कथा यूके के सम्मान समारोह में शिरकत करने के लिए जब मैं जुलाई 2007 में लंदन की यात्रा पर गया तो मेरी बहुत पुरानी मित्र पाकिस्तान की कथा लेखिका नीलम बशीर से एक बार फिर मुलाकात हो गयी। वे हमेशा की तरह अमेरिका से पाकिस्तान या शायद पाकिस्तान से अमेरिका जा रही थीं और कथा यूके के आमंत्रण पर कथा सम्मान 2007 में शिरकत करने के लिए कुछ दिन के लिए लंदन में रुक गयीं थीं। कई बरस पहले उन्होंने लंदन में ही कथा यूके के एक सम्मान आयोजन में मेरे उपन्यास देस बिराना का लोकार्पण किया था। तब उन्होंने मंच से ये बात कही थी कि काश, मैं ये खूबसूरत किताब पढ़ पाती। इस बार ये सुखद संयोग हुआ कि मैं उन्हें अपने उपन्यास की ऑडियो सीडी भेंट कर पाया। ये दूसरा सुखद संयोग है कि इस ऑडियो को भी लंदन की एक संस्था एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स के साथ मिल कर कथा यूके ने ही तैयार करवाया है।
कथा सम्मान आयोजन से एक दिन पहले लंदन की घुमक्कड़ी का कार्यक्रम बना। घूमने जाने वालों में थे मैं, नीलम, 2007 की हमारी कथा सम्मान प्राप्त लेखिका महुआ माजी और अमेरिका से लौटते हुए खास तौर पर इस आयोजन के लिए लंदन रुके पत्रकार मित्र अजित राय। जब हम कथा यूके के कर्ता धर्ता तेजेन्द्र के घर से निकलने लगे तो नीलम ने बताया कि कराची से उसकी पत्रकार, कहानीकार मित्र ज़ाहिदा हिना भी लंदन आयी हुई हैं और बेकर स्ट्रीट के पास उनसे मुलाकात करनी है। ज़ाहिदा हिना हमारे लिए सुपरिचित नाम है और उन्हें हम हिन्दी में छपने वाले उनके कॉलमों और कहानियों की वज़ह से जानते ही हैं।
तय हुआ, सबसे पहले उनसे ही मिल लिया जाये। नीलम जी के पास जो पता था, उसे खोजने में कोई तकलीफ़ नहीं हुई लेकिन जब हमने उस भव्य इमारत की दूसरी मंजिल तक नीचे से संदेश पहुंचाया तो पता चला कि ज़ाहिदा अभी मीटिंग में हैं और हमें कुछ देर इंतज़ार करना पड़ सकता है। उनके इंतज़ार में ऊपर जाने के बज़ाये हमने यही बेहतर समझा कि यहीं भीड़ भरे बाज़ार की रौनक में ही थोड़ी देर लुत्फ़ उठाते रहें। ये सोच कर हम मुड़े ही थे कि दूसरी मंजिल से उतर कर एक बेहद खूबसूरत शख्स़ लपकते हुए हमारे पीछे आये और कहने लगे कि आपको ज़ाहिदा ऊपर ही बुला रही हैं।
हम चारों चले उनके पीछे पीछे। हम जिस जगह ले जाये गये, दफ़तरनुमा कुछ लग रहा था। चहल पहल। लेकिन सब कुछ एक अनुशासित तरीके से। एक बड़े से कमरे में कुछ सोफे और कुछ कुर्सियां वगैरह रखे थे। वहीं हमें ले जाया गया। सामने मेज़ पर पीतल के एक खूबसूरत स्टैंड पर एक झंडा टिका हुआ था। नये और अपरिचित माहौल में होने के कारण हम तय नहीं कर पाये कि हम किस किस्म के दफ्तर में हैं और ये झंडा किस पार्टी का है। ज़ाहिदा हमें वहीं मिलीं। कुछ और लोग थे वहां बैठे हुए। उनसे दुआ सलाम हो ही रही थी कि सबके लिए कॉफ़ी आ गयी। हमने कॉफ़ी के पहले ही घूंट भरे होंगे कि कमरे में एक निहायत शरीफ़ और खूबसूरत से लगने वाले शख्स़ ने प्रवेश किया। इस गोरे चिट्टे शख्स़ को देखते ही लगा कि कहीं देखा हुआ है इसे।
उस शख्स़ ने ज्यों ही हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, याद आया, अरे ये तो नवाज़ शरीफ़ हैं। पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधान मंत्री, जो अरसे से अपने मुल्क से दूर यहां निर्वासित जीवन जी रहे हैं।
सबसे आगे मैं ही बैठा था। पहले मुझसे हाथ मिलाया उन्होंने और आगे बढ़ते हुए सबसे दुआ सलाम करते हुए एक खाली कुर्सी पर आ विराजे। ज़ाहिदा ने सबसे पहले नीलम से उनका परिचय कराया। नवाज के लहज़े से लगा कि वे नीलम को तो नहीं, बेशक उनके अब्बा हुज़ूर को ज़रूर जानते रहे होंगे। बशीर सीनियर पाकिस्तान के साहित्य और पत्रकारिता जगत में खासा नाम रखते थे। उसके बाद अजित, महुआ और मेरा परिचय खुद नीलम ने दिया। जब नवाज़ साहब को पता चला कि हम लेखक और पत्रकार लोग हैं और भारत से आये हैं तो उनका लहज़ा एकदम मीठा हो गया और वे भारत पाकिस्तान के बीच मधुर संबंधों की, बेहतर रिश्तों की और हर तरह की दूरियां कम करने की बात करने लगे। अपनी बात में वज़न लाने के लिए उन्होंने पंजाबी में बुल्ले शा और दूसरे लोक कवियों को कोट करना शुरू कर दिया। हम वहां पर मेहमान थे और उनके नहीं, बल्कि उनकी मेहमान ज़ाहिदा के मेहमान थे। इसलिए जो कुछ भी कहा जा रहा था, उसे सुनने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे फिर भी मैंने कह ही दिया कि नवाज़ साहब, रिश्ते तो इधर बेहतर हुए ही हैं और ये कि ये तो दोनों तरफ से लगातार चलने वाली प्रोसेस है और आप एक दिन में बेहतर रिज़ल्ट की उम्मीद नहीं कर सकते। नवाज़ साहब ने मेरी तरफ देखा, कुछ बुदबुदाये, इस बीच अजित ने भी इसी आशय की टिप्पणी की कि रिश्ते बेहतर बनाने के लिए तो आपस में विश्वास जीतना होता है और अवाम के बीच ज़मीनी काम करना पड़ता है।
तभी नवाज़ साहब ने जानना चाहा कि हम लंदन किस सिलसिले में आये हैं। उन्हें बताया गया कि लंदन की एक संस्था कथा यूके का साहित्य सम्मान लेने के लिए महुआ भारत से आयी हैं और कि अगले ही दिन हाउस आफ लार्ड्स में ये सम्मान दिया जाना है। वे ये जानकर बहुत खुश हुए और कहने लगे कि ये तो वाकई बहुत शानदार बात है कि लिटलेचर इस तरह से मुल्कों की सरहदें पार कर अपनी जगह बना रहा है। मज़े की बात, महुआ मैडम को अब तक पता नहीं था कि ये शख्स कौन हैं। कॉफ़ी पी जा चुकी थी और सबसे पहले नवाज़ ही उठे, हम सब का शुक्रिया अदा किया और हमसे इजाज़त चाही। अब जा कर महुआ जी ने अजित से पूछा कि कौन हैं ये शख्स तो अजित ने उनकी जिज्ञासा शांत करते हुए बताया कि ये पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ हैं। अब महुआ की हैरानी देखने लायक थी। तब तक नवाज़ कमरे से जा चुके थे।
हम भी निकलने के लिए उठे। ज़ाहिदा भी हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो गयीं। तभी शायद महुआ की तरफ से ये प्रस्ताव आया कि नवाज़ के साथ एक ग्रुप फोटो हो जाये। ज़ाहिदा से कहा गया और ज़ाहिदा ने अपने सम्पर्क खटखटाये। बात बन गयी और दो तीन मिनट के इंतज़ार के बाद नवाज़ फिर हाजिर थे। हम चाहते थे कि मेज़ पर रखे उनकी पार्टी के झंडे के पास खड़े हो कर फोटो खिंचवायें लेकिन वे कमरे के दरवाजे के पास परदे के आगे खड़े हो गये। फोटो सेशन हुआ। नवाज़ अब बेतकल्लुफ़ी से बात कर रहे थे। हम सब ने अपने अपने कैमरे से ग्रुप फोटो लिये। मैंने देखा कि हमने अपने कैमरों से तो तस्वीरें ली हीं, उनके बेटे और दामाद ने भी हम सब की तस्वीरें लीं।
नवाज़ ने हम सबसे पूछा कि हम हिन्दुस्तान के किन किन शहरों से आते हैं। जब मैंने बताया कि मेरे माता पिता तो पाकिस्तान से ही उजड़ कर भारत गये थे तो वे मुझसे ठेठ पंजाबी में ही बात करने लगे। महुआ ने अपने शहर रांची के बारे में बताते हुए अब चांस लिया और उन्हें बताया कि उनके जिस उपन्यास पर कथा यूके का ये सम्मान दिया जा रहा है, वह बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर आधारित है। नवाज़ साहब ने खुशी जाहिर की तो लगे हाथों महुआ ने उन्हें अगले दिन के सम्मान समारोह के लिए न्यौता दे डाला। नवाज़ भाई ने भी देर न की और अपने पालिटिकल सेक्रेटरी से कह दिया कि वह मुझे अपना ईमेल आइडी दे दें ताकि उस पर दावतनामा भेजा जा सके। बेशक मुझे उनके सेक्रेटरी ने अपने कमरे में ले जा कर अपना कार्ड दिया और कहा कि मैं ज़रूर से ज़रूर न्यौता भेज दूं। कुछ और भी लोगों ने अपने कार्ड दिये। ज़ाहिदा ने बाद में बताया कि कॉंफी सेशन में हमारे साथ नवाज़ साहब के भाई, बेटे और दामाद का भी बैठे थे।
नीचे उतरते समय मोहतरमा महुआ माजी बेहद खुश थीं कि पहले ही दिन एक मशहूर शख्स से मुलाकात हो गयी। उन्होंने तुरंत एक छोटा सा सपना देखा कि क्या ही शानदार होगा वो पल जब पाकिस्तान के भूतपूर्व प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ लंदन के हाउस आफ लार्ड्स में भारत से आयी एक हिन्दी लेखिका महुआ माजी द्वारा बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर लिखे गये हिन्दी उपन्यास को कथा यूके सम्मान से पुरस्कृत होते देखेंगे। उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि उन्हें निमंत्रण पत्र ज़रूर ईमेल करूं।
अब मैं महुआ मैडम को कैसे बताता कि किसी एक राष्ट्र के प्रमुख के लिए दूसरे देश में, जिसमें उसने आश्रय ले रखा है, अपनाये जाने वाले प्रोटोकाल के कुछ नियम होते हैं और बेशक नवाज़ ने आपको खुश करने के लिए दावतनामा मांग लिया हो, वे एक आम आदमी की तरह हाथ में दावतनामा लिये लंदन के हाउस आफ लार्डस में सुरक्षा की औपचारिकताएं निभाते हुए आपके आयोजन में जाने से रहे। अलबत्ता, महुआ मैडम के चेहरे की रौनक दिन भर बनी रही और उनकी बातचीत में नवाज़ शरीफ़ लगातार बने रहे। शायद अगले दिन उन्होंने इंतज़ार भी किया हो और उनके आने की दुआ भी की हो। उनके ईमेल आइडी पर दावतनामा भेजने का तो सवाल ही नहीं था। अगर भेजा भी जाता तो नवाज़ साहब ने तो खैर क्या ही आना था इस कार्यक्रम में।
जून 2007
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