सारी यात्राएं सुख नहीं देतीं। कुछ ऐसी यात्राएं भी हमारे हिस्से में आ जाती हैं जिनकी टीस भुलाये नहीं भूलती। अरसे तक उनके जख्म हरे रहते हैं और हम उन्हें याद करते ही सिहर उठते हैं।
20 बरस पहले की पूर्वोत्तर राज्यों की यात्रा और उसी के साथ जुड़ी बर्मा की इकलौती यात्रा हमारे जीवन की एक ऐसी ही यात्रा है।
तब मेरा बड़ा बेटा 12 बरस का था और छोटा बेटा 6 बरस का। वे बहुत उत्साहित थे कि चेरापूंजी की यात्रा करेंगे, काजीरंगा में गैंडे देखेंगे और पूर्वोत्तर राज्यों के पर्वतीय सौंदर्य और ब्रह्मपुत्र नदी का विस्तार देखेंगे। हमारे शेड्यूल में कई शहर थे और अगर संभव हुआ तो नागालैंड भी। तब तक हमने बर्मा की यात्रा करने के बारे में सोचा भी नहीं था।
इस यात्रा की शुरुआत ही बहुत खराब तरीके से हुई थी। हमने एजेंट से टिकट खरीदे थे। बंबई एयरपोर्ट पहुंच कर पता चला कि उसने हमें जेट एयरलाइंस के हर सेक्टर ओपन टिकट दे दिए हैं और हमारे लिए किसी भी रूट की एक भी बुकिंग नहीं कराई गई है। तब विमान कंपनियां आज की तरह लूट कंपनियां नहीं हुई थीं। मेहरबानी करके हमें बंबई कोलकाता गुवाहाटी के टिकट तो दे दिये गये लेकिन बता भी दिया गया कि हमें हर शहर में जा कर पहला काम यही करना होगा कि जेट एयरवेज के बुकिंग आफिस जा कर अगली यात्रा की टिकट कन्फर्म करानी होंगी। एजेंट से तो हम वापसी पर ही निपटते, फिलहाल समस्या यह थी कि यात्रा कैसे जारी रखी जाये।
अब अपने रूट के सभी शहरों में पहुंच कर हमें पहला काम यही करना था कि साइट सीइंग शुरू करने से पहले जेट एयरवेज का बुकिंग आफिस खुलने का इंतजार करते, आगे की बुकिंग कराते और फिर समय बचता तो घूम फिर पाते।
अब हमारे पास समय था और कहीं भी जाने के कन्फर्म टिकट नहीं थे। एयरलाइंस ने मेहरबानी करके हमें गुवाहाटी से मणिपुर में इम्फाल आने जाने के टिकट दे दिये। हम इम्फाल पहुंचे थे और हमारे पास हमारे पास 4 दिन का भरपूर समय था।
इम्फाल से हम मोइरांग गये जहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजादी की अपनी मुहिम शुरू की थी। वहां से लोकतक झील भी गये जहां हमने पानी पर तैरते हुए खेत, गांव, झोपड़े सब देखे। इम्फाल में वह हाट बाजार भी देखा जहां कम से कम 500 महिलाएं दुकानदारी कर रही थी।
हमारे पास भरपूर समय था, हमारी इच्छा भी थी लेकिन जिस तरह से एक के बाद एक परेशानियां हमारे सामने आ रही थीं, हम चाह कर भी नागालैंड जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। अभी भी बर्मा जाने की बात हमारे मन में नहीं थी।
उस दिन 31 दिसंबर की शाम थी। हम आसपास घूम कर लौटे थे। उन इलाकों में शाम साढ़े चार बजे से ही अंधेरा घिरना शुरू हो जाता है। अभी पांच ही बजे थे कि होटल का वेटर हर दिन की तरह मीनू कार्ड लिए खड़ा आ हुआ और पूछने लगा – रात का खाना क्या खायेंगे। उसने बताया कि 6:30 बजे के बाद खाना नहीं मिलेगा। आप कल्पना कर सकते हैं कि 31 दिसंबर की रात 6:30 बजे खाना खाकर हम सो जाने वाले थे।
मणिपुर ड्राई स्टेट है लेकिन वेटर ने मेहरबानी करके मेरे लिए बीयर का इंतजाम कर दिया।
दिन में हमें यह बताया गया था कि हम वहां से 110 किलोमीटर दूर भारत बर्मा बार्डर के सीमावर्ती शहर मोरेह जा कर हम बर्मा जाकर लौट सकते हैं। चलो यही सही। पता चला कि सुबह के वक्त वहां जीपें और बसें जाती हैं लेकिन बस से यात्रा करना बेहतर रहेगा।
हम सुबह 6:30 बजे ही होटल से निकल लिये लेकिन मोरेह की तरफ जाने वाली बस आठ बजे चली और उसने 110 किलोमीटर की यात्रा लगभग 4 घंटे में पूरी की। पहाड़ी रास्ते अच्छे थे और दृश्य मनोरम इसलिए बच्चों का मन लगा रहा।
मोरेह पहुंच कर हमें बताया गया कि वहां से आप 10 रुपये का दैनिक वीजा लेकर बर्मा में प्रवेश कर सकते हैं। खाना आप बर्मा में ही खा लेना।
हम वीजा ले कर बर्मा के अंदर प्रवेश कर गए। टांगे में बैठकर बर्मा के सबसे निकट के शहर तक जा पहुंचे। यह शहर भी भारत की तरफ के किसी भी शहर की तरह था लेकिन इस साफ सुथरे और पुरानापन लिये शहर में सिर्फ और सिर्फ स्मग्लिंग का सामान, मसलन सजावटी सामान, इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्स , बेहद खूबसूरत नकली फूल और दूसरा सामान बेचने वाली दुकानें थीं। सारा सामान चीन का बना हुआ था। हमने सुबह 6:00 बजे से कुछ खाया नहीं था। बाजार में सब कुछ था लेकिन खाने का कोई होटल नहीं था। बहुत मुश्किल से हम दो एक बार जूस ही हासिल कर पाये। हमने जिंदगी में पहली बार बर्मा में नमकीन चॉकलेट खायी। खाने के नाम पर हम कुछ भी ऐसा नहीं पा सके जिससे अपनी भूख मिटा सकते। हमने भी उन बाजारों से थोड़ा बहुत सामान खरीदा। हमारा वीजा पांच बजे तक था। हमें हर हालत में अंधेरा होने से पहले लौटना भी था।
बर्मा के इस सीमावर्ती शहर से लौटते-लौटते बच्चों का थकान और भूख के मारे बुरा हाल था। हमारी कोशिश थी इस तरफ आकर हमें इम्फाल की आखरी बस मिल जाए लेकिन हमारी किस्मत खराब थी कि शाम के बाद कोई भी बस या जीप इम्फाल की तरफ नहीं जाती थी।
जब तक हम लौटे, अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था। इस तरफ भी कोई रेस्तरां नजर नहीं आया। पता चला कि पास में ही एक गुरुद्वारा है। हमें उम्मीद जगी कि शायद गुरुद्वारे में लंगर होता हो और शायद कुछ खाने को मिल जाए लेकिन गुरुद्वारे में हर दिन नहीं होता था। बहुत खोजने पर एक केरलाइट ढाबा मिला। बताया गया कि खाना बनने में कम से कम एक घंटा लगेगा। 7:00 बजे के करीब में खाने के लिए कुछ मिला। सुबह नाश्ते के बाद हम 12 घंटे बाद कुछ खा रहे थे। अब हम किसी ऐसे होटल की तलाश में निकले जहां रात बिता कर सुबह की पहली बस से वापस आ सकें। हालांकि हम रात ठहरने की तैयारी के साथ नहीं आए थे लेकिन कोई उपाय नहीं था। जैसे तैसे करके हमने होटल में रात बितानी थी।
भारत और बर्मा बार्डर का वह छोटा सा कस्बा मोरेह। वहां रात भर शोर होता रहा, खटपट होती रही। ऐसा लगता रहा कि बहुत सारे लोग रात भर काम कर रहे हैं। मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं कमरे से निकल कर बाहर आया। हमारा होटल सड़क पर ही था। मैं वहां का नज़ारा देख कर हैरान हो गया। सड़क पर बीसियों बसें खड़ी थी और उनमें कई लोग काम कर रहे थे। बॉर्डर से हाथ गाड़ियों में सामान लद कर उस पार से इस पार आ रहा था। कोई रोक-टोक नहीं थी। उस सामान को बसों में बनी गुप्त और खाली जगहों में छुपाया जा रहा था। कुछ सामान छतों पर चढ़ाया जा रहा था। इन सामानों में कंबल भी थे, इलेक्ट्रॉनिक आइटम थे और घरों में इस्तेमाल होने वाला सारा सामान था। उस तरफ से हथठेला आता था, दो मिनट में ही उसे खाली कर दिया जाता था और सारा सामान बस के अंदर गायब हो जाता था। हर बस में ड्राइवर और दूसरे लोग यही काम कर रहे थे। रात भर ये कारोबार चलता रहा। मैं देखकर हैरान था कि कितनी स्मग्लिंग खुलेआम हो रही है। मैं भारत नेपाल के नौतनवां और भैरवा बार्डर पर स्मग्लिंग का हाल देख चुका था। आप सामान नेपाल में भैरवा में खरीदें, भुगतान करें, 20 प्रतिशत अतिरिक्त धन दें और सामान गोरखपुर में आपके घर पहुंच जाया करता था।
यहां हमने कल वाली गलती दोबारा कर दी। नाश्ता करके वापसी के लिए जीप के बजाय दोबारा ठीक-ठाक लगने वाली एक बस में जा बैठे। बस ने अपनी यात्रा 7:00 बजे शुरू की और यहीं से हमारी यात्रा का सबसे कठिन चरण शुरू हुआ। उस 110 किलोमीटर की यात्रा में कुल 8 चेकपोस्ट थे। 4 पुलिस वालों के कंट्रोल में और 4 बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स के कब्जे में। हर 10 किलोमीटर के बाद चेक पोस्ट पर बस रुकती और पुलिस वाले या बॉर्डर सिक्योरिटी वाले स्क्रू ड्राइवर लेकर बस में चढ़ते और ज्ञात और अज्ञात सारी कैविटीज़ को खोल खोल कर देखते कि उनमें क्या-क्या सामान छुपाया गया है और भारत में लाया जा रहा है। हमें हर बार बस से उतार दिया जाता। हम देखकर हैरान थे कि बस में ऐसी ऐसी जगहों पर सामान छुपाया गया था जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। ऊपर नीचे कई गुप्त खाने बनाये गये थे। इस गुप्त कंदराओं से सारा सामान निकाला जाता। बहस होती, सौदेबाजी होती और सामान को दोबारा गुप्त जगहों पर छुपा दिया जाता। 110 किलोमीटर की यात्रा में यह प्रक्रिया 8 बार दोहराई गई। हर बार स्क्रू ड्राइवर अपना काम करते, सामान बाहर निकाला जाता और वापिस रखा जाता। इतना ही नहीं, हर पैसेंजर के व्यक्तिगत सामान की जांच की जाती कि कहीं ऐसा सामान तो नहीं ला रहे हैं जिसकी अनुमति नहीं है। हद तो तब हो गई जब मेरी पत्नी का पर्स खोल कर दवाइयों तक की जांच की गई। एक पुलिस वाले ने तो गोलियां चख कर देखीं कि कहीं ड्रग्स तो नहीं ला रहे हैं। पता चला कि बर्मा के रास्ते ड्रग्स और हथियार न लाये जायें इसलिए करने के लिए ही यह सारा नाटक किया जाता है। बाकी सारा सामान एक तरह की आड़ थी। सारा सामान लेनदेन के हिसाब से भारत में लाया जा रहा था। इसका मुझे तब पता चला जब एक चुंगी पर एक महिला अधिकारी के हाथ में मैंने वह पर्ची देख ली जिस पर अब तक की वहां से गुजरी बरसों से वसूल की गई राशि का हिसाब किताब लिखा गया था। महिला पुलिस अधिकारी मेरे आगे खड़ी थी और उसने दोनों हाथ पीछे किए हुए थे। उसके एक हाथ में पेन था और दूसरे हाथ में कुछ कागज थे जिन पर बस के बस का नंबर और उसके सामने वह राशि लिखी हुई थी जो उसने बस के मालिक की या ड्राइवर से वसूल की थी। उस पर्ची से पता चला कि हमसे पहले 8 गाड़ियां जा चुकी थीं और हर बस ये 4000 और 5000 रुपये के बीच राशि ली गयी थी।
आंकड़े खतरनाक थे। अगर बीस बसें भी गुजरें तो दिन भर में हर चुंगी पर कम से कम एक लाख की वसूली और ऐसी आठ चुंगियां हैं। बार्डर से माल पार करने के रेट अलग होंगे। इसका मतलब यह हुआ कि एक बस वाला एक ही दिन में पैंतीस से चालीस हजार के बीच रिश्वत दे रहा है तो उसकी भरपाई के लिए कितना सामान बस में भर कर ला रहा होगा।
वापसी की यह 110 किलोमीटर की यात्रा हमने 11 घंटे में पूरी की। यह दूसरा दिन था जब हमें पूरा दिन भूखे पेट रहना पड़ा था। हम 2 दिन की थकान भरी यात्रा से इतना थक चुके थे होटल के कमरे से निकल ही नहीं पाए थे। बेशक हमने नागालैंड या अरुणांचल प्रदेश जाने के बारे में सोच सकते थे और हमारे पास समय भी था लेकिन बर्मा के अनुभव के बाद हमारी हिम्मत ही नहीं हुई कि हम किसी और शहर या किसी और प्रदेश यात्रा कर सकें । बर्मा के उस सीमावर्ती शहर में मैंने एक और बात देखी थी कि वहां पर जितने भी दुकानदार थे वे भारतीय थे, इस तरफ के थे और अच्छी खासी हिंदी बोल रहे थे। इसका मतलब चाहे इस पार हों या उस पार वही लोग दोनों तरफ से सारा का सारा कारोबार ऑपरेट कर रहे थे। हालांकि मैंने बहुत सारे देशों की लंबी लंबी यात्राएं की हैं, बर्मा की इस एक दिन की यात्रा ने मुझे भीतर तक दिला दिया था। बीस बरस बाद भी उसके आतंक से मुक्त नहीं हो पाया हूं।
सूरज प्रकाश
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