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देश, आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ और एक मामूली सी प्रेम कहानी

यहां कही जा रही कहानी देश की आज़ादी के पचासवें बरस के दौरान की एक छोटी सी, मामूली-सी प्रेम कहानी है। हो सकता है आपको यह प्रेम कहानी तो क्या, कहानी  ही न लगे और आप कहें कि यह सब क्या बकवास है?

जीवन के साथ यही तो तकलीफ़ है। जब जीवन की बात की जाये तो कहानी लगती है और जब कहानी सुनायी जाये तो लगता है, इसमें कहानी जैसा  तो कुछ भी नहीं। हम यही सब कुछ तो रोज देखते-सुनते रहते हैं। फिर भी यह कहानी कहनी ही है। जीवन या कहानी जो कुछ भी है, यही है। बाकी फ़ैसला आपका। खैर।

तो, पिछले कई बरसों की कई-कई शामों की तरह, आज की शाम भी हमारा कथानायक मुंबई महानगर, जिसे देश की आर्थिक राजधानी भी कहा जाता है, के मैरीन ड्राइव की मुंडेर पर पिछले आधे घंटे से कथानायिका के इंतज़ार में बैठा हुआ अरब महासागर की उठती गिरती लहरें देख रहा है। सूर्य अभी-अभी डूबा है और जाते-जाते जैसे अपने पीछे रंगों की बाल्टी को ठोकर मार गया है। सारे रंग गड्ड मड्ड होकर क्षितिज में बिखर गये हैं।

कथा नायक का नाम कुछ भी हो सकता है। उसकी उम्र बीस-बाइस बरस से लेकर अट्ठाइस-तीस बरस, कुछ भी हो सकती है। वह किसी भी विषय का ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट हो सकता है। वह किसी बैंक में क्लर्क या किसी प्राइवेट फर्म में जूनियर असिस्टेंट या किसी फैक्टरी में स्टोरकीपर भी हो सकता है। ऐसे पचासों धंधे हैं इस महानगर में जो कथानायक या कथानायक जैसे दूसरे नौजवान करते मिलेंगे। वैसे भी इस कहानी में बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह इस वक्त ठीक-ठीक कौन-सा काम कर रहा है।

जहां तक उसके रहने का सवाल है, वह मुंबई महानगर के दूर या पास के किसी उपनगर में स्टेशन से काफी दूर किसी झोपड़पट्टी में रह सकता है और एंटाप हिल, बांद्रा सरकारी वसाहत, सहार पी एंड टी कालोनी में क्लास फोर क्वार्टर्स में से किसी फ्लैट में सब-लैटिंग करके एक कमरा भी लेकर रह सकता है और यह भी हो सकता है कि कहीं खाने की सुविधा के साथ पेइंग गेस्ट बन कर रह रहा हो। यह भी हो सकता है कि वह किसी हेड क्लर्क नुमा अपने किसी बॉस के डेढ़ कमरे के मकान में रात को बिस्तर बिछाने भर की जगह में रह रहा हो। होने को तो यह भी हो सकता है कि वह किसी लाज में छः या आठ बिस्तरों वाले एक बड़े से कमरे में रह  रहा हो जहां रहने के साथ-साथ खाने की भी सुविधा हो। बेशक वहां का खाना इतना घटिया हो कि आये दिन उसका पेट खराब हो जाता हो, लेकिन  फिर भी वहीं जमा हुआ हो और चाह कर भी उसे छोड़ने की हिम्मत न जुटा पाता हो। इतना तय है कि वह कहीं भी रह रहा हो, किराये का कमरा ले कर रहने की उसकी हैसियत नहीं है। होती तो कथानायिका से कब की उसकी शादी हो चुकी होती और वह इस समय यहां बैठा उसका इंतज़ार न कर रहा होता।

कथानायिका को अब तक आ जाना चाहिये, उसने सोचा और राह चलते एक आदमी की घड़ी पर निगाह डाली। उसे यहां बैठे हुए पैंतालीस मिनट होने को आये थे।

      कथानायिका से उसकी मुलाकात यहीं, इसी जगह पर हुई थी। लगभग ढाई साल पहले। कथा नायिका की ज़िंदगी भी कमोबेश कथानायक जैसी ही है। उसका भी कोई भी नाम, नौकरी, डिग्री, जाति, धर्म हो सकता है। अलबत्ता वह रहती अपने घर में है और इस तरह से कुछ मायनों में कथानायक से बेहतर स्थिति में है। बाकी बातें कथानायक से मिलती जुलती हैं। शायद इसी वज़ह से दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई होगी। दोनों में दो-एक फ़र्क और हैं। कथानायक इस शहर में परदेसी है। यहां उसका कोई नहीं है। कथानायिका स्थानीय है। उसका अपना घर बार है। बाकी सारे दुख एक जैसे। सांझे और लगभग बराबर भी। कथानायिका साधारण काठी की, औसत-सी दिखने वाली लड़की है। बेशक उसकी आंखें खूब गहरी और ख़ास तरह की चमक लिये हुए हैं, उसका बाकी चेहरा-मोहरा साधारण है। रंग भी थोड़ा दबा हुआ है जिसकी वजह वह कई बार हीनता भी महसूस करती है।

एक मिनट ठहरें। यहां इस बात की ज़रूरत महसूस हो रही है कि कहानी में बेहतर संवाद स्थापित करने की दृष्टि से कथा नायक और कथा नायिका का नामकरण कर दिया जाये ताकि उन दोनों की कहानी पढ़ते हुए हम यह महसूस करते रहें कि वे भी हमारी तरह हाड़ मांस के जीते जागते इन्सान हैं और उनकी भी, बेशक मामूली ही हो, अपनी खुद का ज़िंदगी है, और उनकी भी एक पहचान है। चूंकि यहां कही जा रही कहानी भारत देश, उसकी आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ और उस दौरान की, कथा नायक तथा कथा नायिका के प्रेम की कहानी है, अत: इन दोनों के नाम भारत और भारती रख दिये जायें तो आप शायद एतराज़ न करें। संयोग से कथा नायिका भारती उपनाम से कविताएं भी लिखती है।

हमारे कथा नायक और कथा नायिका, जिन्हें हम आगे पूरी कहानी में भारत और भारती के नाम से जानेंगे, हालात के मारे दो अदने से इन्सान हैं। बेहद शरीफ और ज़माने भर के सताए हुए। उनकी पूरी ज़िंदगी को सिर्फ़ तीन लफ़जों में बयान किया जा सकता है – संघर्ष, संघर्ष और संघर्ष। सफलता एक भी नहीं। वैसे मौका मिलता तो वे भी ज़िंदगी की सारी सीढ़ियां आपको एक साथ चढ़ कर दिखा देते। बस, उन्हें अपनी ज़िंदगी संवारने के मौके ही नहीं मिले। हर तरह से योग्य होने के बावज़ूद। अपनी तरफ  से हर संभव कोशिश कर लेने के बावज़ूद। वैसे उनकी इस हालत के लिए उन्हें तो कत्तई दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह बात भी है कि वे हालात का शिकार होने वाले अकेले, पहले या आखिरी भी नहीं हैं। दरअसल इसके पीछे एक लम्बी कहानी है और उसे बयान करने के लिए हमें अपनी इस प्रेम कहानी को थोड़ी देर के लिए यहीं रोक कर हालात की उस कहानी की तह में जाना होगा। हां, इतना ज़रूर है कि जब हम कथा नायक और कथा नायिका के बहाने उन सारी स्थितियों की पड़ताल कर रहे होंगे, तो वे दोनों भी लगातार इस कहानी में हमारे आस पास बने रहेंगे बल्कि जहां भी मौका मिला, हमें आगे की अपनी कहानी खुद ही सुनायेंगे।

तो, देश की आज़ादी की यह पचासवीं वर्षगांठ थी। वैसे तो कथा नायक और कथा नायिका के लिए आज़ादी के इस साल और पिछले उनचास सालों में कोई अंतर नहीं था। यह साल भी पिछले सारे सालों की तरह वैसे ही शुरू हो कर यूं ही गुज़र जाने वाला था, फिर भी, यह साल पिछले सालों से इस रूप में अलग था कि सरकारी तौर पर और सरकारी खर्चे पर पूरे  देश में साल भर तक उत्सव का माहौल रहने वाला था। इस मद के लिए सरकार ने करोड़ों रुपये पहले ही एक तरफ रख दिये थे जिन्हें साल भर चलने वाले सरकारी समारोहों, उत्सवों, नाटकों और नौटंकियों में खुले हाथों खर्च किया जाना था। इन आयोजनों के लिए बहुत ऊंचे दरजे की बीसियों समितियां बना दी गयी थीं और उनके सलाह मशविरे से ये सारे भव्य आयोजन किये जाने थे। जहां तक कथा नायक और नायिका का इन सब आयोजनों से जुड़ने का सवाल था, वे इन सारी चीज़ों के प्रति पूरी तरह उदासीन थे। वैसे भी सरकार ने उन्हें इन सबमें शामिल होने के लिए नहीं कहा था। कहता भी कौन? किसी ने न तो उन्हें इन सबके लिए आमंत्रित किया था और न ही किसी भी स्टेज पर उन्‍हें विश्वास में ही लिया गया था। वे चाह कर भी इन सबमें शामिल नहीं हो सकते थे।

कथा नायिका के इंतज़ार में बैठे कथा नायक भारत की सोचने की गम्भीर मुद्रा देख कर कल्पना करना मुश्किल नहीं लगता कि वह इस समय किस उधेड़बुन से गुज़र रहा होगा। हो सकता है, वह इस समय दूर किसी गांव में या छोटे शहर में अपनी बीमार मां, रिटायर्ड बाप,  बेरोज़गार छोटे भाई, शादी के इंतज़ार में बैठी बहन के बारे में सोच रहा हो और इस महीने भी उन्हें अब तक मनी आर्डर न भेज पाने के बारे में परेशान हो रहा हो या उसे आज अपनी इस नौकरी से भी जवाब मिल गया हो और वह एक बार फिर बेरोज़गार होने जा रहा हो। हो सकता है कल उसकी प्रेमिका का जन्मदिन हो और वह उसके लिए कोई छोटा-मोटा तोहफा लेने के बारे में सोच रहा हो। इस बात की भी सम्भावना है कि आज शनिवार हो और उसकी जेब में एक भी पैसा न हो, उसे हर हालत में आज अपने ठीये का किराया चुकाना हो, नहीं तो .. ..।  या उसने नायिका को आज बढ़िया खाना खिलाने का वादा कर रखा हो या उसकी नौकरी में कोई लफड़ा या रहने की जगह  या.. या… या… ।

बहुत कुछ हो सकता है जिसके बारे में कथा नायक सोच रहा हो। आखिर हम उसे जानते ही कहां हैं कि इतने दावे के साथ बता दें कि वह इस वक्त क्या सोच रहा है। उसके व्यक्तित्व के, जीवन के, उसके संघर्षों के बारे में बहुत सारे ऐसे पहलू हो सकते हैं जिनके बारे में हम कुछ भी तो नहीं जानते। हो सकता है कि अभी तक हमने जो भी अनुमान लगाये हैं, वे सारे ही गलत हों। हम उसके बारे में जो कुछ सोच रहे हैं, ऐसा कुछ हो ही नहीं। वह उस किस्म का आदमी हो न हो। वह तो बस, यूं ही यहां मौसम और शाम की रंगीनियां देखकर कुछ वक्त बिताने की नीयत से  मैरीन ड्राइव की मुंडेर पर आ कर बैठ गया हो।

नहीं, हम गलत नहीं हैं। कथा नायक को ले कर हमने जितनी भी बातें सोची हैं, वे सारी  की सारी सही हैं। कुछ बातें अगर आज सही हैं तो कुछ सच्चाइयां आने वाले या बीते हुए कल की भी हो सकती हैं।

दरअसल, जैसाकि मैंने बताया, देश की आज़ादी का यह पचासवां साल पिछले उनचास सालों से कोई खास फ़र्क नहीं रखता था। सब कुछ वैसा ही था। बल्कि कई मायनों में बदतर भी। अगर इस बीच जनसंख्या बढ़ी थी तो बेरोज़गारी उसके अनुपात में कई गुना बढ़ी थी। हालांकि आज़ादी के इस पचासवें बरस में भी पिछले बरस और उससे भी पिछले कई बरसों की तरह देश के सभी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, तकनीकी और प्रबंध संस्थानों ने लाखों की संख्या में हर तरह से योग्य और कुछ कर गुज़रने के उत्साह से लबरेज़ पोस्ट ग्रेजुएट्स और ग्रेजुएट्स तैयार करके सड़कें पर उतार दिये थे। उनकी जगह तुरंत ही, और उनसे अधिक ही तादाद में, नये लोग उनकी जगह लेने के लिए इन संस्थानों आदि में पहुंच गये थे। भीतर सबके समाने लायक जगह नहीं थी, फिर भी लोग थे कि किसी भी तरह एक बार दाखिला पा लेने के लिए आकुल-व्याकुल थे। कई लोग तो इसके लिए अपनी हैसियत से कई गुना ज्यादा पैसे खर्च करके भी भीतर जगह पाने के लिए होड़ – सी लगा रहे थे। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि उनकी रुचि किस विषय में थी और प्रवेश किस विषय में मिल रहा था। उन्हें तो बस, एक अदद डिग्री से मतलब था। कैसे भी, किसी भी विषय की मिले। वे जानते थे कि उन्हें जो नौकरी, अगर कभी मिली तो, सिर्फ डिग्री के आधार पर मिलेगी। उसमें दर्ज विषय के आधार पर नहीं। उनकी विशेषज्ञता के आधार पर तो कत्तई नहीं।

उधर बाहर, सड़कों पर अभी भी पिछले कई बरसों के बकाया पोस्ट ग्रेजुएट्स और ग्रेजुएट्स हर तरह से योग्य, ज़रूरतमंद और इच्छुक होने के बावजूद अपने लायक कोई काम नहीं तलाश पाये थे और हर वक्त अपने हाथ में मैली पड़ चुकी डिग्रियों, आवेदन पत्रों की कॉपियों और अखबारों की कतरनों कर बंडल उठाये दफ्तरों, फैक्टरियों, सेवायोजन कार्यालयों के गेट के आसपास और चौराहों, नुक्कड़ों पर देखे जा सकते थे। वे हर कहीं मौजूद थे। वे सब जगहों पर अरसे से थे।

बेरोज़गारों की इस भीड़ में इन नये लोगों के आ जाने से हर कहीं भीड़ बेतहाशा बढ़ गयी थी और लगभग हर कहीं एक-दूसरे को धकियाने की-सी नौबत आ गयी थी। इन सब लोगों का धैर्य हालांकि अब तक तो चुक जाना चाहिये था और मनोविज्ञान के नियमों के हिसाब से मारा-मारी, सिर फुट्टौवल, और इसी तरह की दूसरी अराजक स्थितियों की शुरूआत हो जानी चाहिये थी, फिर भी न जाने क्यों आम तौर पर यह स्थिति नहीं आ पायी थी। ये लोग बेहद आस्थावान थे। प्रतीक्षा और आश्वासनों के सहारे यहां तक की कठिन और असम्भव यात्रा पूरी करके आ पहुंचे थे। उन्हें अभी भी उम्मीद थी कि कोई जादुई चिराग़ उनकी ज़िंदगी का अंधेरा दूर करने के लिए, बस आता ही होगा। उन्हें इस तरह अपने लायक काम की तलाश करते हुए अब तक तो सदियां बीतने को आयीं थीं, बल्कि पिछली पीढ़ी में से भी अधिकतर लोग बिना कोई ढंग का काम पाये अपनी ज़िंदगी की आधी सदी पूरी कर चुके थे। न तो उनका इंतज़ार खत्म हुआ था और न ही कोई जादुई चिराग़ ही उनकी अंधेरी ज़िंदगी में रौशनी का एकाध कतरा ही ला पाया था। ये सारे के सारे लोग, जो बेरोज़गार थे, और काम करना चाहते थे, अरसे से खाली पेट और लगभग सुन्न दिमाग़ लिये अब तक पस्त होने को आये थे, लेकिन जैसा कि मैंने बताया, उनकी आंखों में चमक अभी भी बाकी थी और वे सब एकटक, सड़क़ के उस मुहाने की तरफ़ देख रहे थे, जहां से कभी-कभी रोज़गार के कुछेक मौके मुहैया कराने वालों के आने की बारीक-सी उम्मीद रहती थी। अमूमन वे लोग कभी इस तरफ़ आते देखे तो नहीं गये थे, सिर्फ सुने गये थे और अगर कभी वे आये भी थे तो आगे आगे खड़े दो-चार लोगों को अपने पीछे आने का इशारा करके बहुत तेजी से लौट गये थे। उनके आने और लौट जाने के बीच का अंतराल इतना कम होता था कि पीछे खड़े लोगों को हवा भी नहीं लग पाती थी और वे लौट चुके होते थे।

हमारा कथा नायक भारत हमेशा ऐसी कतारों में मौजूद था। कभी सबसे आगे तो कभी बेइन्तहां भीड़ में सबसे पीछे। वह कहीं भी रहा हो, हमेशा छला गया था। उसके हिस्से में कभी भी कोई भी ढंग की नौकरी नहीं आयी थी। हर बार उसी की बारी आने पर सब कुछ खत्म हो जाता था।

उसे आज भी याद करके हँसी आती है। उसकी पहली नौकरी नगर पालिका में थी। तब वह बारहवीं पूरी कर चुका था। उसकी उम्र अट्ठारह की थी। यह दसेक साल पहले की बात है। एम्पलायमेंट एक्सचेंज से बड़ी मुश्किल से सौ रुपये दे कर नाम निकलवाया था उसने। यह तो वहीं जा कर पता चला था कि ये नौकरी गली-गली घूम कर मच्छर मारने की दवा छिड़कने की है। साइकिल अपनी होनी चाहिये। सिर पीट लिया था उसने। इस नौकरी के लिए मना करने का मतलब होता अगले तीन महीने तक एक्सचेंज से दोबारा किसी नौकरी के लिए नाम नहीं आयेगा और स्वीकार करने का मतलब अगले छ: महीने तक नाम नहीं आयेगा। फिर भी उसने नौकरी यही सोच कर ले ली थी कि कुछ तो पैसे मिलेंगे ही। साइकिल का इंतज़ाम उसे करना पड़ा था। जिस पड़ोसी के बच्चों को वह ट्यूशन पढ़ाता था, उनसे मिली थी साइकिल उसे। एक और बच्चे को मुफ्त पढ़ाने की शर्त पर। लेकिन यह नौकरी सिर्फ़ तीन दिन चल पायी थी। वैसे चलाने वाले इससे बदतर नौकरियां भी चला ही रहे थे, बल्कि कथा नायक ने भी आगे-पीछे कई वाहियात नौकरियां की ही थीं, लेकिन मच्छर मारने वाली उस नौकरी से वह एक पल के लिए भी खुद को जोड़ नहीं पाया था। बहुत बेमन से दो-ढाई दिन काट कर उससे अलग हो गया था। ऐसा नहीं था कि बेरोज़गारी के लम्बे-लम्बे दौर से गुज़रते हुए कथा नायक या उसके साथ के दूसरे सारे बेरोज़गार लोग कभी निराश नहीं होते थे या इन्हें गुस्सा नहीं आता था। दरअसल इनकी निराशा और इनका गुस्सा सिर्फ़ इन्हीं की जान लेता था। चरम हताशा की हालत में कुछेक लोग खुदकुशी कर लेते थे, या घर वालों के साथ सामूहिक रूप से ज़हर खा लेते थे, लेकिन अब तक कोई ऐसी वारदात सुनने में नहीं आयी थी कि नौकरी मांगने वालों ने कोई भी काम न मिलने पर मिल मालिकों,  बैंकों या सरकारी दफ्तरों वगैरह का घेराव किया हो, हिंसा का रास्ता अपनाया हो या कहीं ऊंची आवाज में बात ही की हो। ऐसी एक भी घटना सुनने में नहीं आयी थी। शायद बेरोज़गारों की ही जमात ऐसी थी जो कि संगठित नहीं थी। उनका कोई गुट नहीं था और उनका कोई रहनुमा भी नहीं था। हां, कभी-कभार कुछ स्वार्थी तत्व ज़रूर इन लोगों को अपने मतलब के लिए अपने पीछे आने वाली भीड़ में शामिल कर लेते थे और अपना काम सधते ही इन्हें वापिस सड़कों पर ठेल देते थे।

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