एक शुक्लाष्टमी रात का वक़्त है नहीं है यह बहुत मुमकिन है कि जो देख रहा हूँ वह स्वप्न हो कोई दुस्वप्न-सा पर वक़्त नहीं है रात का देखो साफ़ दिख रहा है आसमान में सूरज जैसे किसी लाश की…
एक शुक्लाष्टमी रात का वक़्त है नहीं है यह बहुत मुमकिन है कि जो देख रहा हूँ वह स्वप्न हो कोई दुस्वप्न-सा पर वक़्त नहीं है रात का देखो साफ़ दिख रहा है आसमान में सूरज जैसे किसी लाश की…
मैं बंबई में था तलवारों और लाठियों से बचता-बचाता भागता-चीख़ता जानवरों की तरह पिटा और उन्हीं की तरह ट्रेन के डिब्बों में लदा-फँदा सन् साठ में मद्रासी था, नब्बे में मुसलमान और उसके बाद से बिहारी हुआ मैं कश्मीर में…
आज की उम्र पूरी हो गई है चाँद की नींद की भी उम्र होती है बस सपने हैं जिन्होंने आब-ए-ज़मज़म चखने का गुनाह किया है और अश्वस्थामा की तरह भटक रहे हैं घायल न नींद का कोई दिन मुअइय्यन है…
एक रौशनी शराब में पड़ी बर्फ़-सी पिघल रही है जुलाई की उमस भरी गीली सुबह-सी उदास तुम्हारी आँखों में पिघल रहा है कोई अक्स डॉली की पेंटिंग से रंग सोख लिए हों किसी ने जैसे उदासी की बेंच पर बैठे…
धूल भरी हवा उठती है तुम्हारे क़दमों के एकदम क़रीब से एक समंदर धुँधला-सा निकल गया है छूते तुम्हें किसी पेड़ ने अपनी पत्तियाँ गिरा कहा है कुछ तुमसे रौशनी का एक उदास क़तरा उलझे बालों में ठहर गया है…
एक मुसलसल यात्रा के बीच मिली बापरवाह नींद में भी सपने आते हैं सारी वजूहात हैं अवसाद में डूब जाने की सारी वजूहात है तुम्हें आख़िरी सलाम कर चुपचाप कोई तीसरी क़सम खा लेने की सारी वजूहात हैं मौत से…
एक पहाड़ों पर बर्फ़ के धब्बे बचे हैं ज़मीन पर लहू के मैं पहाड़ों के क़रीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता दो जिससे मिलता हूँ हँस…
एक चाँद पर भी कितनी धूल है तुम रूमाल लाई हो न मीनाक्षी ये आँसू नहीं है धूल पड़ गई है आँखों में मैंने चश्मे सारे छोड़ दिए बिस्तर पर ही और आँखें लिए चला आया मना तो किया था…
एक इस जंगल में एक मोर था आसमान से बादलों का संदेशा भी आ जाता तो ऐसे झूम के नाचता कि धरती के पेट में बल पड़ जाते अंखुआने लगते खेत पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर और नदियों…