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आधुनिक बोध - भाग 3
Memoirs

आधुनिक बोध – भाग 3

9. पैसा पेसे को खींचता है

एक देश था। उसमें बहुत सारे लोग रहते थे। उन बहुत सारे लोगों में से भी बहुत सारे लोग गरीब थे और उन बहुत सारे लोगों में कुछ कम लोग बहुत अमीर थे।

तो हुआ यूं कि उन बहुत सारे गरीब लोगों में से एक गरीब आदमी ने किसी तरह से अक्षर ज्ञान कर लिया। अब वह जब कभी फुर्सत में होता (वैसे वह हर समय फुर्सत में ही होता था) इस अक्षर ज्ञान को परखने के लिए और उन छपे हुए अक्षरों का सही अर्थ जांचने के लिए आस पास बिखरे कागजों, अखबारों की कतरनों और कहीं भी छपे अक्षर देख कर धीरे धीरे हिज्‍जे करके पढ़ने की कोशिश करता। इस अक्षर ज्ञान के बलबूते पर वह समझता था कि वह कुछ कुछ सयाना हो रहा है।

एक बार की बात, उसने यूं ही छपा हुआ एक काग़ज बांचते हुए पढ़ा कि पैसा पैसे को खींचता है। ये इबारत उसने कई बार पढ़ी। जब उसे समझ आ गयी तो उसकी आंखों में चमक आ गयी – अरे वाह, ये तो बहुत अच्‍छी बात लिखी है। पैसा पैसे को खींचता है। अगर मेरे पास भी कहीं से एक पैसा आ जाये तो उसके बल पर मैं दूसरों के पैसों को अपनी तरफ खींच सकता हूं। फिर मेरे पास जब ज्‍यादा पैसे हो जायेंगे तो मैं उस पैसों से और ज्‍यादा पैसे खींच सकता हूं। तब मैं बहुत पैसे वाला हो जाऊँगा।

बस जी, उस दिन से वह एक पैसा जुटाने की जुगत में लग गया। आखिर वह एक पैसे वाला हो गया। अब उसकी तलाश शुरू हुई किसी ऐसी तिजोरी की जिसके सारे पैसे वह खींच सके।

उसे याद आया कि राशन वाले लाला की तिजोरी में दिन भर इतने पैसे आते रहते हैं कि उसे अपनी तिजोरी बंद करने का मौका ही नहीं मिलता। गरीब आदमी ने सोचा – यहीं से शुरुआत की जाये।

वह जा कर लाला की दुकान के आगे लगी भीड़ में खड़ा हो गया और मौका देख कर अपना पैसा उस तिजोरी की तरफ उछाल दिया। एक पैसा ज्‍यादा पैसों में मिल गया। वह बहुत खुश हुआ और एक किनारे खड़ा हो कर इंतजार करने लगा कि कब उसका पैसा तिजेारी के सारे पैसों को खींच कर लाता है।

दिन ढल गया, शाम हो गयी, सारे ग्राहक चले गये, लेकिन उसके पैसे ने कोई करामात न दिखायी। वह परेशान होने लगा।

लाला देख रहा था कि एक गरीब आदमी तब से परेशान हाल उसकी दुकान के आसपास मंडरा रहा है। दुकान बंद करने का समय हुआ तो गरीब की हालत खराब हो गयी। लाला ने उसकी ये हालत देखी तो पास बुलाया और उसकी परेशानी की वजह पूछी।

गरीब ने रोते हुए पूरा किस्‍सा बयान किया। सुन कर लाला हंसने लगा – तूने ठीक पढ़ा था लेकिन आधी ही बात पढ़ी थी।

तब लाला ने गरीब आदमी को समझाया कि तूने पढ़ा कि पैसा पैसे को खींचता है तो तू देख ही रहा है कि पैसों ने पैसे को खींच लिया है। बस, तूने ये ही नहीं पढ़ा था कि ज्‍यादा पैसे कम पैसों को खींचते हैं। अब तू घर जा। अँधेरा हो रहा है। कहीं तुझे सांप बिच्‍छू न काट लें।

डिस्क्लेमर: ये विशुद्ध बोध कथा है। इसके पात्र पूरी तरह से काल्‍पनिक हैं। इस कथा का उस देश से कोई संबंध नहीं है जहां बहुत सारे गरीबों के थोड़े से भी पैसे बहुत थोड़े से अमीरों की बहुत बड़ी तिजोरी में अपने आप पहुंच जाते हैं और इस बीच अँधेरा हो जाता है।

10. हरामखोर

बात आज़ादी से पहले की है। इंगलैंड से एक नौजवान युवक अफसर बन कर भारत आया। उसकी पहली पोस्‍टिंग ही बूचड़खाने में हो गयी।

उसने देखा कि बकरे और दूसरे जानवर कटते समय शोर बहुत मचाते हैं। जैसे पूरा आसमान ही सिर पर उठा लेते हैं। उसने सारी चीजों का बारीकी से मुआइना किया। कुछ निष्‍कर्ष निकाला।

अगले ही दिन उसने घोषणा कर दी कि जानवर कटते समय शोर इसलिए मचाते हैं क्‍योंकि वे देसी छुरी से कटते हैं। देसी छुरी में धार नहीं होती, उसमें जंग लगने का खतरा रहता है और उसमें ये होता है और वो होता है।

अब इन्‍हें काटने के लिए इंगलैंड में छुरी बनाने वाली सबसे बडी कंपनी से शानदार और तेज धार वाली छुरियां मंगायी जायेंगी। उन छुरियों से कटते समय इन्‍हें कम तकलीफ होगी।

कहने की जरूरत नहीं है कि छुरियां बनाने वाली कंपनी उसके चाचा की थी।

छुरियां आयीं, जानवर इम्‍पोर्टेड छुरियों से कटने लगे लेकिन वे कटते समय अभी भी पहले की तरह चिल्‍लाते थे।

अंग्रेज चिल्‍लाया – अबे हरामखोरो, अब क्‍यों चिल्‍लाते हो। अब तो तुम दुनिया की सबसे बेहतरीन छुरी से कट रहे हो।

डिस्‍क्‍लेमर : यह विशुद्ध बोध कथा है। इसके सारे पात्र काल्‍पनिक हैं और इसका किसी देश, पार्टी, सरकार या बूचड़खाने से कोई संबंध नहीं है।

11. भिखारी बनने की कथा

एक बहुत पुरानी जापानी कथा है। एक मंदिर के बाहर दो भिखारी बैठा करते थे। दोनों में जान पहचान हुई और बातचीत शुरू हो गयी।

एक दिन पहले भिखारी ने दूसरे भिखारी से पूछा – तुम भिखारी कैसे बने?

दूसरे ने जवाब दिया – मैं तो जन्मजात भिखारी हूं। मेरे दादा, परदादा यहीं भीख मांगते थे। एक तरह से मैं खानदानी भिखारी हूं। तुम अपनी कहो, इस धंधे में कैसे आये?

पहले भिखारी ने ठंडी सांस भरते हुए कहा – बहुत लंबी और अजीब कहानी है मेरी।

दूसरे ने उत्साह से कहा – अरे सुनाओ ना, कुछ तो समय अच्छा गुजरेगा। वैसे ही इतनी मंदी चल रही है कि टाइम पास करना मुश्किल हो रहा है।

पहले ने कहना शुरू किया – दरअसल मैं बहुत अमीर उद्योगपति था। मेरे कई कारखाने थे। हुआ ये कि मेरे शहर में धूल भरी आंधियां बहुत चलती थीं। इससे लोगों की आंखों में धूल बहुत पड़ती थी और मुझे ऐसा लगने लगा कि इन आंधियों के चक्कर में लोग कहीं अंधे न होने लगें। मैंने सोचा कि जब ज्यादा लोग अंधे होंगे तो वे बेकार भी होंगे। जब बेकार होंगे तो घर बैठे टाइम पास करने के लिए उन्हें कुछ न कुछ करने की इच्छा होगी। मेरे शहर के लोग संगीत प्रेमी थे तो मुझे लगा कि वे अंधे होने के बाद वायलिन बजाना पसंद करेंगे। एक खास किस्म का वायलिन होता है जिसे बनाने के लिए बिल्ली की आंतों का इस्तेमाल किया जाता है। अब जी मैंने सोचा कि अगर आंधियां इसी तरह चलती रहीं तो ज्यादा लोग अंधे होंगे। ज्यादा लोग अंधे होंगे तो ज्यादा वायलिन बनाने पड़ेंगे। ज्यादा वायलिन मतलब ज्यादा बिल्लियों की हत्या और जब ज्यादा बिल्लियां मारी जायेंगी तो तय है शहर में चूहे बढेंगे। जब चूहे बढ़ेंगे तो तय है नागरिकों को अपना सामान सुरक्षित रखने के लिए ज्यादा डिब्बों की जरूरत पड़़ेगी। बस, मैंने आव देखा न ताव, अपनी सारी पूंजी अलग अलग आकार के डिब्बे बनाने में लगा दी। बस, यहीं मैं मार खा गया और अब तुम्हारे सामने बैठा हूं। न ज्यादा आंधियां चलीं, न ज्यादा लोग अंधे हुए, न ज्यादा वायलिन ज्यादा बने, न ज्यादा बिल्लियां मारी गयीं और न चूहे ही बढ़े और मेरे बनाये सारे डिब्बे ….।

डिस्क्लेमर: ये जापानी कथा है और इसका उस देश की सरकारों के फैसलों से कुछ लेना देना नहीं है जो कई बार इतनी दूर की कौड़ी खोज कर बनाये जाते हैं कि पता नहीं चलता कि हँसें या रोयें। ये भी कि आखिर में भिखारी बनना किसके नसीब में लिखा है।

12. लो मैं आ गया।

एक बहुत पुरानी कथा है। बाप बेटा शहर में माल बेच कर गांव वापिस लौट रहे थे। अँधेरा हो चला था। उनके साथ का गधा बहुत बूढ़ा हो चला था। पगडंडी संकरी थी इसलिए भी तेज चलने में तकलीफ हो रही थी। वे पूरी तरह से अँधेरा घिर जाने से पहले घर पहुंच जाना चाहते थे।

अब किस्‍मत की मार देखिये वे गांव के पास पहुंचे ही थे कि गधा एक गड्ढे में जा गिरा।

बाप बेटा परेशान कि अब करें तो क्‍या करें। गड्ढा काफी गहरा था और ऊपर से अँधेरा। किसी भी तरह से गधे को बाहर नहीं निकाला जा सकता था। सुबह तक इंतजार भी नहीं किया जा सकता था। रात भर में गधा रेंक रेंक कर सारे गांव को सोने न देता और फिर सुबह पूरे गांव की गालियां सुननी पड़तीं। अब करें तो क्या करें। दोनों सिर पकड़ कर बैठे थे कि गधे ने रेंकना शुरू कर दिया।

दोनों ने आपस में सलाह मशविरा किया और यही सोचा कि गधा हो चला है बूढ़ा। अब काम का रहा नहीं है लेकिन खुराक पूरी है। इसके चक्‍कर में हर दिन काम का हर्जा होता है। कोई खरीदने से रहा। क्‍यों न इसे इसी गड्ढे में जिंदा दफन कर दिया जाये। जान छूटेगी।

ये सोच कर बेटा लपक कर घर गया और दो बेलचे और लालटेन लेता आया।

अब जी, बाप बेटे ने फटाफट आसपास की मिट्टी गधे के ऊपर डालनी शुरू कर दी ताकि गधा मिट्टी तले दब जाये।

जब गधे पर मिट्टी पड़नी शुरू हुई तो पहले तो उसे समझ ही नहीं आया कि ये हो क्‍या रहा है। वह जोर से रेंका। तभी उसके दिमाग की बत्ती जली। वह दोनों की अक्लमंदी पर मुस्‍कुराया और मिट्टी की मार सहता रहा। बाप बेटा देर रात तक गधे पर इतनी मिट्टी डाल चुके थे कि उन्‍हें लगने लगा कि बस, थोड़ी ही देर में गधा जीते जी दफन हो जायेगा।

उधर गधे जी महाराज मिट्टी के हर वार को पीठ पर झेलते और बदन झटक कर मिट्टी हटा देते। मिट्टी पैरों तले आती और इस तरह से वे हर बार ऊपर उठ रहे थे। सोच रहे थे कि बस थोड़ी सी मिट्टी और पड़ी नहीं कि वे बाहर हो जायेंगे।

हुआ भी यही। थोड़ी मिट्टी और आयी गधे के बदन पर और गदहा महराज जी ने एक छलांग लगायी और सीधे ही गड्ढे के बाहर – लो मैं आ गया।

डिस्‍क्‍लेमर: इस बोध कथा का उस देश से कोई लेना देना नहीं है जहां आतंकवाद के, अलगाववाद के, सांप्रदायिकता के, अशिक्षा के, अज्ञानता के, नफरत के, अलां के और फलां के दैत्‍य रोज दफन किये जाते हैं लेकिन दफन होने से पहले ही वे और मजबूती से सिर उठा कर और ताकतवर हो कर सामने आ खड़े होते हैं और चुनौती देते लगते हैं कि ये रहे हम।
जो करना है कर लो।

13. सौदा

एक देश था। देश था तो उसके वित्त मंत्री भी होंगे। अब वित्त मंत्री हैं तो जरूरी है कि पढ़े लिखे भी होंगे और अर्थव्यवस्था और विकास वगैरह की जानकारी भी रखते होंगे।

अब हुआ यह कि वित्त मंत्री महोदय ने एक भारी भरकम किताब लिख डाली। वित्त मंत्री की लिखी किताब है तो महंगी ही होगी।

अब वित्त मंत्री की किताब है तो वित्त मंत्रालय के आला अधिकारियों और बैंकों की चोटी पर बैठे बैंकरों को अपनी चमचई दिखानी ही थी। उच्च स्तरीय बैठकें हुईं। सभी बैंक शाखाओं के लिए टार्गेट फिक्स कर दिए गए कि इतनी प्रतियां बेचनी ही हैं। हमें अव्वल आना है।

किताब बेचने के लिए होड़ लग गयी।

शाखा प्रबंधक उनके भी बाप निकले।

कोई भी लोन पास कराना हो तो किताब की एक प्रति खरीदनी ही होगी। आखिर वित्त मंत्राी की लिखी किताब है।
लोन लेने वालों को सौदा महंगा नहीं लगा। झट से पैसे गिन कर देते और किताब उठा लेते।
बड़े बड़े लोन लेने वाली पार्टियों ने तो आगे ठिकाने लगाने के लिए किताब की पेटियां उठवा लीं। किताब खूब बिकी।
बस ये मत पूछना कि किताब को ग्राहक मिले या पाठक।

डिस्‍क्‍लेमर: इस बोध कथा का किसी देश या उसके किसी भी वित्त मंत्री या किसी भी मंत्री या देश से कोई लेना देना नहीं है

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