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महानगर की कथाएं - भाग 3
Story

महानगर की कथाएं – भाग 3

9. विकल्पहीन

वे बहुत सारे हैं। अलग अलग उम्र के लेकिन लगभग सभी रिटायर्ड या अपना सब कुछ बच्चों को सौंप कर दीन दुनिया से, सांसारिक दायित्वों से मुक्त। सवेरे दस बजते न बजते वे धीरे–धीरे आ जुटते हैं यहाँ और सारा दिन यहीं गुजारते हैं। मुंबई के एक बहुत ही सम्पन्न उपनगर भयंदर में स्टेशन के बाहर, वेस्ट की तरफ। रेलवे ट्रैक के किनारे गिट्टी पत्थरों के ढेर पर उनकी महफिल जमती है और दिन भर जमी ही रहती है। यहाँ अखबार पढ़े जाते हैं, समाचारों पर बहस होती है, सुख दुख सुने सुनाये जाते हैं और मिल जुल कर जितनी भी जुट पाये, दो चार बार चाय पी जाती है, पत्ते खेले जाते हैं और शायरों के दामों में उतार चढ़ावों पर, अकेले दुकेले बूढ़ों की हत्या पर, बलात्कार के मामलों और राजनैतिक उठापटक पर चिंता व्यक्त की जाती है। सिर्फ बरसात के दिनों में या तेज गर्मी के दिनों में व्यवधान होता है उन लोगों के बैठने में।

कंकरीट के इस जंगल में कोई पार्क, हरा भरा पेड़ या कुंए की कोई जगत नहीं है, नहीं तो यह चौपाल वहीं जमती। वे दिन भर आती जाती ट्रेनों को देखते रहते हैं और इस तरह से अपना वक्त गुजारते हैं। शाम ढ़लने पर वे एक–एक करके जाने लगते हैं। एक बार फिर यहाँ पर लौट कर आने के लिए।

उनके दिन इसी तरह से गुजर रहे हैं। आगे भी उन्हें यहीं बैठकर इसी तरह से पत्ते खेलते हुए बातें करते हुए और मिल जुल कर कटिंग चाय पीते हुए दिन गुजारने हैं।

ये बूढ़े, सब के सब बूढ़े अच्छे घरों से आते हैं और सबके अपने घर–बार हैं। बरसों बरस आपने सारे के सारे दिन यहाँ स्टेशन के बाहर, रेलवे की रोड़ी की ढ़ेरी पर आम तौर पर धूप बरसात या खराब मौसम की परवाह न करते हुए बिताने के पीछे एक नहीं कई वजहें हैं।

किसी का घर इतना छोटा है कि अगर वे दिन भर घर पर ही जमे रहें तो बहू बेटियों को नहाने तक ही तकलीफ हो जाये। मजबूरन उन्हें बाहर आना ही पड़ता है ताकि बहू बेटियों की परदेदारी बनी रहे। किसी का बेशक घर बड़ा है लेकिन उसमें रहने वालों के दिल बहुत छोटे हैं और उनमें इतनी सी भी जगह नहीं बची है कि घर के ये बुजुर्ग, जिन्होंने अपना सारा जीवन उनके लिए होम कर दिया और आज उनके बच्चे किसी न किसी इज्जतदार काम धंधे से लगे हुए हैं, उनके लिए अब इतनी भी जगह नहीं बची है कि वे आराम से अपने घर पर ही रह कर, पोतों के साथ खेलते हुए, सुख दुख के दिन आराम से गुजार सके। गुंजाइश ही नहीं बची है, इसलिए रोज रोज की किच किच से बचने के लिए यहाँ चले आते हैं। यहाँ तो सब उन जैसे ही तो हैं। किसी से भी कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।
बेशक वे आपस में नहीं जानते कि कौन कहाँ रहता है, कइयों के तो पूरे नाम भी नहीं मालूम होते उन्हें, लेकिन फिर भी सब ठीक ठाक चलता रहता है।

बस, संकट एक ही है। अगर उनमें से कोई अचानक आना बंद कर दे तो बाकी लोगों को सच्चाई का पता भी नहीं चल पाता।

बेशक थोड़े दिन बाद कोई नया बूढ़ा आ कर उस ग्रुप में शामिल हो जाता है।

भयंदर में ही रहने वाले मेरे मार्क्सवादी दोस्त हृदयेश मयंक इसे पूंजीवादी व्यवस्था की देन मानते हैं जहाँ किसी भी अनुत्पादक व्यक्ति या वस्तु का यही हश्र होता है – कूड़े का ढेर। दोस्त की दोस्त जानें लेकिन सच यही है कि इस देश के हर घर में एक अदद बूढ़ा है जो समाज से, जीवन से, परिवार से और अपने आसपास की दुनिया से पूरी तरह रिटायर कर दिया गया है और वह अपने आखिरी दिन अपने शहर में सड़क या रेल की पटरी के किनारे पत्थर–गिट्टियों पर बैठ कर बिताने को मजबूर है।

10. धरम करम

वे अपने शहर के जाने माने डॉक्टर हैं। मरीजों की उन पर अपार श्रद्धा है। उनके इलाज पर भी और उनकी निष्‍ठा पर भी लेकिन उनकी अपनी श्रद्धा का आधार बिंदु शहर के एक संत जी हैं। वे अपनी सफलता को संत जी के आशीर्वाद का ही का फल मानते हैं। वे संत जी के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। पिछले कई बरसों से अपनी आय का 10 प्रतिशत नियमित रूप से संत जी के आश्रम को दे रहे हैं। इसमें कभी कोई चूक नहीं होती।

आश्रम से संत जी का बुलावा आया है। वे अपने आश्रम का विस्‍तार करना चाहते हैं। अतिरिक्‍त धन की ज़रूरत पड़ेगी। अपने सभी भक्‍तों से कह रहे हैं।

डॉक्‍टर साहब ने हामी भर दी है। कल से अपनी आमदनी का बीस प्रतिशत दिया करेंगे।

उन्‍होंने आज से ही अपनी फीस बीस प्रतिशत बढ़ा दी है। पहले 500 रुपये फीस थी। दस प्रतिशत आश्रम को देने के बाद उनके पास 450 बचते थे। अब फीस बढ़ा देने पर आश्रम को बीस प्रतिशत देने के बाद भी उनके पास 480 रुपये प्रति मरीज बचेंगे।

11. तेरा बाप मेरा बाप

मनोज बहुत परेशान हैं। भाई का फोन आया है सुबह सुबह ही कि बाबू जी बहुत बीमार हैं। मामला सीरियस है। बेशक अस्‍पताल में भर्ती कर दिया है लेकिन वे अकेले नहीं संभाल पा रहे। मनोज को कुछ दिन की छुट्टी ले कर जल्‍दी बुलवाया है।

मनोज ने अपनी परेशानी सुमन मेमसाहब को बतायी है। सुन कर सुमन मेमसाहब के हाथ-पांव अलग से फूल गये हैं। कुछ दिन के लिए तो क्‍या, कुछ घंटों के लिए भी मनोज की गैर-हाजरी का कल्‍पना नहीं कर सकतीं। सब कुछ उलट-पुलट हो जायेगा।

मनोज फोन पर खबर मिलने के समय से ही हैरान परेशान बैठा है। जब से इस नौकरी पर लगा है तीन बरस से, एक बार भी अपने घर नहीं जा पाया है। बड़े भाई की शादी पर भी। भाई को एक नन्‍हीं बच्‍ची का पिता बने भी डेढ़ बरस होने को आया लेकिन उसने अब तक अपनी भौजी को भी नहीं देखा है। मनोज कैसे भी करके आज ही निकल जाना चाहता है। जोधपुर से अपने शहर सीवान जाने में ही ढाई दिन लग जायेंगे। फिर टिकट मिलने का संकट अलग से। पता नहीं वहां कितने दिन रुकना पड़े। रिजर्वेशन के बिना भी चला जाये लेकिन उसकी जिस किस्‍म की नौकरी है, सुमन मेमसाहब उसे कुछ घंटों के लिए छोड़ने के लिए दस तरह के बहाने लगाती हैं। कब से वह जोधपुर से दो घंटे की दूरी पर काम कर रहे अपने मामा से मिलने भी नहीं जा सका है। हर बार वही रोना कि तेरे बिना पापा को कौन देखेगा।

मेहता साहब मनोज से कभी सीधे बात नहीं करते, सारे संवाद सुमन मेमसाहब के जरिये ही होते हैं लेकिन आज उन्‍होंने खुद ही मनोज से सारी बात पूछी है। ये भी पूछा है कि क्‍या बाबू जी की तबीयत ज्‍यादा ही खराब है। पैसे भेजने के काम चल जायेगा क्‍या। क्‍या थोड़े दिन बाद जाने से चलेगा। अब मनोज की जगह किसी भरोसे के आदमी का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा। जितनी जल्‍दी हो जाये, उतनी जल्‍दी वह जा सकेगा। अलबत्‍ता मेहता साहब दुकान जाते-जाते इतना वादा जरूर कर गये हैं कि वे आज ही अपने सभी परिचितों से किसी मेल नर्स का इंतजाम करने के लिए कहेंगे। मेमसाहब भी अपनी किटी पार्टी की सारी सहेलियों से पूछेंगी। बात करेंगी। कोर्इ न कोई समाधान खोजेंगी। बस, मनोज इतना समय जरूर दे दे।

मनोज को सूझ नहीं रहा कि मेहता साहब के सवालों का क्‍या जवाब दे। अगर आज कल में किसी भरोसे के आदमी का इंतजाम न हुआ और इस बीच बाबू जी को कुछ हो गया तो वह अपने घर पर क्‍या मुंह दिखायेगा। आखिर पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता। बेशक वह अपने घर से हजारों मील दूर रोटी के लिए यहां तक चला आया था, लेकिन तब क्‍या पता था कि स्थितियां ऐसे मोड़ लेंगी कि वह यहीं का हो कर रह जायेगा और अब जब बाबूजी को सचमुच उसकी जरूरत है, वह मेहता साहब के पिता की देखभाल के चक्‍कर में अपने पिता को देखने नहीं जा पायेगा।

पहले मनोज मेहता साहब की दुकान पर ही काम करता था।

उसके जिम्‍मे सारे काम थे। सफाई से ले कर बाहर के सारे काम। तभी मेहता साहब के पिता जी को पारकिन्‍सन की बीमारी हुई। वे बिस्‍तर पर पड़ गये। पहले स्‍टाप गैप के रूप में मनोज को घर पर लाया गया और देखते ही देखते सीनियर मेहता मनोज पर पूरी तरह निर्भर होते चले गये। अब तो उन्‍हें उठाने लिटाने से कर लैट्रीन ले जाने, नहलाने-धुलाने की सारी जिम्‍मेवारी मनोज की ही है। जब सीनियर मेहता सो रहे होते हैं तो मनोज को पूरे घर की सफाई भी करनी होती है और वक्‍त जरूरत सुमन मैडम का किचन में भी हाथ बंटाना होता है। मेहता साहब खुद कभी सीनियर मेहता के कमरे में नहीं झांकते, आपस में दोनों को बात किये हुए भी कई कई दिन बीत जाते हैं। साथ वाले बंगले में मेहता साहब के बड़े भाई रहते हैं लेकिन मज़ाल है, वे या उनकी पत्‍नी कभी गेट खोल कर अंदर ही आये हों।

बेशक दुकान की नौकरी के समय मनोज की पगार 2000 रुपये थी जो अब ढाई बरस में ही बढ़कर आठ हजार रुपये हो गयी है। होली दिवाली पर कपड़े और नकद या मोबाइल का खर्च अलग से। ये सब उसे इसलिए नहीं दिये जाते कि इस दो तीन बरसों में वह बहुत ज्‍यादा मेहनत का काम करने लगा है। पगार बढ़ने का सीधा गणित उसके यहां मौजूद होने से है। घरेलू नौकर के रूप में इतनी पगार की वह कहीं और कल्‍पना भी नहीं कर सकता। मेमसाहब जानती हैं कि मनोज ने जहां नौकरी छोड़ी, ससुर साहब की हग्‍गी मुत्‍ती उन्‍हें ही साफ करनी पड़ेगी। इसलिए वे गाहे बगाहे किटी पार्टी में जीती ताश की गड्डी की कमाई से उसे पांच सात सौ रुपये ऊपर से पकड़ाती रहती हैं। शर्त बस, यही है कि जब तक सीनियर मेहता यहां हैं और इस हालत में हैं, मनोज उन्‍हें छोड़ कर नहीं जा सकता।

मिस्‍टर और मिसेज मेहता बेशक इस समय टेम्‍परेरी आदमी की तलाश कर ही रहे हैं, लेकिन आधे मन से। कोई भी आदमी 500 रुपये रोजाना से कम पर आने को तैयार नहीं। उन्‍हें ये भी डर है कि टेम्‍परेरी आदमी मनोज के वापिस आने तक टिकेगा भी या नहीं। ये भी डर उन्‍हें सता रहा है कि कहीं मनोज अपने गांव से वापिस ही नहीं लौटा तो उनके बाप को कौन देखेगा।

12. वैक्यूम

21वीं शताब्दी के आगमन के उपलक्ष्य में हमारे कार्यालय ने भी अपना योगदान दिया और इस योजना की पहली किस्त के रूप में सफाई के लिए एक वैक्यूम क्लीनर खरीदा गया। दफ्तर के बाबू और दफ्तरी बहुत ख़ुश थे कि अब उन्हे पुरानी फाइलों के अंबार में से अपने काम की फाइलें तलाशते समय धूल से अपने हाथ, मुँह और कपड़े गंदे नहीं करने पड़ेगे। बड़े बाबू खुश थे कि अब साहब उन्हें सुबह-सुबह अपने केबिन में बुलाकर अपनी मेज़ पर उँगली फिराकर धूल की परत नहीं दिखा पाएँगे। वैक्यूम क्लीनर से उनका केबिन चकाचक रहेगा।

वैक्यूम क्लीनर आया। सबने देखा, सराहा। अब तक पत्रिकाओं और कैटेलॉगों में देखा था, आज साक्षात देख लिया। कम्पनी का आदमी खुद आकर पूरे स्टाफ के सामने डिमांस्ट्रेट कर गया।

अगले दिन सबने देखा, ऑफिस की सफाई झाडू से ही की गई है। सफाई वालों को तलब किया गया। उन्होंने साफ इंकार कर दिया, ”चूंकि यह झाडू नहीं है और उनकी ड्यूटी में सिर्फ झाडू से ही सफाई करना शामिल है, अत: वे इसे हाथ नही लगाएँगे। जाते-जाते वे यह सलाह दे गए – यह बिजली का है, इसे बिजली-मिस्त्री ही चला सकता है।

बिजली-मिस्त्री को बुलवाया गया। वह सुनते ही बिदका, “मेरा काम बिजली की बिगड़ी चीजों को दुरूस्त करने का है उन्हे चलाने का नहीं”। वह भी मार्गदर्शन दे गया, “इसे पंप ऑपरेटर से चलाए तो बेहतर”। पंप ऑपरेटर ने भी मना कर दिया-“है तो झाडू ही, क्या हुआ जो बिजली का है। यह मेरा काम कतई नहीं”। जाते-जाते कह गया- “इसके लिए तो बड़े बाबू आप सरकार को लिखकर एक ठो रोबोट मँगवा लें”।

नतीजा यह हुआ कि अतिरिक्त भत्ते के लालच और अनुशासनात्मक कार्रवाई की धमकी दिए जाने के बावजूद उसे किसी ने हाथ नहीं लगाया। वैक्यूम क्लीनर आज भी गोदाम में एक कोने मे पड़ा धूल खा रहा है।

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