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Home Reference Language & Essay Sakhuntakiya
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Sakhuntakiya
by Namwar Singh
4.3
4.3 out of 5
Creators
AuthorNamwar Singh
PublisherVani Prakashan
EditorVijay Prakash Singh
Synopsisकर्तव्य की दिशा। मुझे साहित्य-क्षेत्र में चुनाव नहीं जीतना है जो फड़कता घोषणा-पत्र तैयार कर दूँ। अपनी सीमाओं से अपरिचित नहीं हूँ। जीवन-संघर्ष में बिना कूदे पोथियों के बल अधिक दिन तक कविता न लिखी जायेगी। काग़ज़ की नाव सागर में न चलेगी-बँधे तालाब में भले ही गाजे। जन-आन्दोलन से उठे हुए ताज़े कच्चे भाव तथा ताज़ी कच्ची भाषा ही नये साहित्य में मूर्तिमान होगी। उसी आग में पिघल पर पोथियों का ज्ञान नये रूप में ढलेगा। मुझे इतनी तुकबन्दी के बाद भी कवि-केवल कवि रूप में पैदा होने और जीवित रहने का मुगालता नहीं है। गद्य या पद्य जिस किसी भी माध्यम से मेरा अभिप्रेत फूट निकलना चाहेगा, फूटेगा। इस जन-संघर्ष में मानवता के हमराहियों को बल देने के लिए अपने को निःशेष करना ही सूझ रहा है। दूसरा कोई रास्ता नहीं। बात बड़ी चाहिए, माध्यम स्वयं उसका आकार और महिमा पा लेगा। साफ़ दिख गया है कि गद्य लिखने से कविता को नयी ताक़त मिलती है अन्यथा अपना सारा वक्तव्य एक कविता में भरने से दोनों की हानि होती है। हमारे कई साथी आज कल यही कर रहे हैं। यदि मुझे अपने वक्तव्य को कविता के चौखटे में काटना पड़ेगा तो वह चौखटा छोड़ दूँगा लेकिन वक्तव्य को पुरानी चीनी नारी का पाँव न बनाऊँगा। पाब्लो नेरूदा और जाफ़री को पढ़ने के बाद भी अभी नहीं लिखा कि कहीं उनका उपहास न हो उठे। हमेशा की तरह आज भी कविता को गँदला करने की अपेक्षा कविता न रचने का साहस है। साथियों के उपहास की उतनी चिन्ता नहीं जितनी आत्म-उपहास की-अपने लक्ष्य के प्रति उपहास की। काशी विश्वविद्यालय नामवर सिंह 6 जनवरी, '52 इसी पुस्तक से