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बुलाए जाने की पीड़ा
Memoirs

बुलाए जाने की पीड़ा

शहर में आए दिन साहित्यिक और गैर साहित्यिक जमावड़े होते ही रहते हैं। शुरू-शुरू में मुझे बहुत तकलीफ होती थी कि मुझे किसी ऐसे आयोजन के लिए बुलावा क्यों नहीं आता। मैं बैठा कुढ़ता रहता कि देखो, सारा शहर साहित्य के धवल ताल में तैरने का आनन्द उठा रहा है और मैं घर पर बैठा हुआ सुपर हिट मुकाबला में इस सप्ताह के दस बाटम गीत झेल रहा हूँ। मुझे सोच-सोचकर रोना आता कि मैं ही इस शहर के साहित्यकारों में इतना गया-गुजरा हूँ कि कोई मुझे बुलावा ही नहीं भेजता। वहाँ सभी आए होंगे। एक-दूसरे से गिले-शिकवे किए जा रहे होंगे। कई-कई दिन तक न मिल पाने की मजबूरियाँ बयान की जा रही होंगी। इन्हीं जमावड़ों के बहाने नये-पुराने सम्बन्ध बन-बिगड़ रहे होंगे। कोई किसी को अपनी नयी किताब की प्रति भेंट कर रहा होगा, तो किसी के हाथ समीक्षा के लिए महँगी किताबों का सेट आ गया होगा। ऐसी बैठकों, सभाओं में ही तो सम्पादक अचानक सामने नज़र आ जाने वाले रचनाकारों से पत्रिका के आगामी विशेषांकों के लिए रचना माँगते हैं। कभी साहित्य के कीड़ों से कटवाये किसी धन्ना सेठ से वहाँ मुलाकात हो जाये तो पुरस्कार, स्मारिका का संपादन या इसी तरह का कोई भी डौल बिठाया जा सकता है। 

लेकिन यह सब तो तब होता है अब आप वहाँ मौजूद हों। और मौजूद तो तब होंगे जब कोई आपको इस लायक समझे। यही मेरी स्थायी पीड़ा बरसों-बरस रही। मैं तरसता रहा और साहित्य तथा साहित्य के बहाने साहित्यकार आगे बढ़ते रहे। मैं टापता रहा। वंचित होता रहा। मैं किसी से शिकायत करता तो यही सुनने को मिलता कि अरे, आपको निमंत्रण-पत्र नहीं मिला। क्या बतायें आजकल की डाक का। और भी कई लोग बता रहे थे न्यौता नहीं मिला उन्हें । मेरा फोन भी खराब था पिछले दिनों। अब मैं इतना गया-गुजरा तो नहीं कि कहीं भी सिर्फ अखबार में छपी सूचना के सहारे पहुँचता रहूँ। अगर निमंत्रण-पत्र छपवाए और बाँटे गए हैं तो मेरा भी तो हक बनता है।

वैसे मैं कुछ ऐसे कवियों को जानता हूँ कि जो हमेशा बिन बुलाये रचना पाठ के लिए पहुँचते रहे हैं। कभी दुत्कारे गए तो कभी धुप्पल में रचना पाठ भी करते रहे। वे कार्यक्रम में पहुँचते ही पर्चीबाज़ी शुरू कर देते, मैं आ गया हूँ। रचना पाठ के लिए बुलवाइये। एकाध बार जब पता चला कि मिलने वाला लिफाफा काफी मोटा है तो आमंत्रित कवियों के बीच घुसे-घुसे मंच पर जा विराजे । एकाध बार मंच से उतारे भी गए तो भी उनकी सेहत पर क्या असर पड़ता। आज भी वे कविता पाठ के लिए बिना बुलाए ही जाते हैं।

हमारे एक और वरिष्ठ रचनाकार मित्र हैं। बहुत ही दुरूह किस्म की कविता करते हैं। एक बार उनकी पत्नी के ही कार्यालय में कवि-सम्मेलन था। पत्नी ने उन्हें जानबूझ कर नहीं बुलवाया था। लेकिन वे न केवल पहुंचे, बल्कि मंच पर जाकर उस रचनाकार की कुर्सी पर भी जा बैठे जो उस वक्त माइक पर कविता पढ़ रहा था। बाद में कवि-पत्नी ने बैठने की व्यवस्था देख रहे अधिकारियों को आड़े हाथों लिया था कि आपने इनको भीतर आने कैसे दिया।

इधर मुझे साहित्यिक आयोजनों के न्योते मिलने लगे हैं। पहले न बुलाये जाने पर सिर्फ दुखी था, अब बुलाये जाने पर न केवल दुखी हूँ बल्कि जी चाहता है यह शहर ही छोड़कर चला जाऊँ। अब आये दिन न्यौते आते हैं। कभी किसी भवन-निर्माता का कविता पाठ होता है तो किसी दिन पता चलता है कि हिन्दी विभागाध्यक्ष ने विभाग में किसी सुनार कवि का कविता पाठ रखा है क्योंकि अगले महीने उनकी लड़की की शादी है। कभी गलती से ऐसे किसी आयोजन में भी जाओ तो लोगों का व्यवहार इतना अधिक संसदीय हो जाता है कि हमारे संसद सदस्यों को लाज लगे। हर आदमी बोलना चाहता है। सुनने तो कोई आया ही नहीं होता वहाँ। अगर आयोजन किसी महाविद्यालय में हुआ तो संचालन करने वाली प्राध्यापिका आमंत्रित रचनाकारों को भी अपना विद्यार्थी मानकर चलते हुए सत्र संचालन करती है। वहाँ का माहौल इतना खिचड़ी हो जाता है कि विद्यार्थी एक तरफ होते हैं जिन्हें मजबूरी में बैठना होता है और सुनाने वालों की आपसी छीछालेदर से ही फुर्सत नहीं होती। और अगर कहीं प्रायोजित किस्म की गोष्ठी हुई तो पर्चा पढ़ने वाले समीक्षक कवि या कहानीकार को कबीर और प्रेमचंद की पाँत में बिठाने से भी गुरेज़ नहीं करते। बस, सारा मामला इस बात पर निर्भर करता है कि इसके बदले तू मेरे लिए क्या करेगा। 

पूरे शहर की साहित्यिक गतिविधियों का ठेका कुछेक लोगों ने ही अरसे से सँभाल रखा है। वे ही उसे किसी तरह जिलाये हुए हैं, वर्ना अब जिस दिन डाक में मेरे लिए किसी आयोजन का न्यौता नहीं आता, वह दिन मेरे लिए बहुत सुकून भरा होता है।

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