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Home Literature Classics & Literary Goli
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Goli
by Achary Chatursesn
4.3
4.3 out of 5
Creators
AuthorAchary Chatursesn
PublisherRajpal
Synopsis‘‘मैं जन्मजात अभागिनी हूँ। स्त्री जाति का कलंक हूँ। परन्तु मैं निर्दोष हूँ, निष्पाप हूँ। मेरा दुर्भाग्य मेरा अपना नहीं है, मेरी जाति का है, जाति-परम्परा का है; हम पैदा ही इसलिए होते हैं कि कलंकित जीवन व्यतीत करें। जैसे मैं हूँ ऐसी ही मेरी माँ थी, परदादी थी, उनकी दादियाँ-परदादियाँ थीं। मैंने जन्म से ही राजसुख भोगा, राजमहल में पलकर मैं बड़ी हुई, रानी की भाँति मैंने अपना यौवन का शृंगार किया। रंगमहल में मेरा ही अदब चलता था। राजा दिन रात मुझे निहारता, कभी चंदा कहता, कभी चाँदनी। राजा मेरे चरण चूमता, मेरे माथे पर तनिक-सा बल पड़ते ही वह बदहवास हो जाता था। कलमुँहे विधाता ने मुझे जो यह जला रूप दिया, राजा उस रूप का दीवाना था, प्रेमी पतंगा था। एक ओर उसका इतना बड़ा राज-पाट और दूसरी ओर वह स्वयं भी मेरे चरण की इस कनी अंगुली के नाखून पर न्यौछावर था।’’
-इसी पुस्तक में से
1958 में पहली बार प्रकाशित आचार्य चतुरसेन का यह अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास राजस्थान के रजवाड़ों में प्रचलित गोली प्रथा पर आधारित है। चंपा नामक गोली का पूरा जीवन राजा की वासना को पूरा करने में निकल जाता है और वह मन-ही-मन अपने पति के प्रेम-पार्श्व को तरसती रहती है। लेखक का कहना है, ‘‘मेरी इस चंपा को और उसके शृंगार के देवता किसुन को आप कभी भूलेंगे नहीं। चंपा के दर्द की एक-एक टीस आप एक बहुमूल्य रत्न की भाँति अपने हृदय में संजोकर रखेंगे।’’