाव से पढ़ीं। बहुत अच्छा लगा। कवि का आत्मप्रकाश कई कविताओं में प्रकट हुआ है। वह दूसरों के हृदय में भी प्रत्यय उत्पन्न करता है। कवि का संकल्प भी स्फूर्तिदायक है।
अपने बारे में कवि ने जगह-जगह आत्मप्रकाश के शब्द लिखे हैं। उसके उद्गारों मे झंकार ही नहीं हुंकार भी है। उनमें से कुछ यहां उद्धृत करता हूंतुम्हें मेरा अंधेरे में/मशाल की तरह जलना/ठीक नहीं लग रहा है/मगर मैं प्रकाश के आने तक/जलता चला जाऊंगा।.....तुम सुनकर बंद करना चाहोगे/अपने कान/मगर हम सावन होंगे/सावन के घन होंगे/हमारी आवाज सुननी पड़ेगी/झेलनी पड़ेगी तुम्हें/हमारी विद्युतमयी वाणी/झेलना पड़ेगा तुम्हें हमारा तेज/लगभग तलवार की तरह हमारा पानी।....क्योंकि सच्चे शब्द/संग से भी ज्यादा सख़्त होते हैं/ज़मीनदोज़ जो तख़्त होते हैं/ऐसे ही शब्दों से।
ये सारे उद्गार कवि के आत्मविश्वास और अदम्य आशा-निष्ठा के द्योतक हैं। इन कविताओं में आशा है, आकांक्षा है, व्यथा है, करुणा है, क्षमा है, संकल्प है, कटाक्ष है और गंभीर चिंतन भी। भारतवर्ष की परंपरागत क्षमाशीलता की झांकी भी कवि के अनेक उद्गारों में मिलती है। कुल मिलाकर कविताएं प्राण फूंकती सी मालूम होती हैं। एक जगह तो अत्याचारियों के लिए प्रार्थना और ईश्वर से क्षमायाचना का भी निवेदन है। एक कविता में सिद्धांत और विवेक का विवेचन है। यह बड़ा मूलग्राही है। सिद्धांत उन्माद पैदा करता है। उसका भी अपना नशा होता है। उस नशे में मनुष्य को पैरों तले रौंद डालता है। इसलिए विवेक चाहिए। संस्कृत में अविवेकः परमापदां पदम् लिखा है। कवि ने कलात्मक भाषा में विषय रखा है।
कुछ कविताओं में पू. काकासाहब और विनोबा के साथ बेचारे कृपलानी जी को भी घसीटा है। कृपलानी जी के मुंह में तो कभी ताला पड़ा ही नहीं। कृपलानी वृद्ध हुए हैं लेकिन ज़रा का आक्रमण अभी उनपर नहीं हुआ है। विनोबा कवि के आप्त-तत्वज्ञ और मार्गदर्शक रहे हैं। उनके विषय में और काकासाहब के विषय में कवि की शिकायत उसकी चित्त की व्यथा और उन बुजुर्गों के लिए आत्मीयता से पैदा हुई है। वह बालक का क्रंदन है। उस क्रंदन में अमर्ष ही है। लेकिन उस अमर्ष में अनादर या कटुता नहीं है। कुछ तुर्शी है।
कवि का अपना काव्यमय विश्व होता है। कवि के पैर धरती पर अवश्य हैं परंतु वह अपनी कल्पना के विश्व में विहंगम की तरह विहार करता रहता है। कवि की वाणी वेदना को भी आशा से संपन्न करके सुखद बना देती है। आंसुओं में अमिय रस घोल देती है। कराह को गुहार में बदलकर क्रंदन को भी संगीत की माधुरी से भर देती है। और संकट को सुयोग में परिवर्तित कर देती है।
9 अक्टूबर 1977 दादा धर्माधिकारी