Menu
मेरे चुनावी सर्वेक्षण
Literature

मेरे चुनावी सर्वेक्षण

कॉलेज के दिनों में और उसके बाद लम्बी बेकारी के दिनों में जब भी जनगणना होती, मेरी बहुत इच्छा हुआ करती, मैं भी घर-घर जाकर आँकड़े इकट्ठे करूँ, सरकारी फार्म तो भरूं ही सही, साथ ही अपना बनाया एक फार्म भी भरता चलूँ और ऐसी जानकारियाँ जुटाकर लाऊँ जो अनूठी हों, नायाब हों और जिनसे लोगों को समझने-पहचानने में मदद मिले।  मसलन, मैं पता लगाता कि मैं जिन घरों में गया, वहाँ कितने प्रतिशत लोग मूंछे रखते हैं, दाढ़ी रखते हैं, गंजे हैं, तोंदियल हैं। कितने फीसदी लोग चश्मा लगाते हैं और कितने घरों में किताबें नजर आयीं। मैं आँकड़े दे सकता कि कितने घरों में जाकर लगा कि यहाँ जरूर ऊपर की कमाई होती होगी और कितने घरों में घर की छोटी-मोटी जरूरतों के लिए भी महँगाई भत्ते की अगली किस्त का इंतजार किया जाता होगा। यह भी जानना अच्छा लगता कि कितने प्रतिशत लोग, जब घर पर होते हैं तो राष्ट्रीय पोशाक अर्थात् धारीदार जाँघिया और बनियान धारण किए होते हैं। इसी सर्वे के दौरान महिलाओं के बारे में भी कुछ रोचक आँकड़े इकट्ठे किए जा सकते थे, जैसे कि इन एक हजार घरों में जब घर का कर्ता मुझे आवश्यक जानकारी दे रहा था तो कितनी कर्तिनों ने उसे टोककर खुद बात करना शुरू कर दिया। 

यह भी पता लगाया जा सकता था कि शादी के बाद कितने प्रतिशत महिलाएं अपने देह-पिण्ड को फलने-फूलने के लिए खुला छोड़ देती हैं या कितने प्रतिशत महिलाएँ ‘शायद कोई आ जाए’ की मुद्रा में सजी-धजी नज़र आयीं और कितने प्रतिशत महिलाएँ हर तरह से लापरवाह मिली। मेरा दुर्भाग्य रहा कि जनगणनाएँ तो बहुत हुईं, संस्थागत सर्वेक्षण भी हुए, लेकिन मुझे कभी मौका नहीं मिला कि घर-घर जाकर सर्वे करके मनमाफिक आँकड़े जुटा सकूँ। सिर्फ एक बार एक अखबार के लिए सर्वे करने का काम मिला। उन्होंने पहले ही दिन दिल्ली के बल्ली मारान की गलियों के पचास पते दे दिए। जाओ, सर्वे कर लाओ। मैं उन गलियों में सारा दिन भूखा-प्यासा भटकता रहा। अगर घर का नम्बर मिलता था तो गली गलत होती थी और गली सही मिलती थी तो उसमें उस नम्बर का घर ही नहीं होता था। जिसे गली समझता, वह किसी घर का गलियारा निकलता और जिसे मैं आँगन समझता, पता चलता, वह चौक है। मैं पूरे दिन में सिर्फ तीन घर खोज पाया था। वहीं मेरे जीवन का इकलौता सर्वेक्षण रहा।

अब भी सर्वेक्षण कराए जाते हैं। घर पर भी कई लोग आते हैं। किसी को नहीं कि वह पता लगाये कि कितने प्रतिशत लड़के/लड़कियाँ प्रेम रोग पाले हुए हैं और कितने बच्चों के जन्मदिन कभी नहीं मनाये जाते। न कोई टूटे हुए दिलों के ऑकड़े लाता है और न ही किसी को यह सूझता है कि पता लगाये-दहेज के लिए कितने घरों में बहुओं को सताया जलाया जाता है। आजकल सभी की रुचि चुनावी सर्वेक्षणों का होती है कि किस नेता की लुटिया डूबेगी और किसकी तरेगी। कई बार टाईधारी सर्वेक्षक और सर्वेक्षिकाएँ यह भी पूछने चले आते हैं कि आप कौन-सी कम्पनी की शर्ट पहनते हैं या अगर कल से ओ. एन. जी. सी. नमक बनाने लगे और एयर इंडिया जूते बनाने लगे तो आप इस्तेमाल करेंगे क्या? कितने पुरुषों के या महिलाओं के विवाहेतर प्रेम  प्रसंग चल रहे हैं से पता गाना रोचक होता। इसी से पता चलता कि कितने पुरुषों या महिलाओं का जीवन बेमेल विवाह के कारण बरबाद हो रहा है।

इधर पहली बार ऐसा हुआ कि मुझसे पूछा गया – क्या चुनाव ड्यूटी के लिए जाना चाहेंगे? मैंने तुरन्त हाँ कर दी, और इस तरह मुझे पहली बार कम-से-कम एक हज़ार लोगों के बारे में कुछ मजेदार बातें पता चलीं। अपने निजी अनुभवों को इस तरह सार्वजनिक रूप से बयान करने से अगर मुख्य चुनाव आयुक्त की आचार संहिताओं का उल्लंघन न होता हो तो मैं बताना चाहूँगा कि अपनी ड्यूटी पूरी मुस्तैदी से निभाते हुए भी मतदाताओं को ऑब्जर्व करता रहा और ये आँकड़े जुटाता रहा।

हमारा पोलिंग बूथ प्रदेश की राजधानी के बाहरी हिस्से में था। वहाँ वोट डालने आम तौर पर वे लोग आये जो राजधानी में रहते हुए भी पूरी तरह ग्रामीण परिवेश के थे। अपने पहनावे से, तौर-तरीकों से, सादगी से वे सरकारी दावों को पूरी तरह झुठला रहे थे कि गाँवों से शहरों की तरफ पलायन हो रहा है। वे तो यहाँ रहते हुए भी असली गाँव साथ लाये हुए थे। वे इस सरकारी दावे की भी पूरी तरह ऐसी-तैसी कर रहे थे कि साक्षरता कार्यक्रमों और प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों से गाँव-गाँव और शहर-शहर में शिक्षा और ज्ञान की लहर-लहर-सी घूम रही है। हमारे बूथ में लगभग एक हजार वोटरों में से पैंसठ फीसदी वोटरों ने काउंटर फाइल पर अपने हस्ताक्षर करने के बजाय अंगूठे का निशान लगाना पसंद किया। पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज्यादा अंगूठे दिखाए। वोटरों से जब कहा गया कि अमिट स्याही का निशान लगवाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ायें तो पचास फीसदी ने अपनी दोनों हथेलियाँ आगे बढ़ायी जैसे हम निशान न लगा रहे हों, उनके हाथों पर पर मेंहदी रचवा रहे हों। तभी मैंने पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के नाखून ज्यादा बढ़े हुए थे और उनमें मैल भरी हुई थी, हालाँकि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपने हिसाब से सज-धजकर और नहा-धोकर आयी थीं। वे समूहों में आयी थीं और उनके कपड़े पुरुषों की तुलना में रंगीन और साफ थे। पुरुष वोटरों में दो-तीन बातें कॉमन थीं। दाढ़ी पाँच-सात दिन की बढ़ी हुई, कपड़े मैले और जूते-चप्पल गंदे थे। शायद पॉलिश और जूतों की कभी मुलाकात भी न हुई हो।

बुजुर्ग वोटर अधिक संयमित और शांत लगते थे। अगर वोटिंग लिस्ट में उनका नाम न होता या गलत होता तो वे भड़कते-झगड़ते नहीं थे। वे सरकारी मशीनरी के काम-काज के तरीके से अच्छी तरह वाकिफ प्रतीत होते थे, जबकि अधेड़ वोटर झगड़ने लगते थे। बिलकुल युवा वोटर जिनकी मसें अभी सूखी थीं, पहली बार वोट देते समय बहुत उत्साहित थे। अलबत्ता, उन्हें कुछ भी पता नहीं था, क्या करना है, स्याही का निशान कहाँ लगवाना है और मत पत्र पर क्या करना है। एक पढ़ी-लिखी लग रही अर्धशहरी और अर्धग्रामीण बालिका से जब हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया  तो उस अबोध कन्या ने पल-भर पहले लगाये गए अमिट स्याही के निशान को ही बड़ी सफाई से कागज़ पर उतारने की बालसुलभ चेष्टा की जिसमें वह असफल रही।

पोलिंग बूथ में ही पहली बार मुझे पता चला कि हमारी राजनीति का ऊँट किस करवट बैठेगा, उसे तय करने वाला महत्त्वपूर्ण घटक वह बेचारा वोटर है जो आज़ादी की आधी सदी बीत जाने के बाद भी इतने लम्बे-चौड़े मतपत्र पर छपे नामों को पढ़ना तो दूर, उनमें छपे सभी चुनाव चिह्नों की पहचान तक नहीं कर सकता। वह चाहे तो भी, अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम पढ़कर उसे वोट नहीं दे सकता।

No Comments

    Leave a Reply