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महानगर की कथाएं - भाग 2
Story

महानगर की कथाएं – भाग 2

5. विकल्प

“सुन री, अगले हफ्ते से बजाज सेंटर में चाइनीज और ओरिएंटल कुकरी की क्लासेस शुरू हो रही है। बहुत मन कर रहा हैं मेरा ओरिएंटल खाना बनाना सीखने का लेकिन जाऊं कैसे?

“क्यों, क्या परेशानी है?”

“परेशानी सिर्फ इतनी सी है मेरी बिल्लो रानी कि ये क्लासेस पूरे चालीस दिन की हैं और सवेरे दस से तीन बजे तक चलने वाली हैं। अब इस शौक को पूरा करने के लिए डेढ़ महीने की छुट्टी लेना कोई बहुत बड़ी समझदारी की बात तो नहीं होगी ना।”

“हम तेरी मुफ्त की छुट्टी का इंतजाम कर दें तो बता क्या ईनाम देगी।”

“सच . . . तू जो कहे . . . जहाँ तू कहे शानदार पार्टी मेरी तरफ से। बता कैसे मिलेगी मुझे छुट्टी?”

“मिलेगी बाबा . . . . जरा धैर्य से। पहले मेरे दो तीन सवालों के जवाब दे। कितने बच्चे हैं तेरे?”

“एक ही तो है केतन . . . . क्यों?”

“कोई सवाल नहीं। अच्छा ये बता ओर बच्चा तो नहीं पैदा करना है तुझे?”

“अभी तक तो सोचा नहीं। हां भी और नहीं भी।”

“कोई बात नहीं। ऐसा कर, कल ही तू जा कर अपना एडमिशन करवा लेना।”

“दैट्स ग्रेट। लेकिन छुट्टी।”

“छुट्टी मिलेगी आपको एमटीपी का एक लैटर दे कर। पूरे पैंतालीस दिन की। दो बार ली जा सकती है। मिसकैरिज के लिए कोई सबूत थोड़े ही चाहिये।”

“अरे वाह, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था। मैं कल ही अपनी गायनॉक से बात करती हूँ।”

“सिर्फ अपने लिए नहीं, मेरे लिए भी बात करना। मैं भी . . ।”

“यू टू ब्रूटस।”

6. शातिर

बंबई का सबसे पॉश और महंगा इलाका, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जहाँ हमारे पादुका विहीन हुसैन रहते हैं और शोभा डे भी। धीरूभाई अंबानी का घर भी वहीं और दूसरे बिजनेस टायकून कहे जाने वाले उद्योगपतियों के दफ्तर भी वहीं। इसी इलाके में देश की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करनेवाले बैंकों, वित्तीय संस्थानों और दूसरे औद्योगिक घरानों के दफ्तर। इस इलाके में ऑफिस और घर शायद देश की तुलना में सबसे महंगे हैं।

तो इसी इलाके में एक बहुत बड़े वित्तीय संस्थान के गेट के पास का नज़ारा। लंच का समय। एयर कंडीशंड दफ्तरों की बंद हवा से थोड़ी देर के लिए निजात पाने और लंच के बाद के सिगरेट, पान और तफरीह के लिए वहाँ सैकड़ों लोग चहलकदमी कर रहे हैं। किसी न किसी काम से इस इलाके में आये सैकड़ों लोग भी हैं जो अब लंच टाइम हो जाने के कारण टाइम किल करने की नीयत से यूं ही टहल रहे हैं।

तभी वह आता है। एक बहुत बड़ा सा बैग टैक्सी से निकालता है और वहीं गेट के पास ही अपनी स्टैंडिंग दुकान शुरू कर देता है। उसने बैग में से दस जोड़ी मोजे निकाले हैं और खड़े–खड़े आवाजें देना शुरू कर दी हैं –– “पीटर इंगलैंड के मोजे सिर्फ बीस रुपये में . . . सिर्फ बीस रूपये में इंटरनेशनल कम्पनी के मोजे . . . । सौ रुपये में पांच जोड़ी। ले जाइये . . . .ले जाइये सिर्फ बीस रुपये में . . . ।”

उसने शानदार कपड़े पहने हुए हैं। गले में बेहतरीन टाई और पैरों में चमकते जूते। जिस बैग में वह मोजे रखे हैं वह भी अच्छी किस्म का है। यानी शक की कोई गुंजाइश नहीं।

देखते ही देखते उसके चारों तरफ भीड़ लग गयी है और लोग सब काम भूल कर अपनी पसंद के रंग और डिजाइन के मोजे चुनने लगे हैं।

सिर्फ घंटे भर में उसने तीन सौ जोड़ी मोजे बेच लिये हैं और खाली बैग ले कर चला गया है। जिन लोगों को बाद में पता चला है वे लपक कर आये हैं लेकिन उसे वहाँ न पा कर निराश हो गये हैं। एक नायाब खरीदारी होते–होते रह गयी। जो लोग पाँच–पाँच जोड़ी ले गये हैं उन्हीं से कहा जा रहा है एकाध जोड़ी दे देने के लिए।

अगले दिन वह फिर आया है। इस बार उसके पास दो बैग हैं। दोनों बैग उसने फिर घंटे भर में ही खाली कर दिये हैं। आज कोई चूकना नहीं चाहता।

मेरे ऑफिस के भी कई लोग लाये हैं कई–कई जोड़े। महिलाएं अपने पतियों के लिए इतना सस्ता सौदा करके खुश हैं। बीस रुपये में आजकल ब्रैंडेड मोजे मिलते कहाँ हैं।

मेरे बॉस भी लाये हैं। दस जोड़ी। खूब खुश हैं। पूरे घर के लिए साल भर का इंतजाम हो गया। मैं उनकी मेज से यूं ही एक पैकेट उठा कर देखता हूँ और तुरंत ही वापिस भी रख देता हूँ। मेरी इस तरह की प्रतिक्रिया देख कर वे अचानक पूछते हैं –

“क्या हुआ।”

“कुछ नहीं। बस, ये मोजे नकली हैं।”

“अरे कमाल करते हैं आप। ये पीटर इंगलैंड के मोजे हैं। भला नकली कैसे हो सकते हैं? जरा इनकी क्वालिटी तो देखिये और ये पैकिंग?” वे अचानक ताव खाने लगे हैं।

मैंने धैर्यपूर्वक जवाब दिया है – “ये मैं नहीं आपके ये मोजे खुद ही बता रहे हैं कि ये उल्हास नगर का नकली माल है।”

आप कैसे कह सकते हैं कि ये नकली हैं।

“जरा ध्यान से देखिये, इंगलैंड की स्पैलिंग क्या लिखी है इस पर। ई एन जी एल ई एन डी। वह आदमी तीन दिन से सबको बेवकूफ बना रहा है और न किसी ने ये लेबल देखा और न ही ये सोचा कि पीटर इंगलैंड कम्पनी कहाँ की है और क्या मोजे बनाती भी है या नहीं।”

उन्होंने भी मोजे उलट पलट कर देखे हैं और वापिस रख दिये हैं।

इस वक्त उनका चेहरा देखने लायक है।

“वैसे ये बता दूँ कि हमारे ये साहब करोड़ों की वित्तीय धोखाधड़ियों का पता लगाने वाले विभाग के सर्वेसर्वा हैं।”

7. बीच का रास्ता एक

“हाय, करुणा, आज कित्ते दिन बाद दिख रही है तू? मुझे लगा या तो नौकरी बदल ली तूने या ट्रेन?”

“कुछ नहीं बदला शुभदा, सब कुछ वही है, बस जरा होम फ्रंट पर जूझ रही थी, इसलिए रोज ही ये ट्रेन मिस हो जाती थी।”

“क्यों क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?”

“वही सास ससुर का पुराना लफड़ा। होम टाउन में अच्छा खासा घर है। पूरी जिंदगी वहीं गुजारने के बाद वहाँ अब मन नहीं लगता सो चले आते हैं यहाँ। हम दोनों की मामूली सी नौकरी, छोटा सा फ्लैट और तीन बच्चे। मैं तो कंटाल जाती हूँ उनके आने से। समझ में नहीं आता क्या करूँ।”

“एक बात बता, तेरे ससुर क्या करते थे रिटायरमेंट से पहले?”

“सरकारी दफ्तर में स्टोरकीपर थे।”

“उनकी सेहत कैसी है?”

“ठीक ही है।”

“उन दोनों में से कोई बिस्तर पर तो नहीं है?”

“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस, बुढ़ापे की परेशानियाँ है, बाकी तो . ।”

“और तेरा सरकारी मकान है। तेरे ही नाम है ना . . . . तेरे हस्बैंड की तो प्राइवेट नौकरी है?”

“हाँ है तो?”

“और तेरे ससुर की पेंशन तो 1500 से ज्यादा ही होगी?”

“हाँ होगी कोई 2300 के करीब।”

“बिलकुल ठीक। और तू रोज रोज के यहाँ टिकने से बचना चाहती है?”

“चाहती तो हूँ, लेकिन मेरी चलती ही कहाँ है। घर में उनकी तरफदारी करने के लिए बैठा है ना श्रवण कुमार।”

“अब तेरी ही चलेगी। एक काम कर। अपने ऑफिस में एक गुमनाम शिकायत डलवा दे कि तेरे नॉन डिपेंडेंट सास ससुर बिना ऑफिस की परमिशन के तेरे घर में रह रहे हैं। तेरे ऑफिस वाले तुझे एक मेमो इश्यू कर देंगे, बस। सास ससुर के सामने रोने धोने का नाटक कर देना . . . .कि किसी पड़ोसी ने शिकायत कर दी है। मैं क्या करूँ? ऐसी हालत में वे जायेंगे ही।”

“सच, क्या कोई ऐसा रूल है?”

“रूल है भी और नहीं भी। लेकिन इस मेमो से डर तो पैदा किया ही जा सकता है।”

“लेकिन शिकायत डालेगा कौन?”

“अरे, टाइप करके खुद ही डाल दे। कहे तो मैं ही डाल दूँ। मैंने भी अपने सास–ससुर से ऐसे ही छुटकारा पाया है।”

8. बीच का रास्ता दो

एक साथ तीन छुट्टियाँ आ रही है। वे चारों एक साथ काम करते हैं और पिकनिक जाने के मूड में हैं। एक खास और सीमित ग्रुप ही की प्राइवेट पिकनिक होगी ये ताकि पूरी तरह से मौज मस्ती मनायी जा सके। माथेरान या लोनावला जाने की बात है। कम से कम दो रातें वहाँ गुजारनी ही हैं। बहुत दिन हो गये हैं इस तरह से मजा मारे।

किस–किस महिला सहकर्मी को जाने के लिए पटाया जा सकता है, इसके लिए सूचियाँ बन रही हैं और नाम जुड़ और कट रहे हैं।

पूरे ऑफिस में वैसे तो ढेरों ऐसी महिलाएं हैं जो खुशी–खुशी साथ तो चली चलेंगी लेकिन उन्हें फैमिली गैदरिंग नहीं चाहिये। कुछ मौज–मजा करने और कुछ ‘छूट’ लेने और देने वालियां ही चाहिये।

ऐसी सूची में तीन नाम तो तय हो गये हैं। चौथे नाम पर बात अटक गयी है। उससे कहा कैसे जाये। वही सबसे तेज तर्रार और काम की ‘चीज’ है। बाकी तीन को भी वही पटाये रख सकती है।

इसकी जिम्मेवारी वासु ने ले ली है।

“लेकिन तुम उसे तैयार कैसे करोगे? हालांकि वहाँ स्टार आइटम वही होगी। चली चले तो मजा आ जाये।“ सवाल पूछा गया है।

“वो तुम मुझ पर छोड़ दो।” “लेकिन सुना है, उसका हसबैंड बहुत ही खडूस है। रोज शाम को ऑफिस के गेट पर आ खड़ा होता है उसे ले जाने के लिए। कहीं आने–जाने नहीं देता।”

“वह खुद संभाल लेगी उसे।”

“वो कैसे?”

“उसने खुद ही बताया था एक बार कि जब भी इस तरह का कोई प्रोग्राम हो तो उसे एक हफ्ता पहले बता दो। वह अगले दिन ही मायके चली जायेगी और फिर वहीं से चली आयेगी। तब उसकी हसबैंड के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। इस तरह के सारे काम वह मायके रहते हुए ही करती है।”

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