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पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक अमृता प्रीतम साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला थी। एक शानदार लेखिका जिसने ने पंजाबी के अलावा हिन्दी में भी कवितायें लिखीं, उपन्यास लिखे। उन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया, अपने आखिरी दिनों में उन्हें भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ।
Persona

‘अमृता प्रीतम’ – साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला

Amrita Pritam – First lady to receive Sahitya Academy Award

पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक अमृता प्रीतम साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला थी। एक शानदार लेखिका जिसने ने पंजाबी के अलावा हिन्दी में भी कवितायें लिखीं, उपन्यास लिखे। उन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया, अपने आखिरी दिनों में उन्हें भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। लेकिन उनके बारे में कोई बात हो जिक्र उनके साहिर और इमरोज़ के साथ रिश्तों तक सीमित होकर ही रह जाता है। 

ये ठीक है कि ये रिश्ते उनके जीवन और व्यक्तित्तव का एक बड़ा हिस्सा थे, लेकिन उनके बारे में अगर किसी बात का जिक्र सबसे पहले होना चाहिए तो वो है उनके लेखन का – रसीदी टिकट और पिंजर का, अमर कविता “अज्ज आखां वारिस शाह नू” का। आइये पढ़ते हैं उनकी इस कविता का एक अंश, उसका हिंदी अनुवाद, रसीदी टिकट का एक अंश, इमरोज़ को समर्पित एक पंजाबी कविता और उसका हिंदी अनुवाद

“अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल”

“अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन
अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नु कैन
उठ दर्दमंदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चना “

“अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल का हिंदी अनुवाद

आज वारिस शाह से कहती हूँ
अपनी कब्र में से बोलो
और इश्क की किताब का
कोई नया वर्क खोलो
पंजाब की एक बेटी रोई थी
तूने एक लंबी दास्तान लिखी
आज लाखों बेटियाँ रो रही हैं,
वारिस शाह तुम से कह रही हैं
ऐ दर्दमंदों के दोस्त
पंजाब की हालत देखो
चौपाल लाशों से अटा पड़ा हैं,
चिनाव लहू से भरी पड़ी है
किसी ने पाँचों दरिया में
एक जहर मिला दिया है
और यही पानी
धरती को सींचने लगा है
इस जरखेज धरती से
जहर फूट निकला है
देखो, सुर्खी कहाँ तक आ पहुँची
और कहर कहाँ तक आ पहुँचा
फिर जहरीली हवा वन जंगलों में चलने लगी
उसमें हर बाँस की बाँसुरी
जैसे एक नाग बना दी
नागों ने लोगों के होंठ डस लिये
और डंक बढ़ते चले गये
और देखते देखते पंजाब के
सारे अंग काले और नीले पड़ गये
हर गले से गीत टूट गया
हर चरखे का धागा छूट गया
सहेलियाँ एक दूसरे से छूट गईं
चरखों की महफिल वीरान हो गई
मल्लाहों ने सारी कश्तियाँ
सेज के साथ ही बहा दीं
पीपलों ने सारी पेंगें
टहनियों के साथ तोड़ दीं
जहाँ प्यार के नगमे गूँजते थे
वह बाँसुरी जाने कहाँ खो गई
और रांझे के सब भाई
बाँसुरी बजाना भूल गये
धरती पर लहू बरसा
क़ब्रें टपकने लगीं
और प्रीत की शहजादियाँ
मजारों में रोने लगीं
आज सब कैदो बन गए
हुस्न इश्क के चोर
मैं कहाँ से ढूँढ के लाऊँ
एक वारिस शाह और…

साहिर से उनका इश्क़ तो मशहूर है ही लेकिन एक कविता जो उन्होंने पाने आखिरी दिनों में इमरोज़ के लिए लिखी थी

मैं तैनू फ़िर मिलांगी

मैं तैनू फ़िर मिलांगी
कित्थे ? किस तरह पता नई
शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के
तेरे केनवास ते उतरांगी
जा खोरे तेरे केनवास दे उत्ते
इक रह्स्म्यी लकीर बण के
खामोश तैनू तक्दी रवांगी
जा खोरे सूरज दी लौ बण के
तेरे रंगा विच घुलांगी
जा रंगा दिया बाहवां विच बैठ के
तेरे केनवास नु वलांगी
पता नही किस तरह कित्थे
पर तेनु जरुर मिलांगी
जा खोरे इक चश्मा बनी होवांगी
ते जिवें झर्नियाँ दा पानी उड्दा
मैं पानी दियां बूंदा
तेरे पिंडे ते मलांगी
ते इक ठंडक जेहि बण के
तेरी छाती दे नाल लगांगी
मैं होर कुच्छ नही जानदी
पर इणा जानदी हां
कि वक्त जो वी करेगा
एक जनम मेरे नाल तुरेगा
एह जिस्म मुक्दा है
ता सब कुछ मूक जांदा हैं
पर चेतना दे धागे
कायनती कण हुन्दे ने
मैं ओना कणा नु चुगांगी
ते तेनु फ़िर मिलांगी
इस कविता को गुलज़ार साहब ने अपनी पुरकशिश आवाज़ में गुनगुनाया भी है

मैं तैनू फ़िर मिलांगी का हिंदी अनुवाद

मैं तुझे फ़िर मिलूंगी
कहाँ किस तरह पता नही
शायद तेरी तख्यिल की चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरुंगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
या फ़िर सूरज कि लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूंगी
या रंगो कि बाहों में बैठ कर
तेरे केनवास से लिपट जाउंगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे जरुर मिलूंगी
या फ़िर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूंगी
और एक ठंडक सी बन कर
तेरे सीने से लगूंगी
मैं और कुछ नही जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जी भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म खतम होता है
तो सब कुछ खत्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनुंगी
मैं तुझे फ़िर मिलूंगी !!

और आखिर मैं उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट का एक अंश

ज़िन्दगी के कई वे पल, जो वक़्त की कोख में जन्मे, और वक्त की क़ब्र में गिरे हुए, आज मेरे सामने खड़े हैं……..
ये सब क़ब्रें कैसे खुल गईं ? और ये सब पल जीते-जागते क़ब्रों में से कैसे निकल आए ?
यह ज़रूर कयामत का दिन है…..

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