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Story

बार नवापारा जहां पशु सौर ऊर्जा से पानी पीते हैं

इस बार आनंद हर्षुल और मनोज रूपड़ा के निमंत्रण पर पहली बार कथा विमर्श में रायपुर जाना हुआ। 16 से 21 जनवरी 2009। लम्‍बी ट्रेन यात्रा के हौवे और वहां के सर्दी के मौसम के डर ने कई दिन तक असमंजस में बनाये रखा कि जाऊं या न जाऊं, लेकिन कुछ नये पुराने रचनाकारों से मिलने और कुछ नयी जगहें देखने की चाहत ने आखिर फ्लाइट टिकट के लिए प्रेरित किया। पुणे से नागपुर की फ्लाइट और नागपुर से रायपुर सुबह की ट्रेन। नागपुर में मनोज के घर पर रात गुजारने के बाद मनोज, मैं बसंत त्रिपाठी और राकेश मिश्र पाँच घंटे की सुखद ट्रेन यात्रा के बाद जब तक रायपुर पहुंचते, कार्यक्रम शुरू हो चुका था। दुर्घटना के बाद मैं पहली बार इतनी लम्‍बी ट्रेन यात्रा कर रहा था लेकिन सीट कन्‍फर्म होने और डिब्‍बे में ज्‍यादा भीड़ न होने के कारण ज्‍यादा तकलीफ नहीं हुई। वैसे भी कई बरसों से ट्रेन यात्राएं छूटी हुई ही हैं।

हम चारों साहित्‍य और साहित्‍यकारों के आस पास ही बात करते रहे, हँसते रहे और यात्रा का आनंद लेते रहे। रास्‍ते में दुर्ग से मनोज के अनुरोध पर उसके बचपन के दोस्‍त हेमंत भी हमसे आ मिला। बेचारे को दो दिन की यात्रा के लायक कपड़े और सामान जुटाने का मौका भी न मिला। ट्रेन आ पहुंची और हेमंत टिकट की लाइन में खड़ा था। मनोज ने उसे बिना टिकट ही बुला लिया।

कार्यक्रम स्‍थल पर पहुंचे तो मंच पर काशीनाथ सिंह जी अपना वक्‍तव्‍य दे रहे थे। मुझे देखते ही अपना वक्‍तव्‍य बीच में रोक कर मेरा स्‍वागत किया और सबको मेरे आगमन की सूचना दे डाली। अच्‍छा भी लगा कि मंच से इतना बड़ा रचनाकार मुझे देखते ही अपना भाषण बीच में रोक कर इस तरह से आत्‍मीयता से मेरा नाम ले कर मुझे मान दे रहा है और साथ ही अपने आप पर अफसोस भी हुआ कि इतने बरस के लेखन के बाद भी मैं क्‍यों नहीं साहित्यिक भाषण कला विकसित कर पाया। किसी भी साहित्यिक मंच से अव्‍वल तो बोला ही नहीं और बोला भी तो बोदा ही बोला। न बोलता तो अच्‍छा होता। यहां भी यही हुआ। देवेन्‍द्र संचालन कर रहे थे। पाँच सात वक्‍ता बोल चुके थे कि वे मेरे पास आये और कहने लगे कि अगला वक्‍ता मैं हूं। अब फिर वही संकट। बोलूं क्‍या और बोलूं कैसे। एक बार फिर लीद कर गया। हां, एक शगूफा छेड़ कर हंगामा जरूर खड़ा कर दिया। बार बार स्‍नोवा बार्नो को ले कर जो हाय तौबा मचायी जा रही थी, उस पर अपनी फुलझड़ी छोड़ दी कि जो लेखक स्‍नोवा के नाम से लिख रहा था, अब जल्‍द ही उस नाम से आखिरी कहानी लिख कर इस किस्‍से को यहीं विराम दे देगा। तुरंत खुसर पुसर शुरू हो गयी और जब सब लंच के लिए निकले तो सबकी जुबान पर यही सवाल था कि मेरी बात में क्‍या सच्‍चाई है। सुबूत घंटे भर में मिल गया। तब तक उस छद्म लेखक तक बात पहुंच चुकी थी और मेरे मोबाइल पर एक संदेश चमक रहा था- snowa ka jo photo chhapta hai voh kisi tourist ladki ka nahee, lekhika ka hee hai. dost, voh meri jaan hai, dunia se kah do, jabaan sambhaal ke! अब मुझसे ये न पूछा जाये कि ये संदेश किसने भेजा और कैसे भेजा। लेकिन जिसने भी पढ़ा ये संदेश, उसे विश्‍वास ही हुआ कि जो कुछ मैं कह रहा था, आधारहीन नहीं था।

रात को जन नाट्य मंच की ओर से दिल्‍ली से आयी टीम की ओर से औरंगजेब नाटक था। अच्‍छा था नाटक लेकिन वही प्रोफेशनलिज्‍म के संकट। राजधानी  के सबसे प्रमुख और सबसे ज्‍यादा इस्‍तेमाल किये जाने वाले थियेटर में साउंड सिस्‍टम इतना खराब था कि मजबूरन पीछे बैठे दर्शक नाटक अधबीच छोड़ कर बाहर निकल गये। दूसरे, इस समय हमारे तथाकथित सांस्‍कृतिक मूल्‍यों पर सबसे बड़ा हमला करने वाले यंत्र मोबाइल ने बीच बीच में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना जारी रखा। बेशक इसके लिए संयोजक महोदय पहले अनुरोध कर चुके थे कि जिस किसी को भी मोबाइल पर जरूरी बातें करनी हों, कर लें, हम बेशक नाटक दस मिनट देर से शुरू कर देंगे। मज़ा तो तब आया जब औरंगजेब के बेहद महत्‍वपूर्ण संवादों को ओवरलैप करते हुए मेरी सीट से दो सीट परे बैठे व्‍यक्ति का मोबाइल बजा और मेरे पड़ोसी ने जम कर उसकी लानत मलामत कर दी कि मोबाइल को कैसे साइलेंस मोड पर रखना है, सीख कर आओ लेकिन दो मिनट भी नहीं बीते थे कि उसी सज्‍जन के मोबाइल ने बेहद खराब रुचि की रिंग टोन में पूरे हॉल और पूरे मंच का ध्‍यान अपनी ओर खींच लिया। अब उसकी हालत देखने लायक थी। कुल मिला कर ढाई घंटे के नाटक में दस मोबाइल तो बजे ही। (मंच आयोजकों, नाटककारों और सभा सम्‍मेलनों के आयोजकों को मेरी सलाह है कि वे आयोजन स्‍थल पर पानी से भरी एक बाल्‍टी रखें और जिसका भी मोबाइल इस तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराये, उसे पानी में डुबकी लगाकर गंगा स्‍नान करा दिया करें। देर सबेर सब तक ये संदेश पहुंचेगा।)

रात आयोजकों की ओर से तरल गरल का आयोजन था। वहां पहले पहुंच चुके कुछ रचनाकार अपने अपने राम और अपने अपने जाम नामक कार्यक्रम में लगे हुए थे। काशीनाथ सिंह जी ने एक बार फिर अपने पास बुलाया और बेहद आत्‍मीयता से बात करने लगे। बताने लगे कि वे मेरे अनुवादों के कितने बड़े मुरीद हैं। चार्ली के अनुवाद को उन्‍होंने बहुत बड़ा काम माना। कहने लगे कि बेशक तुमसे कम मुलाकातें हैं लेकिन जितनी भी हैं, यादगार हैं। हाथ में दारू का गिलास थामे मैंने संकोशवश उनसे कहा कि मैं जो भी कर पाया अपनी जगह पर है लेकिन साहित्यिक मंचों से अपनी बात कहने का सलीका अभी भी नहीं सीख पाया हूं। बेशक अपने कॉलेज में राष्‍ट्रीय स्‍तर के कार्यक्रम करता हूं और अरसे से पढ़ा भी रहा हूं। इस पर उन्‍होंने दिलासा दी कि तुम इस बात की परवाह मत करो क्‍योंकि तुम्‍हारे लिखे शब्‍द ज्‍यादा मायने रखते हैं, कहे हुए शब्‍दों की कोई उम्र नहीं होती। इस बात की बहुत ज्‍यादा परवाह मत करो। उनकी बात से मेरा हौसला बढ़ा। अगले दिन उन्‍हें भेंट स्‍वरूप चार्ली चैप्लिन की सभी फिल्‍मों की डीवीडी और अपने उपन्‍यास देस बिराना की ऑडियो सीडी दी तो वे बहुत खुश हुए।

डेढ़ दिन के कथा विमर्श के लिए और उसे पहले दस दिन के नाटक विमर्श के लिए और कविता विमर्श के लिए आनंद हर्षुल और उसके दोस्‍तों ने सचमुच बहुत मेहनत की थी। रहने खाने वगैरह का बेहद शानदार इंतजाम। कहीं कोई चूक नहीं। ठंडी गाड़ी का किराया भाड़ा भी सबको दिया।

कुछ ही दिन पहले उनका भयंकर एक्‍सीडेंट हो चुका था और डॉक्‍टरी सलाह के अनुसार उन्‍हें बिस्‍तर पर होना चाहिये था लेकिन वे हाथ पर प्‍लस्‍तर लगाये न केवल सबकी तरफ व्यक्तिगत रूप से ध्‍यान दे रहे थे, सारी व्‍यवस्‍थाओं पर भी लगातार निगाह रखे हुए थे।

आनंद हर्षुल की कोशिशों से ही ये हो पाया था कि मैं, मनोज और हेमंत दूसरी ही शाम को बार नवापारा अभयारण्‍य की यात्रा के लिए निकल रहे थे। आनंद भी हमारे साथ निकलना चाहते थे लेकिन अगले दिन सबकी विदाई हो जाने के बाद। हममें इतना धैर्य नहीं था कि अगले दिन तक रुक पाते क्‍योंकि हम जानते थे कि सबके विदा होते न होते दो बज जायेंगे और इस तरह से चौबीस घंटे की इंतजार का कोई मतलब नहीं रहेगा।

हम तीनों निकले। चार बजे के आसपास। यात्रा बेशक 200 किमी से भी कम की थी लेकिन रास्‍ते के ढाबों पर रुकते रुकाते, दारू कांड और नाश्‍ता करते और रात के लिए डिनर पैक कराते हम रात साढ़े नौ बजे ही बार नवापारा पहुंच पाये। घने जंगलों में से रात की यात्रा का रोमांच ही कुछ और था। मौसम बेहद अनुकूल। वहीं टूरिस्‍ट लॉज के आँगन में कुछ लोग आग जलाये जंगल में मंगल का सा आभास देते गाना बजाना कर रहे थे। पता चला कि हमारे लिए जो कॉटेज बुक था, किसी और को दिया जा चुका है। हेमंत ने यही कहा कि जो भी खाली है इस समय, वही दे दो।

बेहद शानदार व्‍यवस्‍था। दो बड़े बड़े वातानूकूलित कमरे, दोनों के लिए अलग किचन, सामान रखने की जगह और दोनों कमरों के बीच में शानदार ड्राइंगरूम। बहुत आधुनिक होते हुए भी लोक कलाओं की ओर झुकाव लिये हुए। बाहर कुछ टैंट भी नजर आये। किराया बेहद कम। तीन या चार सौ रुपये प्रति कमरा प्रति दिन। इतने में तो महानगर में दो व्‍यक्ति ढंग से एक वक्‍त का खाना भी नहीं खा सकते।

तय हुआ कि सवेरे साढ़े पाँच बजे जंगल के लिए निकलेंगे। गाडड वहीं मिल जायेगा। बिस्‍तर पर लेटते ही अतीत के पन्‍ने खुलने लगे। कितने तो बरसों के बाद ये हो रहा था कि मैं इस तरह से जंगल में रात गुज़ार रहा था। बचपन में मसूरी के पहाड़। हमारा घर एक पहाड़ी पर अकेला घर हुआ करता था। फिर 1986 से 1994 के बीच की गयी हिमाचल के पहाड़ों और जंगलों में की गयी ट्रैकिंग के दिन खूब याद आये।

ये भी कई बरसों के बाद हो रहा था कि हम तीनों के मोबाइल बंद थे। नेटवर्क के दायरे से परे। काश, हर बरस कुछ दिन के लिए ये हो जाया करे कि हम हर मोबाइल के दायरे बाहर रहा करें। हमारे जीवन में मोबाइल के कारण अनिवार्य रूप से  घुस आये झूठ बोलना और दूसरे मोबाइलीय दंद फंद करना कुछ तो कम होगा।

सवेरे पाँच बजे ही नींद खुल गयी। रात का वादा पूरा करते हुए बेयरा चाय ले  आया। अभी खूब घना अँधेरा था जंगल की उस चुंगी पर जहां से हम शेरों, जंगली भैंसों, हिरणों और भालुओं के गांव उनसे मिलने जा रहे थे। 255 किमी का घना, किफायत से रखा और संवारा गया अरण्‍य। गाइड की तेज निगाह दोनों तरफ टोह लेती हुई कि कोई जानवर नज़र आये तो हमें दिखाये। दो एक जंगली भैंसे, एकाध सूअर और दो एक हिरण जरूर नज़र आये लेकिन सारे के सारे बायीं तरफ। गाइड उसी तरफ बैठा था। गाइड इतना डरपोक था कि एक मिनट के लिए भी हमें गाड़ी से नीचे उतरने नहीं दिया।

चार घंटे की यात्रा जो खूब अंधेरे में शुरू हुई थी, और अब पूरी तरह दिन निकल आने पर खत्‍म होने को थी, अचानक ऐसे मोड़ पर आ गयी थी कि हम तीनों घबरा गये। गाइड के पेट में भयंकर दर्द शुरू हुआ। वह काफी देर तक टालता रहा लेकिन बहुत जोर देने पर उसने बताया कि टूरिस्‍ट गांव के पास ही डॉक्‍टर है। तभी उसे उल्टियां होनी शुरू हो गयीं। गाड़ी तेजी से उसकी बतायी दिशा की तरफ मोड़ी गयी। संयोग से डॉक्‍टर मिल भी गया और उसके पास इंजेक्‍शन भी था। 

अब हमने ध्‍यान से पूरा इलाका देखा। किसी भी साधारण गांव की तरह गांव। वही चाय और भजिया की दुकानें। एकाध परचून की दुकान, उसी में एसटीडी फोन। नाई, ढाबा और सब्‍जी के ढेर लगाये एक बुढि़या, साइकल की एकाध दुकान। हमने गरमा गरम पकौड़ों का नाश्‍ता किया और चाय पी। तभी मैंने देखा कि सभी दुकानों के आगे मेज पर प्‍लास्टिक के एक लीटर और दो लीटर के जारों में कुछ रंगीन द्रव नज़र आ रहा है। पूछा तो पता चला कि इनमें बिक्री के लिए पैट्रोल रखा है जो कुछ अतिरिक्‍त दाम पर जरूरतमंदों को बेचा जाता है। वज़ह ये है कि सबसे निकट का पैट्रोल पंप यहां से कम से कम 30 किमी दूर है और गांव में बहुत सारी मोटरसाइकलें तो हैं ही, कई बार संकट के समय गाड़ी वालों की भी बहुत मदद हो जाती है इस तरह से। मान गये उस्‍ताद। शून्‍य में से रोजगार के अवसर तलाशना तो कोई गांव वालों से सीखे। कुल जनसंख्‍या 1500, हाईस्‍कूल तक की पढ़ाई की सुविधा। रोजगार सिर्फ खेती, गाइड का काम, जंगल की चौकीदारी या टूरिस्‍ट गांव की नौकरी।

उस समय भी और बाद में भी मैंने देखा कि स्‍कूल की यूनिफार्म पहने बहुत सारे लड़के दुकानों में भी और टूरिस्‍ट विलेज की कैंटीन में भी काम कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि कैंटीन में काम करने के पचास रुपये मिल जाते हैं और कई बार खाना भी। जिस ढाबे पर हमने मुर्गा बनाने का और खाना तैयार करने का आर्डर दिया था, वहां पर भी एक लड़का स्‍कूली यूनिफार्म पहने गरमा गरम रोटियां ला रहा था। ये भी एक अलिखित व्‍यवस्‍था थी ढाबों की कि जो भी बच्‍चा आसपास नज़र आ जाये, बुला लो उसे। दस बीस रुपये और खाने में सौदा महंगा नहीं। ड्राइवर सहित हम चार लोग थे। पूरा मुर्गा, शानदार तरीके से पकाया गया, सलाद और भरपूर रोटियां और चावल। कुल बिल 250। मुंबई में ये सोचा भी नहीं जा सकता।

दिन में एक बार फिर हम जंगल की तरफ निकले। अब तक गाइड महोदय भी ठीक हो गये थे और बचा खुचा मुर्गा खा कर एक बार फिर जंगल के लिए तैयार थे। इस बार जंगल नया चेहरा ले कर हमारे सामने था। अलग रंग, अलग खुशबू और अलग मूड में वहां के वासी पशु पक्षी। तभी मनोज ने ड्राइवर से कहा कि मैं तुम्‍हारी गाड़ी में पीछे बैठे बैठे बोर हो गया हूं। जरा बैठने दो स्‍टीयरिंग पर। ड्राइवर ने अपनी टैन सीटर गाड़ी की चाबी तो दे दी लेकिन लगातार सहमा सा बैठा रहा। मनोज ने जंगल की ड्रा‍इविंग का खूब आनंद लिया। अब ड्राइवर को सहमाने की मेरी बारी थी। मैंने भी जंगल की कच्‍ची पगडंडियों पर दस किमी गाड़ी चलायी ही होगी। इतनी बड़ी गाड़ी पहली बार चलायी।

किस्‍मत के हम धनी रहे इस बार। भालू मिला। ढेर सारे जंगली भैंसे मिले। इतने नजदीक कि हम पर हमला करें तो हम भाग भी न पायें। बहुत सारे हिरण‍ मिले। जंगली सूअर मिले। रंगीन पक्षी मिले। मोर तो बार बार मिले।

जब हम वापिस टूरिस्‍ट गांव आये तो एक और आश्‍चर्य हमारी राह देख रहा था। हमें दिन में बताया गया था कि पूरा टूरिस्‍ट गांव सोलर एनर्जी से चलता है। यहां तक कि कमरों के एसी भी और बेहद कलात्‍मक रूप से बनाये गये ओपन एयर थियेटर में रोजाना दिखायी जाने वाली फिल्‍में भी। गांव में लाइट नहीं है ये बात हमने रात में ही देख ली थी। लेकिन हम ये देख कर हैरान थे कि लगभग सभी दुकानों पर छोटी छोटी ट्यूब लाइटें जल रही थीं। पास जा कर देखने पर पता चला कि एक मोटर साइकिल हर दुकान में खड़ी है और उसकी बैटरी से सीधे पाजिटिव और नेगेटिव जोड़ कर रोजाना कम से कम तीन घंटे की लाइट का इंतजाम कर लिया जाता था। ये बात उस गांव की है जहां‍ सिर्फ हाइस्‍कूल था। पैट्रोल पंप तीस किमी दूर था और रोजगार के नाम पर कोई ढंग का काम नहीं था। मुंबई, हैदराबाद, दिल्‍ली, अहमदाबाद जैसे महानगरों में अपनी जिंदगी के लगभग पैंतीस बरस गुजार देने के बाद भी मैंने किसी भी जगह इस तरह का आविष्‍कार नहीं ही देखा है। हम हत्प्रभ थे। 

उसी रात जब हम ओपन एयर थियेटर में नरेश बेदी की और एक और निर्देशक की बार नवापारा पर बनायी फिल्‍में देख रहे थे तो हमने पूरे जंगल का सम्‍पूर्ण रूप में साक्षात्‍कार किया। जो कुछ अब तक नहीं देख पाये थे, हब हमारे सामने था। जंगल अपना भरपूर सौंदर्य क्‍लोज एंगल से हमें दिखा रहा था। एक और सच से रू ब रू हुए हम कि पूरे जंगल में जानवरों के पानी पीने के लिए कुल 177 कुंड हैं। झरने, नदी, नाले और पानी के दूसरे प्राकृतिक स्रोत अलग। तो इन 177 कुंडों और तालाबों में पानी की निर्बाध आपूर्ति के लिए भी सौर ऊर्जा का सहारा लिया गया है। हर तालाब को एक ट्यूब वैल से जोड़ दिया गया है और ट्यूब वैल को सोलर पैनल से। जैसे ही पैनल को अपेक्षित मात्रा में गर्मी मिलती है, वह पानी को तालाब की तरफ भेजना शुरू कर देता है। फिल्‍मों से हमें ये भी पता चला कि किसी भी प्रतिकूल मौसम में भी किसी भी जानवर को पानी पीने दो किमी से दूर नहीं जाना पड़ता। हम मुस्‍कराये। कितनी बड़ी ऐय्याशी है। हमारे देश के अमूमन सभी इलाकों में औरतों को पानी भरने के लिए अभी भी कई कई किलामीटर जाना पड़ता है और यहां……।

अगले दिन सवेरे सवेरे हम एक बार फिर जंगल में थे। इस बार हमने गाइड बदल लिया था। हालांकि वहां का नियम ये था कि जो गाइड एक बार आपसे जुड़ जाये, आपके वापिस लौटने तक आपने साथ बना रहता है। हम कुछ रोमांच चाहते थे, बेशक दस पचास कदम ही सही, जंगल को पैदल नाप कर वहां की हवा को पूरी तरह से अपने भीतर उतारना चाहते थे। और ये सब हमें हमारा पुराना गाइड करने नहीं दे रहा था। नये गाइड ने हमें भरपूर मौके दिये टहलने के, जंगल के कुछ और

सच जानने के और कुछेक जानवरों की तलाश में झाडि़यों में झांकने के। नये गाइड की जानकारी भी ज्‍यादा थी।

वापसी यात्रा थोड़ी थकान भरी हो गयी। हम सोच रहे थे कि दो बजे तक रायपुर पहुंच जायेंगे। बेशक नागपुर की गाड़ी शाम 6 बज कर बीस मिनट की थी, उदंती.कॉम की संपादक रत्‍ना वर्मा की बहुत इच्‍छा थी कि हम शाम की चाय उनके घर पर पियें। वहां रुक कर हम फ्रेश हो लेते। लेकिन हम सारी कोशिशों के बावजूद पाँच पचास पर ही रायपुर स्‍टेशन पहुंच पाये। समय इतना कम था कि वे स्‍टेशन भी मिलने नहीं आ सकती थीं। मेरी कुछ स्‍टेशनरी उन्‍होंने रायपुर में छपवायी थी, वह भी उनके पास थी। मधु के लिए कुछ उपहार भी देना चाहती थीं। ये सारी चीजें उन्‍होंने जिस व्‍यक्ति के हाथ स्‍टेशन पर भेजीं, वह उस समय मुझ तक पहुंची जब गाड़ी प्‍लेटफार्म पर आ चुकी थी। कुल मिला कर ये दिन खूब थकान दे गया। इतनी थकान की आदत भी नहीं रही है इन दिनों। पहले पाँच घंटे जंगल में घूमे, फिर पाँच घंटे की रायपुर तक की यात्रा और फिर रायपुर से नागपुर की साढ़े पांच घंटे की ट्रेन यात्रा। बस, एक अच्‍छी बात ये हुई कि नागपुर में ट्रेन अपने वक्‍त से कम से कम चालीस मिनट पहले पहुंच गयी।


फरवरी 2008

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