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महानगर की कथाएं - भाग 4
Story

महानगर की कथाएं – भाग 4

13. विकल्प

वह भिखारन थी। होश सँभालते ही उसने भीख माँगना शुरू कर दिया था। भीख माँगते समय उसे हर किस्म के ताने सुनने पड़ते थे, गालियाँ सुननी पड़ती थी, पर पेट की भूख और बरसों से भीख माँगने की आदत के आगे उसने कुछ न जाना था। रोज की तरह वह आज भी भीख माँगने निकली। एक पनवाड़ी की दुकान पर खड़े नौजवान के आगे उसने भीख के लिये हाथ बढाया। नौजवान ने उसके फटे चीथड़ों मे झाँकते उसके सुडौल बदन को आँखो-ही-आँखो मे तौला। आँख मारते हुए उसने व्यंग्य कसा, ”अरी, क्यों पाँच-पाँच दस-दस पैसे के लिये अपनी जवानी बरबाद कर रही है। जा, किसी कोठे पर बैठ जा। सौ-पचास रोज़ कमाएगी। कहे तो पहला ग्राहक मै ही बन जाऊँ।“ यह कहकर उसने उसे पाँच का नया नोट दिखाया।

वह वेश्या थी। उसे खुद पता नहीं, कब से धंधा करती आ रही थी। उसे तो इतना पता है, रात भर देह नुचवाने के बाद उसे जो मिलता है, उससे न तो उसका कल सुधरा था, न आज ही सुधरा है। आने वाला कल तो उसने जाना ही न था।

अब वह बूढ़ी हो चली थी। कई दिन कोई ग्राहक न फँसता। रोशनी में तो कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं। अँधेरे मे अगर कोई नशेड़ी-गँजेड़ी फँस जाता तो वह सँभाल न पाती।

एक दिन बड़ी मुश्किल से अँधेरे मे एक ग्राहक पटाया। अभी ग्राहक ने उसके बदन पर हाथ फेरना शुरू ही किया था कि वह चौंका। जेब से माचिस निकाली और उसके बाद उसके चेहरे पर रोशनी डाली। उसका चेहरा देखते ही बिदका और अपने कपड़े झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ-“साली, रंडियों के पेशे को बदनाम करती है…अब कुछ नहीं रहा तो भीख माँग ले…” और तभी अँधेरे मे एक सिक्का ज़मीन पर गिरने की आवाज आई।

14. चट्टे-बट्टे

मेरा एक दोस्त यहाँ अपनी कम्पनी के क्षेत्रीय कार्यालय का ऑडिट करने के लिए टीम लेकर आया हुआ है। वैसे तो वह कम्पनी के नियमानुसार अपनी टीम के साथ एक अच्छे होटल में ठहरा है, लेकिन शामें और छुट्टियाँ हमारे साथ ही बिताता है। बहुत पुराने सम्बन्ध हैं हमारे। हमें भी अच्छा लगता है।

अक्सर वह ऑडिट में पकड़ी गई ख़ामियों और हेराफेरियों के बारे में बतलाता रहता है। ढेरों किस्से होते हैं उसके पास कि किस तरह कर्मचारियों ने फर्ज़ी बिल बनाकर कम्पनी और सरकार को लाखों का चूना लगाने का धंधा बना रखा है। मसलन, कई-कई लोग एलटीसी पर जाते ही नहीं और गली-मुहल्लों मे खुली ट्रेवल एजेंसियों से दस-पन्द्रह परसेंट पर फर्ज़ी रसीदें ले लेते हैं। वह बता रहा था कि इन एजेंसियों का यह आलम है कि उन्होंने एक ही तारीख मे एक ही बस की दो अलग-अलग दिशाओं की ट्रिप की रसीदें काट रखी हैं। एक मामले में एक कर्मचारी ने अपने सत्तर वर्षीय पिता को ग्यारह दिन में दिन में बस से आठ हजार किमी की यात्रा करते दिखाया है तो दूसरे ने त्रिवेन्द्रम से कोट्टयम की दूरी 500 किमी दिखाई है। इतना ही नहीं, कई मामलों मे चपरासियों ने बिना एडवांस लिए दस हज़ार रुपये तक के बिल जमा कराये हैं। बिल चार हजार का पास हुआ तो भी परवाह नहीं, कई लोगों ने उसी दिन या एक दिन पहले बुकिंग करवाकर लम्बी यात्राएँ की हैं। ट्रांसफर पर समान शिफ्ट करने, मैडिकल क्लेम करने या सवारी भत्ता के लिए पैट्रोल बिलों की भी यही हालत है। दफ्तर के ही किसी आदमी की ट्रांसपोर्ट कम्पनी है। वह पन्द्रह परसेंट पर इतना पक्का बिल बनाकर देता है कि आप लाल पैंसिल फेर ही नहीं पाते। एक अधिकारी की कार उसके शहर मे टैक्सी के रूप मे चल रही है, लेकिन सवारी भत्ता के लिए वह पैट्रोल बिल, मरम्मत के बिल यहीं के दे रहा है। वह बता रहा था कि इतने घपले है यहाँ कि पता नहीं दस परसेंट बिल भी सच्चे हैं, यह पता नहीं चल सकता। लोग सरकार को चूना लगाने के लिए नित नये तरीके अपनाते रहते है। उसका बस चले तो सबको लाइन में खड़ा करके गोली मार दे।

दीपावली की छुट्टियाँ आ रही हैं। बड़ी अजीब किस्म की छुट्टियाँ हैं। तीन पहले और दो बाद में, बीच में काम के तीन दिन। इन तीन दिनों की भी छुट्टी ले ली जाए तो पूरे आठ दिन मिलते हैं।

मैने दोस्त से पूछा, “क्या करेंगे? घर कैसे जाओगे?”

वह तपाक से बोला, “पूरे आठ दिन के लिए घर जाएँगे।”

“लेकिन तुम तो टूर पर हो, छुट्टी लोगे तो हाल्टिंग अलाउंस वगैरह? और स्टेशन छोड़ना।”

“वह कोई मुश्किल काम नहीं। मै तीन दिन का मेडिकल दे दूंगा। बताऊँगा मैं यहीं था, तो अलाउंस कहीं नहीं गया। होटल छोड़ दूँगा। एक अटैची ही तो है। होटल वाला सिर्फ टैक्स लेकर इन आठ दिनों का भी बिल दे देगा। तीन-चार हजार बन जायेंगे। दीवाली है। बच्चों के कपड़े-लत्ते….”

मै अवाक रह गया। अब समझ आया, वह ऑफिस के पास इतने अच्छे होटलों के होते हुए भी पूरे दस किमी दूर एक होटल मे क्यों ठहरा हुआ था। इस तरह वह रोज के टैक्सी के बीस किमी के पैसे अपने बिल में जोड़ सकता था।

15. कमीशन

उस दफ्तर में ज्वाइन करते ही मुझे वहाँ के सब तौर तरीके बता दिए गये थे। मसलन एक हजार से पाँच हजार रूपये तक के मामलों में कितना लेना होता है और उससे बड़े मामलों मे कितना लेना है। यह रकम किस-किसके बीच किस अनुपात में बाँटी जानी है, ये सारी बातें समझा दी गई थीं। किस पार्टी से सावधान रहना है और किन पाटिर्यों की फाइलें दबाकर बैठना है, ये सारे सूत्र मुझे रटा दिये गए। मै डर रहा था, ये सब मै कैसे कर पाऊँगा। अगर कहीं पकड़ा गया या परिचितों, यार दोस्तों ने यह बात कहीं सरेआम कह दी तो! लेकिन भीतर ही कहीं खुश भी था कि उपर की आमदनी वाली नौकरी है। खूब गुलछर्रे उड़ाएँगे।

इधर पिताजी अलग खुश थे कि लड़का सेल्स टैक्स में लग गया है, हर साल इस महकमे को जो चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है, उससे तो बचेंगे।

सब कुछ ठीक ठाक चलने लगा था। मै वहाँ के सारे दाँव पेच सीख गया था। बेशर्मी से मैं भी उस तालाब में नंगा हो गया था और पूरी मुस्तैदी से अपना और अपने उपर वालों का घर भरने लगा था। तभी पिताजी ने अपनी दुकान की सेल्स टैक्स की फाइल मुझे दी ताकि केस क्लियर किया जा सके। हालाँकि उनका केस मुझे ही डील करना था, लेकिन मेरे साथी और अफसर कहीं इसका गलत अर्थ न ले लें, मैंने वह फाइल अपने साथी को थमा दी और सारी बात बता दी। जब उसने केस अन्दर भेजा तो उसे बुलावा आया। वह जब केबिन से निकला तो उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। बहुत पूछने पर उसने सिर्फ इतना कहा कि बॉस ने केस क्लीयर तो कर दिया है पर यह पूछ रहे थे कि क्या यह केस सचमुच तुम्हारे पिताजी का है या यूँ ही पूरा कमीशन अकेले खाने के लिये उसे बाप बना लिया है।

16. एकता का जन्म

बहू को दर्द उठा है। सबके हाथ-पाँव फूल गए हैं। कैसे ले जाएँ इस समय अस्पताल। चारों तरफ मार-काट मची हुई है। चप्पे- चप्पे पे आग। दंगाइयों के दल लूट-पाट करते,कत्ल करते घूम रहे हैं। घर से निकलना, एकदम नामुमकिन। इधर जितनी देर होगी उतना रिस्क बढ़ता जाएगा।

रोना-धोना सुनकर पड़ोसन जागती है। स्थिति भाँपती है। किसी तरह गली-गली बचते-बचाते शकील मियाँ के घर पहुँचती है। दंगों के चक्कर में कई दिन से ऑटो खड़ा है। फाँके हो रहे हैं। वह सारी बात शकील मियाँ को बताती है। वे तुरन्त खड़े होते हैं- चलो मेरे साथ।

पाँच ही मिनटों बाद उनका ऑटो मरीज और दो औरतों को लेकर अस्पताल की तरफ जा रहा है।

दंगाइयों की भीड़ ऑटो रोक लेती है। मुसलमान ड्राइवर को देखते ही बाहर घसीट लिया जाता है।

शकील मियाँ चिल्लाते हैं – ‘मैं मुसलमान। मुझे बेशक रोक लो, लेकिन इस हिन्दू बहन को जल्द अस्पताल पहुँचाओ। इसकी जान खतरे में है। दंगाइयों के हाथ रुक जाते हैं।

शकील मियाँ ऑटो में ‍बिठा दिए जाते हैं। उनके ऑटो के साथ ही दसियों लोग चल पड़ते हैं।

अस्पताल पहुँचते ही वह एक खूबसूरत बच्ची को जन्म देती है।

तुरंत बच्ची का नामकरण कर दिया जाता है — एकता।

17. उसके खिलौने

सात-आठ की उम्र होगी उसकी। साथ वाले प्लॉट पर इमारत बननी शुरू हुई है, वहाँ मजदूरों ने अपनी झोपड़ियाँ-सी खड़ी कर रखी हैं। उन्हीं में से किसी मजदूरिन की बेटी है। आते-जाते अक्सर दिख जाती है। मिट्टी, कंकड़-पत्थरों और एक टूटी हुई गुड़िया से अकेली खेलती हुई। कपड़े मैले-कुचैले, बाल उलझे और चेहरे पर ढेर सारा गर्द-गुबार। इसके बावजूद उसके चेहरे पर गज़ब का आकर्षण और भोलापन है।

कई बार वह गेट से टिकी हमारे कॉलोनी में लगे झूलों पर बच्चों को खेलता देखती रहती है, लेकिन वॉचमैन हर बार उसे दुत्कार कर भगा देता है। न जाने क्यों उसे देखते ही प्यार करने को जी चाहता है, लेकिन हर बार संकोचवश रह जाता हूँ। काश! वह भी साफ-सुथरी रहती और कॉलोनी के बच्चों के साथ खेल सकती।

बाज़ार से उसके लिए एक अच्छी-सी गुड़िया और चाकलेट लाता हूँ और उसे अपने पास बुलाकर देता हूँ। उसे विश्वास नहीं होता, खिलौने उसे ही दिए जा रहे हैं। हिचकिचाती है। नहीं लेती। ज़बरदस्ती उसे थमा देता हूँ। वह अपने हाथों में यह अदभुत उपहार लिए ठिठकी रह जाती है।

उसे विस्मित-सा छोड़ संतुष्ट होकर घर लौट आता हूँ। थोड़ी देर बाद दसवीं मंज़िल पर बने अपने घर की बाल्कनी से नीचे झाँकता हूँ। गेट के बाहर वॉचमैन ने उसे मज़बूती से बाँह थाम रखा है और गुड़िया छीन ली है। हाव-भाव से यही लगता है जैसे पूछ रहा हो, ’अन्दर कैसे आई और ये गुड़िया, चाकलेट किससे छीनकर ले जा रही है?’ लड़की कुछ बताना चाह रही है, पर उसे मेरा घर नहीं पता, कुछ नहीं बता पाती। रूआँसी-सी खड़ी है। वॉचमैन ने उससे सब कुछ छीनकर उसे गेट के बाहर धकेल दिया है। वह वापस मिट्टी के ढेर की तरफ जा रही है, जहाँ कुछ देर पहले वह खेल रही थी। कंकड़-पत्थरों से।

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