Synopsisनिर्मल वर्मा के निबन्ध-संग्रहों के सिलसिले में कला का जोखिम उनकी दूसरी पुस्तक है, जिसका पहला संस्करण लगभग बीस साल पहले आया था। स्वयं निर्मलजी इस पुस्तक को अपने पहले निबन्ध-संग्रह शब्द और स्मृति तथा बाद वाले ढलान से उतरते हुए शीर्षक संग्रह के बीच की कड़ी मानते हैं जो इन दोनों पुस्तकों में व्यक्त चिन्ताओं को आपस में जोड़ती है। निर्मल वर्मा के चिन्तक का मूल सरोकार ‘आधुनिक सभ्यता में कला के स्थान’ को लेकर रहा है। मूल्यों के स्तर पर कला, सभ्यता के यांत्रिक विकास में मनुष्य को साबुत, सजीव और संघर्षशील बनाये रखनेवाली भावात्मक ऊर्जा है, किन्तु इस युग का विशिष्ट अभिशाप यह है कि जहाँ कला एक तरफ मनुष्य के कार्य-कलाप से विलगित हो गयी, वहाँ दूसरी तरफ वह एक स्वायत्त सत्ता भी नहीं बन सकी है, जो स्वयं मनुष्य की खण्डित अवस्था को अपनी स्वतन्त्रा गरिमा से अनुप्राणित कर सके। साहित्य और विविध देश-कालगत सन्दर्भों से जुडे़ ये निबन्ध लेखक की इसी मूल पीड़ा से हमें अवगत कराते हैं। अपनी ही फेंकी हुई कमन्दों में जकड़ी जा रही सभ्यता में कला की स्वायत्तता का प्रश्न ही 'कला का जोखिम' है और साथ ही ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि ‘वही आज रचनात्मक क्रान्ति की मूल चिन्ता का विषय’ बन गया है। इन निबन्धों के रूप में इस चिन्ता से जुड़ने का अर्थ एक विधेय सोच से जुड़ना है और कला एक ज़्यादा स्वाधीन इकाई के रूप में प्रतिष्ठित हो सके, उसके लिए पर्याप्त ताकत जुटाना भी।
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Binding: PaperBack
About the author
निर्मल वर्मा (3 अप्रैल 1929 - 25 अक्तूबर 2005 ) हिन्दी के आधुनिक कथाकारों में एक मूर्धन्य कथाकार और पत्रकार थे। शिमला में जन्मे निर्मल वर्मा को मूर्तिदेवी पुरस्कार(1995 ), साहित्य अकादमी पुरस्कार (1985 ) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। परिंदे (1958 ) से प्रसिद्धि पाने वाले निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ समझी जाती हैं। ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा विभाग में एक उच्च पदाधिकारी श्री नंद कुमार वर्मा के घर जन्म लेने वाले आठ भाई बहनों में से पांचवें निर्मल वर्मा की संवेदनात्मक बुनावट पर हिमांचल की पहाड़ी छायाएं दूर तक पहचानी जा सकती हैं।
हिन्दी कहानी में आधुनिक-बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का अग्रणी स्थान है। उन्होंने कहानी की प्रचलित कला में तो संशोधन किया ही, प्रत्यक्ष यथार्थ को भेदकर उसके भीतर पहुंचने का भी प्रयत्न किया है। ‘रात का रिपोर्टर’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘लाल टीन की छत’ और ‘वे दिन’ निर्मल वर्मा के चर्चित उपन्यास है। उनका अंतिम उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ 1990 में प्रकाशित हुआ था। उनकी सौ से अधिक कहानियाँ कई कहानी संग्रहों में प्रकाशित हुई। 1958 में ‘परिंदे’ कहानी से प्रसिद्धी पाने वाले निर्मल वर्मा ने ‘धुंध से उठती धुन’ और ‘चीड़ों पर चाँदनी’ यात्रा वृतांत भी लिखे, जिसने उनकी लेखन विधा को नये मायने दिए।
1959 से 1972 के बीच उन्हें यूरोप प्रवास का अवसर मिला। वह प्राग विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या संस्थान में सात साल तक रहे। उनकी कहानी ‘माया दर्पण’ पर 1973 में फ़िल्म बनी जिसे सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्म का पुरस्कार मिला।
वे इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज़ (शिमला) के फेलो (1973), निराला सृजनपीठ भोपाल (1981-83) और यशपाल सृजनपीठ (शिमला) के अध्यक्ष रहे। 1988 में इंग्लैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का संग्रह 'द वर्ल्ड एल्सव्हेयर' प्रकाशित हुआ। इसी समय बीबीसी द्वार उन पर एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म भी प्रसारित हुई।