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Poem

फिरोज़ी होठ / धर्मवीर भारती

बरबाद मेरी ज़िन्दगी
इन फिरोज़ी होठों पर

गुलाबी पाँखुरी पर हल्की सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर
इन फिरोज़ी होठों पर

तुम्हारे स्पर्श की बादल-धुली कचनार नरमाई
तुम्हारे वक्ष की जादू भरी मदहोश गरमाई
तुम्हारी चितवनों में नर्गिसों की पाँत शरमाई
किसी की मोल पर मैं आज अपने को लुटा सकता
सिखाने को कहा
मुझसे प्रणय के देवताओं ने
तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब-सा इन्द्रधनुषी स्वाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद !

अन्धेरी रात में खिलते हुए बेले-सरीखा मन
मृणालों की मुलायम बाँह ने सीखी नहीं उलझन
सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप जैसा तन
पँखुरियों पर भँवर-सा मन टूटता जाता
मुझे तो वासना का
विष हमेशा बन गया अमृत
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद !

गुनाहों से कभी मैली पड़ी बेदाग तरुणाई —
सितारों की जलन से बादलों पर आँच कब आई
न चन्दा को कभी व्यापी अमा की घोस कजराई
बड़ा मासूम होता है गुनाहों का समर्पण भी
हमेशा आदमी
मजबूर होकर लौट आता है
जहाँ हर मुक्ति के, हर त्याग के, हर साधना के बाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद !

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