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Story

Mughal Bachcha : Ismat Chughtai

वो मरते मर गया मगर मुग़्लिया शहनशाहियत की ज़िद को बरक़रार रखा।

फ़तहपुर सीकरी के सुनसान खंडरों में गोरी दादी का मकान पुराने सूखे ज़ख़्म की तरह खटकता था। कगया ईंट का दो मंज़िला घुटा घुटा सा मकान एक मार खाए रूठे हुए बच्चे की तरह लगता था। देखकर ऐसा मा’लूम होता था वक़्त का भूंचाल उस की ढिटाई से आजिज़ आकर आगे बढ़ गया और शाही शान-ओ-शौकत पर टूट पड़ा।
गोरी दादी सफ़ेद झक चांदनी बिछे तख़्त पर सफ़ेद बेदाग़ कपड़ों में एक संग मरमर का मक़बरा मालूम होती थीं।

सफ़ेद ढेरों बाल, बे ख़ून की सफ़ेद धोई हुई मलमल जैसी जिल्द, हल्की किरंजी आँखें जिन पर सफ़ेदी रेंग आई थी, पहली नज़र में सफ़ेद लगती थीं। उन्हें देखकर आँखें चकाचौंद हो जाती थीं। जैसे बसी हुई चांदनी का ग़ुबार उनके गर्द मुअल्लक़ हो।

ना जाने कब से जिए जा रही थीं। लोग उनकी उम्र सौ से ऊपर बताते थे। खुली गुम-सुम बे-नूर आँखों से वो इतने साल क्या देखती रही थीं। क्या सोचती रही थीं कैसे जीती रही थीं।
बारह तेरा बरस की उम्र में वो मेरी अम्मां के चचा दादा से ब्याही तो गई थीं मगर उन्होंने दुल्हन का घूंगट भी ना उठाया।

कुंवारेपन की एक सदी उन्होंने इन्ही खंडरों में बताई थीं। जितनी गोरी बी सफ़ेद थीं इतने ही उनके दूल्हा स्याह भट्ट थे। इतने काले कि उनके आगे चिराग़ बुझे, गोरी बी बुझ कर भी धुआँ देती रहीं।

सर-ए-शाम खाना खा कर झोलियों में सूखा मेवा भर के हम बच्चे लिहाफ़ों में दुबक कर बैठ जाते और पुरानी ज़िंदगी की वर्क़ गरदानी शुरू हो जाती बार-बार सुनकर भी जी ना भरता। अदबदा कर गोरी बी और काले मियां की कहानी दोहराई जाती। बेचारे की अक़्ल पर पत्थर पड़ गए थे कि इतनी गोरी दुल्हन का घूंगट भी ना उठाया।

अम्मां साल के साल पूरा लाओ लश्कर लेकर मैके पर धावा बोल देतीं। बच्चों की ईद हो जाती फ़तह पुर सीकरी के पुर-असरार शाही खंडरों में आँख-मिचौली खेलते खेलते जब शाम पड़ जाती तो खोई खोई सुरमई फ़िज़ा से डर लगने लगता। हर कोने से साये लपकते। दिल धक धक करने लगते।

“काले मियां आ गए।” हम एक दूसरे को डराते। गिरते पड़ते भागते और कगया ईंट के दो मंज़िला मकान की आग़ोश में दुबक जाते। काले मियां हर अंधेरे कोने में भूत की तरह छुपे महसूस होते। बहुत से बच्चे मरने के बाद हज़रत सलीम चिशती की दरगाह पर माथा रगड़ा। तब गोरी बी का मुँह देखना नसीब हुआ। माँ बाप की आँखों की ठंडक गोरी बी बड़ी ज़िद्दी थीं। बात बात पर अटवायटी खटवाती लेकर पड़ जातीं। भूक हड़ताल कर देतीं घर में खाना पकता, कोई मुँह ना झुटालता जूं का तूं उठवा कर मस्जिद में भिजवा दिया जाता गोरी बी ना खाती तो अम्मां बावा कैसे निवाला तोड़ते।

बात इतनी सी थी कि जब मंगनी हुई तो लोगों ने मज़ाक़ में छींटे किए, “गोरी दुल्हन काला दूल्हा।”
मगर मुग़ल बच्चे मज़ाक़ के आदी नहीं होते। सोला सतरह बरस के काले मियां अंदर ही अंदर घुटे रहे। जल कर मरुन्डा होते रहे।
“दुल्हन मैली हो जाएगी ख़बरदार ये काले काले हाथ ना लगाना।”
“बड़े नाज़ों की पाली है तुम्हारी तो परछाईऐं पड़ी तो काली हो जाएगी।”
“बड़ा तीहा है सारी उम्र जूतीयां उठवायेगी।”

अंग्रेज़ों ने जब मुग़ल शाही का अंतिम संस्कार किया तो सबसे बुरी मुग़ल बच्चों पर बीती कि वही ज़्यादा ओहदे सँभाले बैठे थे। जाह जागीर छिन जाने के बाद लाख के घर देखते देखते ख़ाक हो गए। बड़ी बड़ी ढनदार हवेलीयों में मुग़ल बच्चे भी पुराने सामान की तरह जा पड़े। भौंचक्के से रह गए जैसे किसी ने पैरों तले से तख़्ता खींच लिया।

तब ही मुग़ल बच्चे अपने ग़रूर और ख़ुद्दारी की तार-तार चादर में सिमट कर अपने अंदर ही अंदर घुलते चले गए। मुग़ल बच्चे अपने महवर से कुछ खिसके हुए होते हैं। खरे मुग़ल की यही पहचान है कि उसके दिमाग़ के दो-चार पेच ढीले या ज़रूरत से ज़्यादा तंग होते हैं। अर्श से फ़र्श की तरफ़ लुढ़के तो ज़हनी तवाज़ुन डगमगा गए। ज़िंदगी की क़द्रें ग़लत मलत हो गईं। दिमाग़ से ज़्यादा जज़्बात से काम लेने लगे।

अंग्रेज़ की चाकरी, ला’नत और मेहनत मज़दूरी की कसर-ए-शान जो कुछ असासा बचा उसे बेच बेच कर खाते रहे। हमारे अब्बा के चचा रुपया पैसा की जगह चची के जहेज़ के पलंग के पायों से चांदनी का पत्तर उखेड़े जाते थे। ज़ेवर और बर्तनों के बाद टिक्के जोड़े नोच नोच कर खाते। पान-दान की कुल्हियायाँ सिल बट्टे से कुचल कर टुकड़ा टुकड़ा बेचीं और खाईं। घर के मर्द दिन-भर पलंग की अदवाइन तोड़ते। शाम को पुरानी घनी अचकन पहनी और शतरंज पचीसी खेलने निकल गए। घर की बीवियां छुप-छुप कर सिलाई कर लेतीं। चार पैसों से चूल्हा जल जाता, या महल्ले के बच्चों को क़ुर’आन पढ़ा देतीं तो कुछ नज़राना मिल जाता।

काले मियां ने दोस्तों की छेड़खानी को जी का घाव बना लिया। जैसे मौत की घड़ी नहीं टलती वैसे ही बाप माँ की तय की हुई शादी ना टली। काले मियां सर झुका के दूल्हा बन गए। किसी सर-फिरी ने ऐन आरसी मुसहफ़ के वक़्त और छेड़ दिया।
“ख़बरदार जो दुल्हन को हाथ लगाया काली हो जायेगी।”
मुग़ल बच्चा चोट खाए नाग की तरह पलटा, सर से बहन का आँचल नोचा और बाहर चला गया।
हंसी में खसी हो गई। एक मातम बरपा हो गया। मरदान ख़ाना में इस ट्रेजडी की ख़बर हंसी में उड़ा दी गई। बग़ैर आर सी मुसहफ़ के रुख़स्त एक क़यामत थी।
“ब’ख़ुदा में इस का ग़रूर चकनाचूर कर दूंगा। किसी ऐसे वैसे से नहीं मुग़ल बच्चे से वास्ता है।” काले मियां फ़ुंकारे काले मियां शहतीर की तरह पूरी मसहरी पर दराज़ थे। दुल्हन एक कोने में गठरी बनी काँप रही थीं। बारह बरस की बच्ची की बिसात ही क्या।
“घूंगट उठाओ।” काले मियां डकराए
दुल्हन और गड़ी मुड़ी हो गई।
“हम कहते हैं घूंगट उठाओ।” कोहनी के बल उठकर बोले
सहेलीयों ने तो कहा था। दूल्हा हाथ जोड़ेगा पैर पड़ेगा पर ख़बरदार जो घूंगट को हाथ लगाने दिया। दुल्हन जितनी ज़्यादा मुदाफ़’अत करे उतनी ही ज़्यादा पाक-बाज़।
“देखो जी नवाब ज़ादी होगी अपने घर की हमारी तो पैर की जूती हो। घूंगट उठाओ। हम तुम्हारे बाप के नौकर नहीं।”
दुल्हन पर जैसे फ़ालिज गिर गया।
काले मियां चीते की तरह लपक कर उठे, जूतीयां उठा कर बग़ल में दाबीं और खिड़की से पाइंबाग़ में कूद गए। सुबह की गाड़ी से वो जोधपुर दनदना गए।

घर में सोता पड़ा था। एक आक्का बी जो दुल्हन के साथ आई थीं जाग रही थीं। कान दुल्हन की चीख़ों की तरफ़ लगे थे। जब दुल्हन के कमरे से चूँ भी ना आई तो उनके तो पैरों का दम निकलने लगा, “है है कैसी बे-हया लड़की है। लड़की जितनी मासूम और कुँवारी होगी उतना ही ज़्यादा दुंद मचाएगी। क्या कुछ काले मियां में खोट है।” जी चाहा कुइआं में कूद के क़िस्सा पाक करें।

चुपके से कमरे में झाँकी तो जी सन्न से हो गया। दुल्हन जैसी की तैसी धरी थी और दूल्हा ग़ायब।

बड़े ग़ैर दिलचस्प क़िस्म के हंगामे हुए, तलवारें खिचीं, बड़ी मुश्किल से दुल्हन ने जो बीती थी कह सुनाई। इस पर तरह तरह की चिमीगोइयां होती रहीं। ख़ानदान में दो पार्टीयां बन गईं। एक काले मियां की, दूसरी गोरी बी की तरफ़-दार।
“वो आख़िर ख़ुदाए मजाज़ी है। उसका हुक्म ना मानना गुनाह है।” एक पार्टी जमी हुई थी।
“कहीं किसी दुल्हन ने ख़ुद घूंगट उठाया है?” दूसरी पार्टी की दलील थी।

काले मियां को जोधपुर से बुलवाकर दुल्हन का घूंगट उठवाने की सारी कोशिशें नाकाम गईं। वो वहां घुड़ सवारों में भर्ती हो गए और बीवी को नान नफ़्क़ा भेजते रहे जो गोरी बी की अम्मां समधन के मुँह पर मार आतीं।
गोरी बी कली से फूल बन गईं। हर अठवाड़े हाथ पैर में मेहंदी रचाती रहीं और बंधे टिके दुपट्टे ओढ़ती रहीं और जीती रहीं।
फिर ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि बावा की मरन घड़ी आ पहुंची। काले मियां को ख़बर गई तो ना जाने किस मूड में थे कि भागे आए। बावा मौत का हाथ झटक कर उठ बैठे। काले मियां को तलब किया दुल्हन का घूंगट उठाने की बारीकियों पर मिस्कोट हुई।

काले मियां ने सर झुका दिया। मगर शर्त वही रही कि हश्र हो जाये मगर घूँघट तो दुल्हन को अपने हाथों उठाना पड़ेगा। “क़िबला कअ’बा मैं क़सम खा चुका हूँ मेरा सर क़लम कर दीजीए मगर क़सम नहीं तोड़ सकता।”

मुग़ल बच्चों की तलवारें ज़नखिया चुकी थीं। आपस में मुक़द्दमा बाज़ीयों ने सारा कलफ़ निकाल दिया था। बस अहमक़ाना ज़िदें रह गई थीं, एक उन्हीं को कलेजे से लगाए बैठे थे। किसी ने काले मियां से ना पूछा तुम ने ऐसी अहमक़ाना क़सम खाई ही क्यों कि अच्छी भली ज़िन्दगी अज़ाब हो गई।

ख़ैर साहब गोरी बी फिर दुल्हन बनाई गईं। कगया ईंट वाला मकान फिर फूलों और शमाम-तुल-अंबर की ख़ुशबू से महक उठा। अम्मां ने समझाया। “तुम उस की मनकूहा हो बेटी जान। घूंगट उठाने में कोई ऐब नहीं। उसकी ज़िद पूरी कर दो, मुग़ल बच्चा की आन रह जाएगी। तुम्हारी दुनिया सँवर जाएगी, गोदी में फूल बरसेंगे। अल्लाह रसूल का हुक्म पूरा होगा।”

गोरी बी सर झुकाए सुनती रहीं। कच्ची कली सात साल में नौ-ख़ेज़ क़यामत बन चुकी थी। हुस्न और जवानी का एक तूफ़ान था जो उनके जिस्म से फूटा निकलता था।

औरत काले मियां की सबसे बड़ी कमज़ोरी थी। सारे हवास इसी एक नुक्ते पर मर्कूज़ थे। मगर उनकी क़सम एक मेख़दार आहनी गोले की तरह उनके हलक़ में फंसी हुई थी। उनके तख़य्युल ने सात साल आँख-मिचोली खेली थी। उन्होंने बीसियों घूंगट नोच डाले। रंडी बाज़ी, लौंडे बाज़ी, बटेर बाज़ी, कबूतर बाज़ी, ग़रज़ कोई बाज़ी ना छोड़ी मगर गोरी बी के घूंगट की चोट दिल में पंजे गाड़े रही। जो सात साल सहलाने के बाद ज़ख़्म बन चुकी थी। इस बार उन्हें यक़ीन था उनकी क़सम पूरी होगी। गोरी बी ऐसी अक़्ल की कोरी नहीं कि जीने का ये आख़िरी मौक़ा भी गंवा दें, दो उंगलीयों से हल्का फुलका आँचल ही तो सर्काना है कोई पहाड़ तो नहीं ढोने।

“घूंगट उठाओ।” काले मियां ने बड़ी लजाहत से कहना चाहा मगर मुग़ली दबदबा ग़ालिब आ गया।
गोरी बेगम ग़ुरूर से तमतमाई सन्नाटे में बैठी रहीं।
“आख़िरी बार हुक्म देता हूँ। घूंगट उठा दो, वर्ना इसी तरह पड़ी सड़ जाओगी, अब जो गया, फिर ना आऊँगा।”
मारे ग़ुस्से के गोरी बी लाल भबूका हो गईं। काश उनके सुलगते रुख़्सार से एक शोला लपकता और वो मनहूस घूंगट ख़ाकस्तर हो जाता।
बीच कमरे में खड़े काले मियां कौड़ियाले साँप की तरह झूमते रहे। फिर जूते बग़ल में दबाए और पाइंबाग़ में उतर गए।

अब वो पाइंबाग़ कहाँ? उधर पिछवाड़े लकड़ियों की टाल लग गई। बस दो जामुन के पेड़ रह गए थे और एक जुग़ादरी बदगो बेले चम्बेली की रौशें। गुलाबों के झुण्ड, शहतूत और अनार के दरख़्त कब के लुट पिट गए।

जब तक माँ ज़िंदा रहीं गोरी बी को सँभाले रहीं उनके बाद ये ड्यूटी ख़ुद गोरी बी ने सँभाल ली। हर जुमेरात को मेहंदी पीस कर पाबंदी से लगातीं दुपट्टा रंग चुन कर टांकतीं और जब तक ससुराल ज़िंदा रही तहवार पर सलाम करने जाती रहीं।

अब के जो काले मियां गए तो ग़ायब ही हो गए। बरसों उनका सुराग़ ना मिला। माँ बाप रो-रो कर अंधे हो गए, वो ना जाने किन जंगलों की ख़ाक छानते फिरे। कभी ख़ानक़ाहों में उनका सुराग़ मिलता। कभी किसी मंदिर की सीढ़ीयों पर पड़े मिलते।

गोरी बी के सुनहरी बालों में चांदी घुल गई। मौत की झाड़ू काम करती रही। आस-पास की ज़मीनें मकान कोड़ीयों के मूल बकते गए। कुछ पुराने लोग ज़बरदस्ती डट गए। कनजड़े क़साई आन बसे, पुराने महल ढय कर नई दुनिया की बुनियाद पड़ने लगी। परचून की दुकान, डिस्पेंसरी एक मर घुला सा जनरल स्टोर भी उग आया। जहां एलमूनियम की पतीलियां और लिप्टन चाय की पुड़ियों के हार लटकने लगे।

एक मफ़लूज मुट्ठी की दौलत रिस कर बिखर रही थी। चंद मोहतात उंगलियां समेटने में लगी थीं। जो कल तक अदवाईन पर बैठते थे झुक-झुक कर सलाम करते थे आज साथ उठना बैठना कसर-ए-शान समझने लगे।

गोरी बी का ज़ेवर आहिस्ता-आहिस्ता लाला जी की तिजोरी में पहुंच गया। दीवारें ढै रही थीं। छज्जे झूल रहे थे। बचे खुचे मुग़ल बच्चे अफ़यून का अँटा निगल कर पतंगों के पेच लड़ा रहे थे। तीतर बटेर सधा रहे थे। और कबूतरों की दुमों के पर गिन कर हलकान हो रहे थे। लफ़्ज़ ’मिर्ज़ा’ जो कभी शान और दबदबे की अलामत समझा जाता था मज़ाक़ बन रहा था। गोरी बी कोल्हू के अंधे बैल की तरह ज़िन्दगी के छकड़े में जुती अपने महवर पर घूमे जा रही थीं। उनकी किरंजी आँखों में तन्हाइयों ने डेरा डाल दिया था। उनके लिए तरह तरह के अफ़साने मशहूर थे कि उन पर जुनूँ का बादशाह आशिक़ था। जूं ही काले मियां उनके घूंगट को हाथ लगाते चिट तलवार सौंत कर खड़ा हो जाता। हर जुमेरात को इशा की नमाज़ के बाद वज़ीफ़ा पढ़ती हैं तब सारा आँगन कौड़ियाले साँपों से भर जाता है। फिर सुनहरी कलग़ी वाला साँपों का बादशाह अजगर पर सवार हो कर आता है। गोरी बी की क़रा’अत पर सर धुनता है। पौ फटते ही सब नाग रुख़स्त हो जाते हैं।

जब हम ये क़िस्से सुनते तो कलेजे उछल कर हलक़ में फंस जाते और रात को साँपों की फुंकारें सुनकर सोते हैं चौंक कर चीख़ें मारते।
गोरी बी ने सारी उम्र कैसे कैसे नाग खिलाए होंगे। कैसे अकेली ना-मुराद ज़िंदगी का बोझ ढोया होगा। उनके रसीले होंटों को भी किसी ने नहीं चूमा। उन्होंने जिस्म की पुकार को क्या जवाब दिया होगा।
काश ये कहानी यहीं ख़त्म हो जाती। मगर क़िस्मत मुस्कुरा रही थी।

पूरे चालीस बरस बाद काले मियां अचानक आप ही आन धमके। उन्हें क़िस्म क़िस्म के ला-इलाज अमराज़ लाहक़ थे पोर पोर सड़ रही थी। रोम रोम रिस रहा था। बदबू के मारे नाक सड़ी जाती थी। बस आँखों में हसरतें जाग रही थीं जिनके सहारे जान सीने में अटकी हुई थी।
“गोरी बी से कहो मुश्किल आसान कर जाएं।”

एक कम साठ की दुल्हन ने रूठे हुए दूल्हा मियां को मनाने की तय्यरियां शुरू कर दीं। मेहंदी घोल कर हाथ पैरों में रचाई। पानी समो कर पंडा पाक किया। सुहाग का चकटा हुआ तेल सफ़ेद लटों में बसाया। संदूक़ खोल कर बोर बोर टपकता झड़ता बरी का जोड़ा निकाल कर पहना और इधर काले मियां दम तोड़ते रहे।

जब गोरी बी शरमाती लजाती धीरे धीरे क़दम उठाती उनके सिरहाने पहुंचीं तो झंगे पर चुकेट तकिए और गोडर बिस्तर पर पड़े हुए काले मियां की मुट्ठी भर हड्डियों में ज़िन्दगी की लहर दौड़ गई। मौत के फ़रिश्ते से उलझते हुए काले मियां ने हुक्म दिया, “गोरी बी घूंगट उठाओ।”

गोरी बी के हाथ उठे मगर घूंगट तक पहुंचने से पहले गिर गए।
काले मियां दम तोड़ चुके थे।
वो बड़े सुकून से उकड़ूं बैठ गईं, सुहाग की चूड़ियां ठंडी कीं और रंडापे का सफ़ेद आँचल माथे पर खिंच गया।

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