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Shabdon Ka Safar : Vol.-1
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Shabdon Ka Safar : Vol.-1

by Ajit Wadnerkar
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Creators
Author Ajit Wadnerkar
Publisher Rajkamal Prakashan
Synopsis अजित वडनेरकर का विस्तृत विवेचन कतिपय शब्दों के इन्हीं जन्मसूत्रों की तलाश है। यह तलाश भारोपीय परिवार के व्यापक पटल पर की गई है, जो पूर्व में भारत से लेकर पश्चिम में यूरोपीय देशों तक व्याप्त है। इतना ही नहीं, अपनी खोज में उन्होंने सेमेटिक परिवार का दरवाज़ा भी खटखटाया और ज़रूरत पड़ने पर चीनी एकाक्षर परिवार की देहलीज़ को भी स्पर्श किया। उनका सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने शब्दों के माध्यम से एक अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी का धरातल तैयार किया, जिस पर विभिन्न देशों के निवासी अपनी भाषाओं के शब्दों में ध्वनि और अर्थ की विरासत सँजोकर एक साथ खड़े हो सकें। पूर्व और पश्चिम को अब तक ऐसी ही किसी साझा धरातल की तलाश थी। व्युत्पत्ति-विज्ञानी विवेच्य शब्द तक ही अपने को सीमित रखता है। वह शब्द के मूल तक पहुँचकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है। अजित वडनेरकर के व्युत्पत्ति-विश्लेषण का दायरा बहुत व्यापक है। वे भाषाविज्ञान की समस्त शाखाओं का आधार लेकर ध्वन्यात्मक परिणमन और अर्थान्तर की क्रमिक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए शब्द के विकास की सारी सम्भावनाओं तक पहुँचते हैं। उन्होंने आवश्यकतानुसार धर्म, इतिहास, समाजशास्त्र, नृतत्त्वशास्त्र आदि के अन्तर्तत्त्वों को कभी आधारभूत सामग्री के रूप में, तो कहीं मापदंडों के रूप में इस्तेमाल किया। उनकी एक विशिष्ट शैली है। अजित वडनेरकर के इस विवेचन में विश्वकोश-लेखन की झलक मिलती है। उन्होंने एक शब्द के प्रिज़्म में सम्बन्धित विभिन्न देशों के इतिहास और उनकी जातीय संस्कृति की बहुरंगी झलक दिखलाई है। यह विश्वकोश लेखन का एक लक्षण है कि किसी शब्द या संज्ञा को उसके समस्त संज्ञात सन्दर्भों के साथ निरूपित किया जाए। अजि वडनेरकर ने इस लक्षण को तरह देते हुए व्याख्येय शब्दों को यथोचित ऐतिहासिक भूमिका और सामाजिक परिदृश्य में, सभी सम्भव कोणों के साथ संदर्शित किया है। ग्रन्थ में शब्दों के चयन का रेंज बहुत व्यापक है। जीवन के प्रायः हर कार्य-क्षेत्र तक लेखक की खोजी दृष्टि पहुँची है। तिल से लेकर तिलोत्तमा तक, जनपद से लेकर राष्ट्र तक, सिपाही से लेकर सम्राट् तक, वरुण से लेकर बूरनेई तक, और भी यहाँ से वहाँ तक, जहाँ कहीं उन्हें लगा कि किन्हीं शब्दों के जन्मसूत्र दूर-दूर तक बिखर गए हैं, उन्होंने इन शब्दों को अपने विदग्ध अन्वीक्षण के दायरे में समेट लिया और उन बिखरे सूत्रों के बीच यथोचित तर्कणा के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश की। यह सम्पूर्ण कार्य मूलतः व्युत्पत्तिविज्ञान से सम्बन्धित है, किन्तु अपने आकलन में लेखक ने भाषाविज्ञान की अन्य शाखाओं का आधार भी ग्रहण किया है। अन्तःअनुशासनात्मक अध्ययन के इस युग में किसी भी विषय का पृथकतः अनुशीलन न तो सम्भव है और न ही उचित भी। इसीलिए अजित वडनेरकर ने कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्ष रूप से ध्वनि, रूप, वाक्य, अर्थ आदि से सम्बन्धित भाषाशास्त्रीय नियमों, प्रवृत्तियों और दिशाओं का यथास्थान उपयोग किया है। भले ही उन्होंने भाषाविज्ञान की विधियों और प्रविधियों के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट की हो, किन्तु उनका कथन ‘कवित विवेक एक नहीं मोरे’ की तर्ज़ पर उनकी विनम्रता का ही द्योतन है, अन्यथा ध्वनियों, पदों और शब्दों का विकास दिखलाते समय उन्होंने भाषाविज्ञान के नियमों, मानकों और प्रतिमानों का जो हवाला दिया है, उससे उनकी विचक्षणता और विदग्धता का स्वतः ही परिचय मिल जाता है। विज्ञान के नियम सार्वकालिक और सार्वदेशिक होते हैं। उनकी तुलना में भाषाविज्ञान के नियम काल, देश और पात्र सापेक्ष होते हैं। उनमें लचीलापन होता है और पर्याप्त अपवादीय स्थितियाँ मिलती हैं। फिर भी अजित वडनेरकर ने भरसक कोशिश की है कि शब्दों की रचना और उनके विकास की प्रवृत्तियों में एक सर्वमान्य संगत व्यवस्था दिखाई जा सके।

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Binding: HardBack
About the author
Specifications
  • Language: Hindi
  • Publisher: Rajkamal Prakashan
  • Pages: 460
  • Binding: HardBack
  • ISBN: 9788126719884
  • Category: Language & Essay
  • Related Category: Arts / Humanities
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