SynopsisDelhi, 1947. The city surges with Partition refugees. Eager to escape the welter
of pain and confusion that surrounds her, young Krishna applies on a whim to a
position at a preschool in the princely state of Sirohi, itself on the cusp of
transitioning into the republic of India. She is greeted on arrival with
condescension for her refugee status, and treated with sexist disdain by Zutshi
Sahib, the man charged with hiring for the position. Undaunted, Krishna fights
back. But when an opportunity to become governess to the child maharaja Tej
Singh Bahadur presents itself-and with it a chance to make Sirohi her new home
once and for all-there is no telling how long this idyll will last.
Part novel, part memoir, part feminist anthem, A Gujarat Here, A Gujarat There
is not only a powerful tale of Partition loss and dislocation but also charts the
odyssey of a spirited young woman determined to build a new identity for herself
on her own terms.
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Binding: HardBack
About the author
भारतीय साहित्य के परि: श्य पर हिन्दी की विश्वसनीय उपस्थिति के साथ कृष्णा सोबती अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं। कम लिखने को वे अपना परिचय मानती हैं, जिसे स्पष्ट इस तरह किया जा सकता है कि उनका ‘कम लिखना’ दरअसल ‘विशिष्ट’ लिखना है।
किसी युग में किसी भी भाषा में एक-दो लेखक ही ऐसे होते हैं जिनकी रचनाएँ साहित्य और समाज में घटना की तरह प्रकट होती हैं और अपनी भावात्मक ऊर्जा और कलात्मक उत्तेजना के लिए एक प्रबुद्ध पाठक वर्ग को लगातार आश्वस्त करती हैं।
कृष्णा सोबती ने अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में हर नई कृति के साथ अपनी क्षमताओं का अतिक्रमण किया है। ‘निकष’ में विशेष कृति के रूप में प्रकाशित ‘डार से बिछुड़ी’ से लेकर ‘मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरजमुखी अँधेरे के’, ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘दिलो-दानिश’, ‘हम हशमत’, ‘समय सरगम’, ‘शब्दों के आलोक में’, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘सोबती-वैद संवाद’, और ‘लद्दाख: बुद्ध का कमंडल’ तक उनकी रचनात्मकता ने जो बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें साहित्य-संसार में पैदा की हैं, उनकी अनुगूँज पाठकों में बराबर बनी रही है।
कृष्णा सोबती ने हिन्दी की कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है। उनके भाषा-संस्कार के घनत्व, जीवन्त प्रांजलता और सम्प्रेषण ने हमारे समय के अनेक पेचीदा सच आलोकित किए हैं। उनके रचना-संसार की गहरी सघन ऐन्द्रियता, तराश और लेखकीय अस्मिता ने एक बड़े पाठक वर्ग को अपनी ओर आकृष्ट किया है। निश्चय ही कृष्णा सोबती ने हिन्दी के आधुनिक लेखन के प्रति पाठकों में एक नया भरोसा पैदा किया है। अपने समकालीनों और आगे की पीढ़ियों को मानवीय स्वातंत्रय और नैतिक उन्मुक्तता के लिए प्रभावित और प्रेरित किया है। निज के प्रति सचेत और समाज के प्रति चैतन्य किया है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार और उसकी महत्तर सदस्यता के अतिरिक्त, अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों और अलंकरणों से शोभित कृष्णा सोबती साहित्य की समग्रता में अपने को साधारणता की मर्यादा में एक छोटी-सी कलम का पर्याय ही मानती हैं। समय को लाँघ जानेवाला लेखन ऐसे लेखन से कहीं अधिक बड़ा होना चाहिए: साहित्य को जीने और समझनेवाले हर आस्थावान व्यक्ति की तरह यह निर्मल और निर्मम सत्य उनके सामने हमेशा उजागर रहता है।