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महानगर की कथाएं - भाग 1
Story

महानगर की कथाएं – भाग 1

1. विकल्पहीन

उस स्कूल की हैडमिस्ट्रेस रोज ही देखती है कि मिसेज मनचन्दा स्कूल का समय खत्म हो जाने के बाद भी स्कूल में ही बैठी रहती हैं और लाइब्रेरी वगैरह में समय गुजारती हैं। वे आती भी सबसे पहले हैं। बाकि अध्यापिकाएं तो जितनी देर से आती हैं उतनी ही जल्दी जाने की हडबडी में होती हैं। अगर मैनेजमेन्ट ने हर अध्यापिका के लिये कम से कम पांच घण्टे स्कूल में रहने की शर्त न लगा रखी होती तो कई अध्यापिकाएं तो अपने दो तीन पीरियड पढा कर ही फूट लेतीं।

मिसेज मनचन्दा ने हाल ही में यह स्कूल जॉइन किया है। वे सुन्दर हैं, जवान हैं और सबसे बडी बात, बाकि अध्यापिकाओं की तुलना में उनके पास डिग्री भी बडी है, बेशक वेतन उनका इतना मामूली है कि महीने भर का ऑटो से आने जाने का ऑटोरिक्शा का भाडा भी न निकले।

आखिर पूछ ही लिया प्रधानाध्यापिका ने उनसे।

मिसेज मनचन्दा ने ठण्डी सांस भर कर जवाब दिया है – आपका पूछना सही है। दरअसल मेरा घर बहुत छोटा है, एक ही कमरे का मकान। उसी में हमारे साथ रिश्ते का हमारा जवान देवर रहता है। मेरे पति शाम सात बजे तक ही आ पाते हैं लेकिन देवर सारा दिन घर पर रहता है। अब मैं कैसे बताऊं कि सारा दिन घर से बाहर रहने के लिये ही ये नौकरी कर रही हूं। बेशक इस नौकरी से मेरे हाथ में एक भी पैसा नहीं आता, फिर भी किसी तरह के दैहिक शोषण की आशंका से बची रहती हूं। न सही दैहिक शोषण का डर, सारा दिन उस निठल्ले की चाकरी तो नहीं बजानी पडती।

घर पर उनकी मौजूदगी में तो मैं घडी भर लेट कर कमर तक सीधी करने की कल्पना नहीं कर पाती।

2. एक और बीच का रास्ता

देवदत्त जी का अहमदाबाद तबादला हो गया है। बहुत परेशान हैं बेचारे। कभी अकेले रहे ही नहीं हैं। रहने खाने की तकलीफें हैं सो तो हैं ही, उनका पूरा जीवन अस्तव्यस्त हो गया है।

अब हर शनिवार की रात चलकर रविवार सवेरे पहुंचते हैं और उसी रात गाडी से लौट जाते हैं। नयी तैनाती का मामला है इसलिये छुट्टी भी नहीं ले सकते। पिछले पांच हफ्ते से यही कर रहे हैं।

देवदत्त जी की एक और समस्या है जो उन्हें लगातार पागल बनाये हुए है। वह है दैहिक सुख की। वे तडप रहे हैं। इधर – उधर मुंह मारने की कभी आदत नहीं रही है। इधर ट्रान्सफर ने सब गडबड क़र दिया है।

बेशक चालीस के होने आये, सोलह सत्रह साल का लडक़ा भी है लेकिन शादी के इतने बरसों बाद यह पहली बार हो रहा है कि वे पूरे पांच हफ्ते से हर रविवार घर आने के बावजूद इसके लिये मौका नहीं निकाल पाये हैं।

मौका निकालें भी कैसे? जब वे रविवार के दिन घर पहुंचते हैं, मुन्नु जग चुका होता है। फिर थोडा वक्त मुन्नू की पढाई के लिये देना होता है। अब एक ही कमरे का घर। मुन्नू को जबरदस्ती घर से ठेल भी नहीं सकते। अब मौका मिले तो कैसे मिले? उधर उनकी पत्नी की हालत भी कमोबेश वैसी है।

आखिर देवदत्त जी ने तरकीब भिडा ही ली है। अहमदाबाद से चलने से पहले उन्होंने फोन करके मुन्नू से कहा कि वह स्कूटर लेकर उन्हें बोरिवली स्टेसन पर लेने आ जाये और साउथ गेट की सीढियों के पास एस – 1 का डिब्बा जहां लगता है वहीं उनका इंतजार करे। कुछ सामान भी है उनके पास।

इधर बेचारा मुन्नू सवेरे – सवेरे अपनी नींद खराब करके बोरिवली स्टेशन पर खडा रहा। गाडी आई और चली भी गई लेकिन पापा एस – 1 तो क्या किसी भी डिब्बे से उतरते नजर नहीं आये।

जब तक वह थक हार कर आधा घण्टे बाद, जब घर पहुंचा तब तक देवदत्त जी एस – 10 से फटाफट उतर कर, दूसरे गेट से बाहर निकल कर, ऑटो से घर पहुंच कर किला फतह भी कर चुके थे।

3. अंदाज अपना – अपना

इनसे मिलिये। देवरे जी हैं। पूरा नाम शांताराम रघुनाथ देवरे। उम्र साठ साल और पांच महीने लेकिन लगते मुश्किल से चालीस – बयालीस के ही हैं।और यही सारी मुसीबत की जड है। सेहत एकदम फिट। उस पर सारे बाल मौजूद और एकदम घने – काले। चेहरे पर हर वक्त ताजग़ी और साथ में मारक मुस्कान। वैसे भले और मिलनसार हैं लेकिन चरित्र की गारंटी हम नहीं दे पायेंगे। आगे जो किस्सा है हम बयान कर रहे हैं उसी से आपको उनके चरित्र के बारे में भी पता चल जायेगा। हमारे ही ऑफिस में काम करते हैं। काम करते हैं कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि पांच महीने पहले रिटायर हो चुके हैं।

उनकी आशिक मिजाजी ज़गजाहिर है। शायद ही उनके जीवन में कभी कोई ऐसा दौर आया हो जब उनकी दो – चार प्रेमिकाएं न रही हों। घोषित भी और अघोषित भी। प्रेमिकाएं न भी रही हों तो भी उन्हें कोई मलाल नहीं होता। वे घर पर झाडू – पौंछा करने वाली लडक़ी पर भी उतना ही प्यार और उपहार न्यौछावर करते देखे जा सकते हैं जितने किसी और ठीक – ठाक प्रेमिका पर। पत्नी ने कितनी बार तो रंगे हाथों पकडा है। लेकिन देवरे जी को क्या परवाह!

अड़ोस पड़ोस में उनकी ख्याति का यह आलम है कि उनके दरवाजे से लगे दूसरे फ्लैट में रहने वाली ने उन्हें अपनी दहलीज लांघने से मना कर रखा है। जो कुछ कहना – सुनना है, मांगना – देना है, वो सब बीवी के जरिये करो। आप दहलीज पार नहीं करेंगे।

पत्नी उनकी टैलिफोन विभाग में काम करती है। दोनों बच्चों की शादी हो चुकी है और उन्हें नाना – दादा बने अरसा हो गया है। लडक़ा आजकल आयरलैण्ड में है।

तो बात यूं बनी या कि बिगड़ी क़ि वैसे तो उनकी पत्नी ने उनकी परवाह करना बन्द कर दिया है – कहीं जिये या मरे लेकिन जब उसे अपने ऑफिस से मोबाइल फोन मिला तो उसने सोचा कि वह पहला फोन देवरे को ही करे। उसने जब उसे अपने मोबाइल से उसके ऑफिस फोन मिलाया तो उसे बताया गया कि देवरे को रिटायर हुए तो पांच महीने होने को आये और रिटायरमेन्ट के बाद तो वह एक बार भी ऑफिस नहीं आया है उसका चमकना लाजमी था।

– लेकिन वह तो रोज सुबह टिफिन लेकर हमेशा की तरह मुझसे पहले ही निकलता है घर से।

– अब इस बारे में हम क्या कह सकते हैं, बल्कि हमारे यहां तो नये प्रोविजन के मुताबिक रिटायरमेन्ट की पार्टी में आजकल वाइफ को भी बुलाते हैं। आपके बारे में तो देवरे ने यही बताया था कि आप शहर में ही नहीं हैं।

– आपको पक्का यकीन है कि वो रिटायर हो गया है!

– क्या बात करती हैं मैडम। पूरे ऑफिस की मौजूदगी में उसकी फेयरवेल पार्टी हुई थी और उसे चांदी के गिलास भी दिये गये थे।

– ठीक है। थैंक्स। मेरी किस्मत में शायद यही लिखा था कि मेरे मोबाइल पर पहली खबर यही मिलेगी!

4. एक और अन्दाज अपना – अपना

वे एक वरिष्ठ कवि हैं। शहर में उनका नाम है। कई फिल्मों और भजनों के एल्बमों के लिये गीत लिख चुके हैं। उनकी अल्मारी कई तरह के सम्मान प्रतीकों से भरी पडी है। यहां तक पहुंचने के लिये उन्हें लम्बा संघर्ष करना पडा है।

पिछले साल एक पारिवारिक किस्म की संस्था ने उन्हें साहित्य – सेवा के लिये पुरस्कार दिया। यह संस्था उस किस्म की थी जिसके लिये इस तरह के पुरस्कार देना एक शगल की तरह था और उनके लिये पुरस्कार पाने वाले की कोई अहमियत नहीं थी। अहमियत थी उनकी जो इन पुरस्कारों को देने के बहाने मंच पर सवार होते थे। लेखक तो बेचारे सामने श्रोताओं में से उठ कर पुरस्कार लेने आते थे।

अब संकट यह हुआ कि इन कवि जी को दूसरा पुरस्कार दिया गया था जो कि सिर्फ पांच हजार का था। ग्यारह हजार का पहला पुरस्कार किसी गुमनाम शहर के गुमनाम किस्म के लेखक के हिस्से में आया था और संस्था के नियमों के अनुसार मंच से अपनी बात भी पहले पुरस्कार विजेता के रूप में उसी लेखक को कहनी थी।

कवि महोदय कसमसा रहे थे। यह साफ – साफ उनका और उनकी दीर्घ साहित्य – साधना का अपमान था। उन्हें अज्ञात शहर के अज्ञात लेखक से भी एक सीढी नीचे मान लिया गया था।

पुरस्कार तो वे खैर ले आये लेकिन दुखी मन से। अपनी व्यथा मित्रों के बीच अलग – अलग तरीके से व्यक्त कर ही चुके थे लेकिन मन पर रखा बोझ किसी तरह कम नहीं हो रहा था। यह पहली बार हो रहा था कि वे पुरस्कृत भी हुए, दुखी भी।

तभी गुजरात में भयंकर भूकंप आ गया जिस में हजारों लोगों की जान गयी। पूरी की पूरी बस्तियां तबाह हो गयीं। पूरे देश ने खुले हाथों से पीडित व्यक्तियों की मदद करनी शुरु कर दी।

कवि जी ने आव देखा न ताव, पुरस्कार में मिले पांच हजार रूपए भूकंप सहायता कोष में जमा करा दिये और शहर के सभी समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपवा दिया – कवि जी ने फलां संस्था से मिले दूसरे पुरस्कार की पांच हजार की राशि भूकंप सहायता कोष में दान कर दी।

सभी समाचार पत्रों में अपनी तस्वीर के साथ छपी आशय की खबर पढ क़र उनके सीने पर इतने दिनों से रखा पत्थर अब हट चुका था।

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