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Home Literature Poetry Samundra Par Ho Rahi Hai Barish
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Samundra Par Ho Rahi Hai Barish
by Naresh Saxena
4.4
4.4 out of 5
Creators
AuthorNaresh Saxena
PublisherRajkamal Prakashan
Synopsisएक अद्वितीय तत्त्व हमें नरेश सक्सेना की कविता में दिखाई पड़ता है जो शायद समस्त भारतीय कविता में दुर्लभ है .और वह है मानव और प्रकृति के बीच लगभग संपूर्ण तादात्म्य-और यहाँ प्रकृति से अभिप्राय किसी रूमानी, ऐंद्रिक शरण्य नहीं बल्कि पृथ्वी सहित सारे ब्रह्मांड का है, वे सारी वस्तुएँ हैं जिनसे मानव निर्मित होता है और वे भी जिन्हें वह निर्मित करता है । मुक्तिबोध के बाद की हिंदी कविता यदि 'वसुधैव कुटुंबकम्' को नये अर्थों में अभिव्यक्त कर रही है तो उसके पीछे नरेश सरीखी , प्रतिभा? का योगदान अनन्य है । धरती को माता कह देना सुपरिचित' है किंतु नरेश उसके अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ प्रदक्षिणा करने तथा उसके शरीर के भीतर के ताप, आर्द्रता, दबाव, रत्नों और हीरों से रूपक रचते हुए उसे पहले पृथ्वी-स्त्री संबोधित करते हैं । वे यह मूलभूत पार्थिव तथ्य भी नहीं भूलते कि आदमी कुछ प्राथमिक तत्त्वों से बना है- मानव-शरीर की निर्मिति में जल, लोहा, पारा, चूना, कोयला सब लगते हैं । 'पहचान सरीखी मार्मिक कविता में कवि फलों, फूलों और हरियाली में अपने अंतिम बार लौटने का चित्र खींचता है जो 'पंचतत्त्वों में विलीन होने' का ही एक पर्याय है ।
नरेश यह किसी अध्यात्म या आधिभौतिकी से नहीं लेते-वे शायद हिंदी के पहले कवि हैं जिन्होंने अपने अर्जित वैज्ञानिक ज्ञान को मानवीय एवं प्रतिबद्ध सृजन-धर्म में ढाल लिया है और इस जटिल प्रक्रिया में उन्होंने न तो विज्ञान को सरलीकृत किया है और न कविता को गरिष्ठ बनाया है । यांत्रिकी उनका अध्यवसाय और व्यवसाय रही है और नरेश ने नवगीतकार के रूप में अपनी प्रारंभिक लोकप्रियता को तजते हुए धातु-युग की उस कठोर कविता को घेरा जिसके प्रमुख अवयव लोहा, क्रांकीट और मनुष्य-शक्ति हैं । एक दृष्टि से वे मुक्तिबोध के बाद शायद सबसे ठोस और घनत्वपूर्ण कवि हैं और उनकी रचनाओं में खून, पसीना, नमक, ईट, गारा बार-बार लौटते हैं । दूसरी ओर उनकी कविता में पर्यावरण की कोई सीमा नहीं है । वह भौतिक से होता हुआ सामाजिक और निजी विश्व को भी समेट लेता है । हिंदी कविता में पर्यावरण को लेकर इतनी सजगता और स्नेह बहुत कम कवियों के पास है । वितान, तकनीकी, प्रकृति और पर्यावरण से गहरे सरोकारों के बावजूद नरेश सक्सेना की कविता कुछ अपूर्ण ही रहती यदि उसके केंद्र में असंदिग्ध मानव- प्रतिबद्धता, जिजीविषा और संघर्षशीलता न होतीं 1 वे ऐसी ईटें चाहते हैं जिनकी रंगत हो सुर्ख-बोलियों में धातुओं की खनक-ऐसी कि सात ईटें बुन लें तो जलतरंग बजने लगे और
जो घर उनसे बने उसे जाना जाये थोड़े से प्रेम थोड़े से त्याग और
थोड़े से साहस के लिए किंतु वे यह भी जानते हैं कि उन्हें ढोने
वाली मजदूरिन और उसके परिवार के लिए वे ईटें क्या-क्या हो
सकती हैं । जब वे दावा करते हैं कि दुनिया के नमक और लोहे में
हमारा भी हिस्सा है तो उन्हें यह जिम्मेदारी भी याद आती है कि
फिर दुनियाभर में बहते हुए खून और पसीने में-हमारा मी
हिस्सा होना चाहिए? पत्थरों से लदे ट्रक में सोये या बेहोश पड़े
आदमी को वे जानते हैं जिसने गिट्टियाँ नहीं अपनी हडि्डयाँ
तोड़ी है/और हिसाब गिट्टियों का भी नहीं पाया । उधर
हिंदुत्ववादी फासिस्ट ताकतों द्वारा बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर
उनकी छोटी-सी कविता-जो इस शर्मनाक कुकृत्य पर हिंदी की
शायद सर्वश्रेष्ठ रचना है-अत्यंत साहस से दुहरी धर्मांधता पर
प्रहार करती है : इतिहास के छत से भ्रमों में से/एक यह भी
है-कि महमूद गजनवी लौट गया था/लौटा नहीं क्ष वह/यहीं । था/सैकड़ों बरस बाद अचानक/वह प्रकट हुआ अयोध्या
में/सोमनाथ में उसने किया था/अल्लाह का काम तमाम/इस बार. उसका नारा था/जय श्री राम?
टीएस. एलिअट ने कहीं कुछ ऐसा कहा है कि जब कोई प्रतिभा या पुस्तक साहित्य की परंपरा में शामिल होती है तो अपना
स्थान पाने की प्रक्रिया में वह उस पूरे सिलसिले के अनुक्रम को
न्यूनाधिक बदलती है-वह पहले जैसा नहीं रह पाता-और ऐसे. हर नये पदार्पण के बाद यह होता चलता है । नरेश सक्सेना के
साथ जटिल समस्या यह है कि यद्यपि वे पिछले चार दशकों से
पाठकों और श्रोताओं में सुविख्यात हैं और सारे अच्छे-विशेषत: युवा-कवि उन्हें बहुत चाहते हैं किंतु अपना पहला संग्रह वे हिंदी
को उस उम्र में दे रहे हैं जब अधिकांश कवि (कई तो उससे भी '- कम आयु मे) या तो चुक गये होते हैं या अपनी ही जुगाली करने
पर विवश होते हैं । अब जबकि नरेश के कवि-कर्म की पहली,
ठोस और मुकम्मिल किस्त हमें उपलब्ध है तो पता चलता है कि
वे लंबी दौड़ के उस ताकतवर फेफड़ोंवाले किंतु विनम्र धावक की
तरह अचानक एक वेग-विस्फोट में आगे आ गये हैं जिसके
मैदान में बने रहने को अब तक कुछ रियायत, अभिभावकत्व,
कुतूहल और किंचित् परिहास से देखा जा रहा था । उनकी जल
की बूँद जैसी अमुखर रचनाधर्मिता ने आखिरकार हिंदी की
शिलाओं पर अपना हस्ताक्षर छोडू दिया है और काव्येतिहास के
पुनरीक्षण को उसी तरह लाजिमी बना डाला है जैसे हमारे
देखते-देखते मुक्तिबोध और शमशेर ने बना दिया था ।
विश्व खरे