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Poem

महानगर में औरत

इस अनिश्चित जीवन में स्थायी बस
सहेज लिए गए दुःख हैं
वह रौशनी के लिए खोलती है खिड़कियाँ
बाहर पत्थर उसकी प्रतीक्षा में रहते हैं

सुख बाईं आँख में भूल से पड़ आया एक कंकड़ है
जो ढेर सारे पानी के साथ बह आएगा

सुकून के लिए जुटाई गई हर चीज़ :
बुद्ध की प्रतिमाएँ, लैंप, मोमबत्तियाँ और ख़ुशबू नाकाफ़ी हैं
वह कुत्तों में तलाशती है अपने अजन्मे
जो गर्भ के अँधेरों से ही लौट गए,
वह लगभग रोज़ एक नया पौधा रोपती है
और उनसे देर तक बतियाती है
क्योंकि डायल किए गए अधिकांश नंबर कहीं न कहीं व्यस्त हैं
दुनिया का हर नशा नाकाफ़ी है
उसकी पलकों पर जीवन की सलीब रखी है

प्रेम में भय है
या कि भय से ही प्रेम है
वह अपने अंदर के उस शैतान से डरती है
जिसे सब कुछ चाहिए
आँख भर की नींद
उम्र भर के सपने
थोड़ी सी आँच
और एक मज़बूत गर्म हथेली
जिसे थाम कर दुखों को पिघलता महसूस किया जा सके

ऐसी रातें हो जीवन में जब भय किसी खुले छूट गए दरवाज़े से अंदर प्रवेश नहीं करे
अपनी पीड़ाएँ और अपने स्वप्न भी किसी को उसी तरह मुक्त होकर सौंपे जा सके
जैसे सौंप दी जाती है देह,
इतना कुछ चाहना
उस शैतान को अनियंत्रित छोड़ देना है
जो एक दिन सब निगल जाता है
प्रेम भी
और प्रेम का भ्रम भी,

जैसे एक शहर निगलता जाता है
हमारे अंदर की कविता

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