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Story

सुनंदा

इस बार स्‍थानान्‍तरणों के लिए जो सूची जारी की गई है, उसमें सुनन्‍दा वाजपेयी का भी नाम है। इन चार बरसों में वह तकरीबन सभी विभागों और अनुभागों में चक्‍कर काट आयी है और लगभग सभी जगहों से एक तरह से धकियायी ही गयी है। सिर्फ सुनन्‍दा ही क्‍यों, उस जैसे कई हैं जिनसे पीछा छुड़ाने के लिए इसी तारीख का इन्तज़ार किया जा रहा था। जितने विभागों में राहत की सांस ली जा रही है, उतने ही दूसरे अधिकारी सिर थाम के बैठे हैं कि किस तरह पूरे एक बरस तक इन आदमकद मुसीबतों से काम करवा पाएंगे।

      सुनन्‍दा वाजपेयी के लिए यहां प्रशासन में आना एक तरह से उसकी घर वापसी है। यहीं से वह चार बरस पहले एकाउंट्स में भेजी गयी थी। वहीं से घूमते-घामते वापस लौटी है। अलबत्ता, इस बीच प्रशासन में सभी लोग बदल चुके हैं और आम तौर पर वे उसके बारे में ज्‍यादा कुछ नहीं जानते। प्रशासन अधिकारी सुखदेव यहां नए आए हैं। वे तो किसी के भी बारे में ज्‍यादा कुछ नहीं जानते। बस ये जानते हैं कि इन सालाना तबादलों के विरोध में कोई भी कुछ नहीं कर सकता सिवाय एक साल तक इंतजार करने के।

      सुनन्‍दा जब प्रशासन में रिपोर्ट करने के लिए पहुंची तो वहां सिर्फ डिस्‍पैचर की जगह ही खाली थी। सिर्फ वही यहां से स्‍थानान्‍तरित होकर गया था। सुनन्‍दा आयी। अपनी मेज़ साफ की। पुराने कागज़ वगैरह संभाले। चार्ज लिया और जाने वाले क्‍लर्क से जो कुछ भी समझना था, समझा। एक बार वह सीट पर बैठी तो सारा काम खत्‍म करके ही उठी। उसने सारी चिट्ठियां रजिस्टरों में दर्ज कीं, लिफाफे बनाए, उन पर पते लिखे और चपरासी से टिकटें लगवा कर डाक में डलवा दीं।

      अगले दिन और उसके अगले दिन भी सुनन्‍दा ने अपना काम मुस्तैदी से किया। अपने साथियों से बात की। उनके साथ खाना खाया। बिलकुल एक सामान्य कर्मचारी की तरह व्‍यवहार किया।

      सुखदेव ने राहत की सांस ली। उसे तो बताया गया था कि सुनन्‍दा वाजपेयी एकदम पागल है और ज़रा सा भी काम ठीक तरह से नहीं कर सकती। यहां तो गज़ब हो गया था। वह तो पहले वाले डिस्‍पैचर से भी ज्‍यादा चुस्ती से काम निपटा रही थी। सुखदेव को यही लगा, शायद काम की व्यस्तता ही उसका दिमागी संतुलन बनाए रखती है। उसने सोचा, सुनन्‍दा का यही इलाज है कि उसके पास भरपूर काम हो।

      लेकिन चौथे दिन सुबह ही से जो हंगामा शुरू हुआ, उसने सुखदेव के सारे उत्‍साह पर पानी फेर दिया। आधी से ज्‍यादा डाक पोस्‍ट ऑफिस से वापिस आ गयी। किसी पर पूरा पता नहीं था तो किसी लिफाफे पर तीन चार पते एक साथ लिखे हुए थे। टिकटों का भी कोई हिसाब नहीं था। पांच रुपए की जगह कहीं बीस रुपए की फ्रैंकिंग की गयी थी तो कहीं लिफाफे यूं ही डाक में डलवा दिए गए थे। जो पत्र किसी तरह अपने ठिकानों पर पहुंच भी गए थे, वहां से पार्टियों के फोन आने शुरू हो गए, हमारे पास गलत पत्र आ गए हैं। कहीं पूरे केस पेपर्स भेज दिए गए थे तो कहीं पत्र की सारी प्रतियां एक ही जगह जा पहुंची थीं। सुखदेव ने समझ लिया, सुनन्‍दा की चार दिन की यह व्यस्तता कितनी महंगी पड़ी है।

      उसने सुनन्‍दा को बुलवाया। उससे प्‍यार से पूछा, यह सब गड़बड़ी कैसे हो गई। सुनन्‍दा ने भोलेपन से कहा-कोई बात नहीं, मैं दोबारा भेज दूंगी। सुखदेव जानता था कि यह डेस्‍क इतनी महत्वपूर्ण है जिसे सुनन्‍दा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। फिर भी उसे एक मौका और देने की नीयत से सुखदेव ने उसे सारी चीज़ें सिलसिलेवार समझायीं। खुद उसके पास बैठकर काम करके दिखाया। लेकिन जब सुनन्‍दा को फिर कुछ पत्र दर्ज करने के लिए कहा तो नतीजा अब भी जीरो ही था। सुखदेव ने फिर भी अपना पारा नीचे रखते हुए एक बार फिर सुनन्‍दा से पूछा-अब तो तुम्‍हें सब कुछ समझ में आ गया होगा?

– बिलकुल सर, सब समझ में आ गया है। अब मैं जाऊं सर? लेकिन सारा दिन उसके साथ सिर खपाने के बावजूद सुखदेव दस पत्र भी सही ठिकानों पर रवाना नहीं करवा पाया। अब समस्‍या यह हो गयी कि उस डेस्‍क का काम कौन संभाले। कोई भी उसे हाथ लगाने को तैयार नहीं। एक दिन की बात हो तो कोई आगे भी आए। मजबूरन सुखदेव ने खुद बैठ कर इन चार दिनों में भेजी गई सारी चिट्ठियों का रिकार्ड चेक किया। जो वापिस आ गई थीं, उन्‍हें भिजवाया। जहां गलत पत्र पहुंचे थे, सही पत्र भिजवाए। पूरे दो दिन इसी में उलझा रहा। क्‍या करे, क्‍या न करे, कुछ सूझता ही नहीं था। उसने कोशिश की, सेक्‍शन में कोई सुनन्‍दा से अपनी डेस्‍क बदल ले, लेकिन कोई भी तैयार नहीं हुआ। सुखदेव के सामने अब एक ही उपाय बचा था कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों और कार्मिक विभाग को इस पूरे मामले की जानकारी दे दे और ऑफिस के हित में किसी सही विकल्प की मांग करे। और इसी चक्‍कर में यह हंगामा हो गया है।

यूनियन ने उसका घेराव कर दिया है। सुखदेव ने अपनी तरफ से पूरी सावधानी बरतते हुए नम्र भाषा में कार्मिक विभाग को नोट भेजा था। उसकी गलती सिर्फ, यही रही कि उसने सच लिख दिया था कि श्रीमती सुनन्‍दा वाजपेयी की मानसिक स्थिति ऐसी नहीं है कि डिस्पैच जैसी महत्वपूर्ण डेस्‍क संभाल सके। उसने इन चार पांच दिनों में उसके द्वारा किए गए सही-गलत काम के ब्‍यौरे देते हुए किसी योग्य कर्मचारी की तैनाती के लिए अनुरोध भर किया था कि सुखदेव के सिर पर बम फूट गया। यह नोट हाथों हाथ बारूद बन गया और ठीक सुखदेव के सिर पर फूटा। पता नहीं कैसे इस नोट के पैर लग गए और वह कार्मिक विभाग में जाने के बजाय यूनियन के ऑफिस की तरफ मुड़ गया और यूनियन वाले अपने सभी ज़रूरी काम छोड कर सुखदेव पर आ चढ़े। पहले तो वह समझ ही नहीं पाया कि ये सब लोग उसका घेराव ही किस लिए कर रहे हैं। वह घबरा गया। उसकी जिंदगी में यह पहला मौका था कि कोई उसके पास आकर ऊंची आवाज में बात भी कर रहा था। यूनियन वालों ने उसके आते ही उसे आड़े हाथों लिया। पहले तो  सुखदेव चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा। तुरंत आदेश हुआ – आपको इतनी भी तमीज नहीं है कि यूनियन के दस लोग आपसे मिलने आए हैं और आप खड़े भी नहीं हो सकते। सुखदेव सिर झुका कर खड़ा हो गया। बोलने दो जो कुछ भी बोलते हैं। मैं ही कोई जवाब नहीं दूंगा। तभी प्रेसिडेंट ने गरज कर कहा – कहिए, क्‍यों करते हैं आप ऐसी हरकतें, जिससे कोई आपके साथ काम ही नहीं करना चाहता।

– यह गलत है, मैंने ऐसा क्‍या. . . . . . ।

– हम बताते हैं, आपने क्‍या किया है। एक शरीफ, मेहनती और सीधी सादी महिला को आपने पागल कहा। आप अपने स्‍टाफ को विक्टिमाइज़ करते हैं। उनसे पर्सनल काम कराते हैं।

– लेकिन मेरी बात तो सुनिए। सुखदेव को लगा, सच क्‍या है, यह बताना बहुत जरूरी है। लेकिन चारों तरफ से जो शोर उठा, सुखदेव को बात ही पूरी नहीं करने दी गयी।

– तुम खुद को समझते क्‍या हो। तुम्‍हारे जैसे कई आए और गए।

      सुखदेव हक्‍का-बक्‍का। बेबुनियाद आरोप, बदतमीजी। उसने फिर सफाई में कुछ कहना चाहा।

फिर कोई चिल्लाया- तू अपने आप को बड़ा तीस मार खां समझता है। बड़ा डॉक्‍टर आया है जो देखते ही बता देता है कि कौन पागल है। एक और आवाज उभरी – खबरदार, अगर हमारे किसी भी मेम्‍बर का कुछ कहा तो। वह यहीं और इसी डेस्‍क पर काम करती रहेगी। देखते हैं तू क्‍या कर लेगा। धीरे-धीरे सारा हुजूम हो-हो करके लौट गया है।

      सुखदेव सिर थामे बैठा है। कितना अपमान…..। अपनी सफाई में कुछ कहने की इजाज़त नहीं और सब सुनते रहे, सिर झुकाए काम करते हरे। उन स्‍टाफ सदस्यों ने भी कुछ नहीं कहा जो कल तक यही कह रहे थे कि हम में से कोई भी इस पगली का काम नहीं करेगा।

      बाद में सुखदेव को पता चला था कि सुनन्‍दा को इस पूरे प्रकरण के बारे में पता ही नहीं था। इन्‍हीं लोगों ने उसे मना कर दिया था, एक दिन ऑफिस न जाने के लिए।

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मिसेज सुनन्‍दा वाजपेयी साइकिक केस हैं। वैसे एम काम पास हैं। देखने में भी अच्‍छी हैं। जब ठीक होती हैं और ढंग से तैयार होकर आती हैं तो इस बात का साफ आभास मिलता है कि कितनी नफासत पसंद हैं। कभी बहुत अच्‍छी वर्कर मानी जाती थीं। उन दिनों दिल्‍ली ऑफिस में थीं। एक दिन ऑफिस आते समय बस का एक्‍सीडेंट हो गया। सिर पर गहरी चोट लगी थी। तीन दिन तक कौमा में पड़ी रहीं। बाद में होश तो आया था लेकिन दिमागी संतुलन बिगड़ चुका था। कुछेक दिन बाद अस्पताल से तो छुट्टी मिल गई थी लेकिन लम्‍बे, महंगे और निरंतर इलाज की सलाह के साथ। घर वालों ने बाद में हैसियत भर इलाज करवाया। कभी ठीक भी हो जाती लेकिन जहां इलाज रुका, दौरे पड़ने लगते। लगातार कुछ भी अनाप शनाप बोलने लगती। न कपड़ों की सुध रहती, न नहाने धोने की। कभी सड़क पर निकल जाती। लगातार चलती रहती, कभी बोलती काी बोलती रहती। कभी ऑफिस वक्‍त पर न पहुंच पाती और कभी घर वापिस न जा पाती। डाक्टरों ने बताया- इसका विधिवत और पूरा इलाज होना चाहिए। जरा भी चूक हुई कि हर बार नए सिरे से इलाज शुरू करना पड़ेगा। मां बाप की और भी औलादें थीं। दो एक महीने इलाज कराते, जरा सा भी ठीक होने के आसार नजर आते तो इलाज बंद कर देते। फिर वही हालत।

      मां बाप ने पता नहीं क्‍या सोचा, आधा-अधूरा इलाज करा के वैवाहिक विज्ञापन के जरिए जैसा भी पति मिला उसी से शादी कर दी। लड़का फैक्टरी वर्कर था। उस बेचारे से सारी बात छुपा ली गयी। जब लड़के से उसे मिलवाया गया, तो उससे पहले सुनन्‍दा को तेज इंजेक्‍शन दिलवा दिए गए थे। दस पंद्रह दिन भरपूर खुराक और दवाएं दी गयीं। यहां तक कि सुनन्‍दा की शादी भी एक तरह से इंजैक्‍शनों के असर में ही की गई थी। उसने कमाऊ लड़की देखी। ऑफिस से मिलने वाली सुविधाओं का हिसाब लगाया और शादी हो गयी। दोनों यहां आ गए। शादी के कुछ दिन तो ठीक खींच लिए, लेकिन दवाओं के खत्‍म होते ही सुनन्‍दा अपने रंग में आ गयी। अपने घर पर तो कोई भी दवा दिलवा देता था, यहां कौन दिलवाता। पति को पता नहीं था। सुनन्‍दा की हालत बिगड़ती चली गई। कभी चाकू उठा लेती तो कभी रसोई में नाचना शुरू कर देती। वह घबराया – बीवी को पता नहीं क्‍या हो गया है। भागा-भागा डॉक्‍टर के पास गया। डॉक्‍टर ने देखते ही कह दिया- यह आज का रोग नहीं है। दो तीन साल पुरानी समस्‍या है। लगता है दवा बंद कर देने से यह हालत हो गई है। इलाज के पुराने कागजात कहां हैं।

      अब उसे लगने लगा, बीच बीच में जो सुनंदा का व्‍यवहार एकदम बदल जाता था, या वह लगातार एक ही चीज को घूरने लगती थी, उसकी क्‍या वजह थी। मजे की बात, वह यहां ट्रांसफर ले कर आयी और अपने नए ऑफिस भी जाती रही। किसी ने भी कोई भी शिकायत नहीं की थी। सुनन्‍दा के घर वालों से बात करना बेकार था। उन्‍होंने तो सारी बात छुपा कर उसके साथ इतना बड़ा मजाक किया था। डॉक्‍टर ने साफ कह दिया- इलाज जब तक चलता रहेगा, वह ठीक रहेगी। जहां चूक हुई…..

वह सुनन्‍दा को घर ले आया था।

उसने सभी पहलुओं पर गौर किया। वह सब कैसे और क्‍यों हुआ। यह तो तय है, उसे धोखा दिया गया है। नौकरी और नौकरी की सुविधाओं के चक्‍कर में उसके पल्‍ले एक पगली बांध दी गई है। अब क्‍या वह तलाक ले ले, जो उसे मेडिकल आधार पा आसानी से मिल जाएगा। या नौकरी छुड़वा कर घर बिठाए, या इलाज करवाए, करवाता रहे, किसी तरह दवाओं के बल पर सुनन्‍दा को ठीक ठाक रखे।

      उसने देखा कि जब सुनन्‍दा दस बीस दिन तक इलाज कराने के बाद ठीक हो कर ऑफिस जाने लगी, तो सब कुछ नार्मल हो गया। जैसे कुछ हुआ ही न हो। उसने पता लगाया, दिल्‍ली में भी ऐसा ही चलता रहा था। दो ढाई साल तक। वहां भी न घर पर किसी को उसकी परवाह थी, न ऑफिस में।

      मिस्‍टर वाजपेयी ने यह भी देखा कि बेशक सुनन्‍दा की शादी हो गई है, उसे पता भी है। कभी-कभी ढंग से तैयार होकर विवाहित होने के अहसास भी दिलाती है, लेकिन कुल मिला कर वह दीन दुनिया से परे है। जो पहन लिया, उसी में खुश। जो मिल गया या पका लिया, खा पी लिया। ऑफिस जाती है और सीधे घर लौट आती है। हां, पूरी पगार लाकर उसे थमा देती है। पूरे आठ हज़ार रुपए। उसकी अपनी पगार से ठीक दुगुने। जबकि सुनन्‍दा की खुद की कोई भी मांग नहीं है। वह हर वक्‍त अपने में ही मस्‍त है।

      तो, तो क्‍या जरूरत है, उसका इलाज कराने की। जबकि बिना इलाज कराए, ठीक हुए भी वह आठ हजार रुपए कमा कर ला सकती है तो वह तलाक की क्‍यों सोचे या उसकी पक्की नौकरी क्‍यों छुड़वाए। जब उसका ऑफिस बिना काम करवाए उसे पूरे पैसे देने को तैयार बैठा है तो उसी को लेने में क्‍यों तकलीफ हो। चलने दो इसी तरह। आखिर उसे भी तो धोखा दिया ही गया है। वह अपने तरीके से बदला लेगा।

      एक दो बार वह उसे लेने या छोड़ने ऑफिस गया तो उसे यूनियन की ताकत का पता चला। उसने देखा, पांच सात ही लोग हैं जो पूरी यूनियन और यूनियन के जरिए पूरे ऑफिस पर कब्‍जा किए हुए हैं। वह उन लोगों से मिला। उनके आगे अपने दुखड़े रोए – टैम्‍परेरी नौकरी, पागल बीवी, उसका इलाज, कुंवारी बहनें, अलां, फलां। इलाज तो करवा ही रहा हूं, जरा आप लोग हें हें हें। इसका ऑफिस में खयाल रखें कि कहीं इसके साथ कोई ऊंच नीच न हो जाए। बाकी मैं हूं ही सही। कभी भी मेरे लायक कोई सेवा हो तो कहें।

      अगली बार जब यह यूनियन के ऑफिस में आया तो उसके बैग में बहुत सारी इंपोर्टेड चीजें थीं जो उसने ऑफिस के सामने वाली कस्टम नोटिफाइड शॉप से खरीदी थीं। उसने बताया-गल्‍फ में मेरा दोस्‍त रहता है। मुझ बहुत मानता है। जब भी आता है, मेरे लिए ये सब ले आता है। अब मैं ठहरा फैक्टरी वर्कर, ये सब चीजें मेरे किस काम की। मैंने सोचा, हें हें हें। इस तरह हें हें करके चीजें देने का सिलसिला उसने कई दिन तक और कई लोगों के लिए चलाया।

      उस दिन से यूनियन वाले इस बात का पूरा खयाल रखते हैं कि सुनन्‍दा को किसी भी तरह की तकलीफ न होने पाए। बेशक वैसे भी उसे कोई तंग नहीं करता, वह काम करे या बिगाड़े, सब चलता है। जब उसकी तबीयत ज्‍यादा बिगड़ने लगती है या उसकी हरकतें हद पार करने लगती है तो उसके पति को बता दिया जाता है कि कुछ दिन तक उसे ऑफिस न भेजे या एकाध सुई लगवा दे।

      वह जैसी है, उसी में खुश है। जिन दिनों इलाज चल रहा होता है तो खूब खुश रहती है। पति की बहुत तारीफ करती है। नहीं तो उसकी अपनी दुनिया है, जिसमें वह मस्‍त है। शिकायतों, तनावों और रोज-रोज की परेशानियों से परे। उसे न आजकल के फैशन का पता है न महंगाई भत्ते की नई किस्‍मत का। उसे न कैटरीना कैफ का पता है, न शाहरुख़ ख़ान का। वह तो एक चलती फिरती मशीन है जो दिन भर ऑफिस में बैठने का आठ हजार रुपया पाती है। यह पैसे वह अपने पति को दो चार जोड़ी कपडों, दो वक्‍त की रोटी और एक बिस्‍तर के एवज में दे देती है। अब यह आरोप उस पर कैसे लगाया जा सकता है कि वह पागल है। इतना अधिक करने, कमाने के बावजूद वह अपने लिए कितना कम रखती है।

      सच, वह कितनी भोली है। उस बिचारी को तो यह भी नहीं पता कि उसके पति ने अपनी फैक्टरी के पास ही एक और घर बसा रखा है और उस घर में रहने वाली दूसरी औरत का सारा खर्च सुनन्‍दा के वेतन से ही पूरा किया जाता है।

रचनाकाल 1992

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