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Review

पुस्तक समीक्षा – हिसाब बराबर…और किस खूबी से!

हिसाब बराबर (व्यंग्य संग्रह) – डा. रमाकांत शर्मा
प्रकाशक – स्टोरी मिरर इंफोटेक प्रा. लि., 145, पहली मंजिल,
पवई प्लाजा, हीरानंदानी गार्डन्स, पवई, मुंबई – 400076
पृष्ठ सं. 161        मूल्य : 350/- रुपये


हिंदी में व्यंग्य की स्थिति इस समय बड़ी अजीब दिखाई देती है, बल्कि अगर उसे अजीबोग़रीब कहा जाए, तो ज्यादा सही होगा—यानी अजीब भी और ग़रीब भी। अब वह अजीब होने के कारण ग़रीब है या ग़रीब होने के कारण अजीब, कहना मुश्किल है। यह अलग बात है कि कुछ व्यंग्यकार इसे अजीब नहीं, बल्कि अज़ीम समझते हैं, और न केवल अज़ीम समझते हैं, बल्कि अज़ीमुश्शान भी बताते हैं। और क्यों न हो, व्यंग्य को यह ‘अज़मत’ उन्होंने ही तो बख्शी है। वे व्यंग्य को उसी स्थिति में ले आए हैं, जिस पर व्यंग्य किया जाता है। उन्होंने व्यंग्य को ही व्यंग्यास्पद बना दिया है।

इसी का परिणाम है कि सबसे घटिया व्यंग्यकार आज सबसे ज्यादा चर्चित हैं। वरिष्ठ व्यंग्यकार उन्हीं को बेशर्मी की हद तक जाकर प्रश्रय दिए हुए हैं। बकौल ग़ालिब, उन्हें उनसे है व्यंग्य की उम्मीद, जो नहीं जानते व्यंग्य क्या है! एक कहावत के अनुसार, हालत यह है कि अंधा अंधे ठेलिया, तीनों कूप परंत। हाँ, तीनों, क्योंकि कूप में वे व्यंग्य को भी तो लेकर गिरे हैं। लेकिन कूप में गिरने का उन दोनों को ही कोई मलाल नहीं, क्योंकि कूप में माल जो है। माल मिले, तो कैसा मलाल! यहाँ गिरकर ही उठा जाता है। जो जितना गिरता है, वह उतना ही उठता है। ज्यों-ज्यों बूड़े ‘स्याम’ रंग, त्यों-त्यों ‘उज्जलु’ होई! आखिर कालिमा की अपनी लालिमा है, बल्कि आज तो कालिमा ही लालिमा है, उन्होंने कालिमा को ही लालिमा की तरह पेश किया है, कालिमा का ही नाम बदलकर लालिमा रख दिया है। 

उधर कुछ ऐसे भी व्यंग्यकार हैं, जो इस ‘उठाईगिरी’ यानी ‘उठने के लिए गिरने’ की स्थिति से असंपृक्त रहकर निस्पृह भाव से व्यंग्य लिख रहे हैं, और अगर उनकी कोई स्पृहा है भी, तो यह कि वे अच्छा लिखकर व्यंग्य को और ज्यादा गिरने से बचा सकें, और इसी कारण वे स्पृहणीय हैं। डा. रमाकांत शर्मा उन्हीं में से एक हैं। 

डा. रमाकांत शर्मा मूलत: कहानीकार हैं, लेकिन बीच-बीच में व्यंग्य भी लिखते रहते हैं। व्यंग्य-लेखन की दृष्टि से देखें, तो ये दोनों ही बातें उनकी खूबियों के रूप में सामने आती हैं। कैसे? इसे समझने के लिए व्यंग्य के कला पक्ष पर थोड़ी बात करनी जरूरी है। व्यंग्य विधा है या नहीं, इस बारे में आज तक, आम लोगों में ही नहीं बल्कि व्यंग्यकारों में भी, असमंजस व्याप्त है। परसाई सहित व्यंग्य के प्राय: सभी प्रारंभिक प्रणेता उसके विधा होने को नकार चुके हैं। परसाई आदि का व्यंग्य को विधा न मानना समझ में आता है, क्योंकि उनसे पहले व्यंग्य उस रूप और मात्रा में नहीं लिखा गया था कि उसे विधा माना जा सकता। लेकिन उनकी पीढ़ी द्वारा इतने विपुल रूपाकार में व्यंग्य लिख दिए जाने के बाद भी व्यंग्य को विधा न मानना न केवल नासमझी है, बल्कि स्वयं परसाई आदि का अपमान भी है। 

व्यंग्य को विधा मानने में सबसे बड़ी हिचक उसका कहानी आदि अन्य विधाओं में भी मिलना है। व्यंग्य चूँकि कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि अन्य विधाओं में भी मिलता है, इसलिए व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा कहा जाना उन्हें अजीब लगता है। लेकिन इसमें अजीब कुछ नहीं है। मैं इस बारे में कई मंचों पर विस्तार से लिख और बता चुका हूँ, फिर भी, बात स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में यहाँ भी निवेदन करता हूँ। 

‘व्यंग्य के अन्य विधाओं में भी मिलने’ में जो ‘भी’ लगा है, वह सब-कुछ स्वत: जाहिर कर देता है। ‘अन्य विधाओं में भी मिलने’ का तात्पर्य है कि व्यंग्य स्वतंत्र रूप में भी मिलता है। तो जहाँ वह स्वतंत्र रूप में मिलता है, यानी जहाँ व्यंग्य ही रचना की जान है, वहाँ व्यंग्य विधा है। व्यंग्य-कहानी या व्यंग्य-कविता या व्यंग्य-उपन्यास या व्यंग्य-नाटक आदि में जो व्यंग्य मिलता है, वह विधा की दृष्टि से रचना की जान नहीं होता, उनमें रचना की जान कहानी, कविता, उपन्यास या नाटक होता है, इसीलिए उन्हें व्यंग्य नहीं, बल्कि व्यंग्य-कहानी या व्यंग्य-कविता या व्यंग्य-उपन्यास या व्यंग्य-नाटक कहा जाता है। उन रचनाओं में व्यंग्य विधा नहीं होता, बल्कि एक शैली या स्पिरिट होता है, लेकिन केवल उन्हीं रचनाओं में। उनमें व्यंग्य ठीक उस रूप में भी नहीं होता, जिस रूप में वह स्वयं ‘व्यंग्य’ में होता है। ‘व्यंग्य’ में व्यंग्य इनसे बिलकुल भिन्न रूप में नजर आता है। 

इस प्रकार व्यंग्य दो रूपों में मिलता है। एक तो स्वतंत्र रूप में, जिसे कविता, कहानी, उपन्यास या नाटक आदि किसी अन्य श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, और दूसरे अन्य विधाओं में, जिसे उस विधा के साथ जोड़कर बताया जाता है। पहले रूप में वह विधा होता है, दूसरे रूप में विधा नहीं होता।

इसी के साथ एक बात और समझने की जरूरत है, और वह यह कि कथा-तत्त्व व्यंग्य को दीर्घजीवी बनाता है, और व्यंग्य को ही नहीं, बल्कि सभी विधाओं को। नाटक में एक विशेष तरीके से कथा ही तो कही जाती है; काव्य भी महाकाव्य तभी बनता है, जब उसमें कथा होती है। व्यंग्य के बारे में भी यही सच है। परसाई असल में अपनी व्यंग्य-कथाओं के कारण ही इतने प्रसिद्ध है, वरना उन्होंने जो विशुद्ध व्यंग्य लिखे हैं, वे इतने तात्कालिक और सामयिक हैं कि परसाई को स्वयं सफाई में कहना पड़ा कि वे कालजीवी साहित्य नहीं लिखते। लेकिन उनकी व्यंग्य-कथाएँ असल में कालजीवी ही हैं और परसाई को भी कालजीवी बनाती हैं। 

यह कथा-तत्त्व डा. रमाकांत शर्मा की भी खूबी है। इसीलिए मैंने कहा कि डा. रमाकांत शर्मा का मूलत: कहानीकार होना और बीच-बीच में व्यंग्य लिखना दोनों उनकी खूबियाँ हैं। ‘बीच-बीच में व्यंग्य लिखना’ उनकी खूबी इस तरह है कि इससे केवल या नियमित व्यंग्य लिखने वालों की तरह वे सीमित शब्दों में लिखने, फौरन लिखकर देने या किसी अवसर के मुताबिक लिखकर देने जैसे फालतू के दबावों में नहीं आते। वे केवल अपने मन के दबाव में आते हैं, यानी जब उनका मन करता है, या कहिए कि जब उनसे लिखे बिना नहीं रहा जाता, वे तब लिखते हैं, और जिस आकार और रूप में रचना लिखी जानी चाहिए या लिखी जाना चाहती है, उसी आकार और रूप में लिखते हैं, जो कि लिखने का सर्वोत्तम ढंग है।   

उनकी इसी तरह लिखी गई व्यंग्य-रचनाओं का एक संकलन ‘कबूतर और कौए’ नाम से छप चुका है और अब यह दूसरा संकलन छपने जा रहा है। 

डा. रमाकांत शर्मा न केवल व्यंग्य के संबंध में दुविधा या असमंजस में पड़े नहीं दिखते, बल्कि उसके संबंध में वे कुछ स्पष्ट मान्यताएँ रखते हैं, जो न केवल उनकी रचनाओं में प्रतिफलित हुई दिखती हैं, बल्कि उनकी ‘अपनी बात’ में स्पष्ट शब्दों में व्यक्त भी हुई हैं। जैसे यह कि “व्यंग्य का जन्म अपने समय की विद्रूपताओं के भीतर से उपजे असंतोष से होता है।  भीतर का यह असंतोष संवेदनशील और पैनी दृष्टि रखने वाले लेखक की लेखनी के जरिये कागज पर उतरता है और समाज में व्याप्त विसंगतियों के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करता है।”

व्यंग्यकार यह किस तरह से करता है? लेखक के शब्दों में, “इसके लिए लेखक व्यंजनात्मक भाषा-शैली का प्रयोग करता है, ताकि वह अपनी बात लक्षित व्यक्ति/संस्था तक इस प्रकार पहुँचा सके कि उसे बुरा भी न लगे और वह उस विसंगति के प्रति जागरूक भी बन सके।” इसे और स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है, “दूसरे शब्दों में, व्यंग्य इस प्रकार चोट करता है कि उसका निशान दिखाई न दे, पर अपने शिकार में तिलमिलाहट भर दे। यही तिलमिलाहट उसे उस विसंगति को दूर करने के लिए प्रवृत्त भी करती है।”

व्यंग्य और हास्य के संबंध को लेकर भी लेखक बिलकुल स्पष्ट है, “व्यंग्य शुद्ध हास्य नहीं है। हास्य पाठक को गुदगुदाता है और उसे ठहाके लगाने पर मजबूर कर देता है। लेकिन, व्यंग्य की कोशिश यह रहती है कि जीवन की विसंगतियों, विद्रूपताओं, पाखंडों और खोखलेपन को सामने लाया जाए। इस क्रम में यदि हास्य सहज ही उपजता है तो वह व्यंग्य को और धारदार बनाने का काम करता है। मेरा यह स्पष्ट मानना है कि हास्य में व्यंग्य हो सकता है, पर व्यंग्य में हास्य हो, यह कतई जरूरी नहीं है।”

व्यंग्य के उद्देश्य के संबंध में लेखक एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात कहता है और वह यह कि “(व्यंग्य का) अंतिम लक्ष्य यही होता है कि जिन विसंगतियों/विद्रूपताओं से समझौता करके हम उन्हें जीवन जीने का ढंग मान लेते हैं, उन्हें दूर करने और बदलने की कोशिश की शुरुआत हो।” इसी संबंध में एक और उल्लेखनीय बात वह यह कहता है, “मजे की बात यह है कि जिसे लक्ष्य करके ये (व्यंग्य-)बाण चलाए जाते हैं, कभी-कभी उसे खुद पता नहीं होता कि वह उस विसंगति का शिकार है।”

व्यंग्य का महत्त्व स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है, “इसलिए व्यंग्य कोई मामूली विधा नहीं है, यह व्यक्ति, समाज, संस्थाओं, सरकारों और कभी-कभी खुद को विसंगतियों के प्रति जागरूक बनाती है और उनसे बचने के लिए प्रेरित करती है और इस प्रकार शल्य-चिकित्सा जैसा काम करती है।” और इसलिए उनका यह कहना बिलकुल वाजिब है कि “व्यंग्य लिखने के लिए ही नहीं, समझने के लिए भी सूक्ष्म दृष्टि चाहिए।”

जाहिर है, डा. रमाकांत शर्मा में यह सूक्ष्म दृष्टि है। लेकिन क्या उनके समकालीन अन्य व्यंग्यकारों में भी यह दृष्टि है? क्या वे भी इन्हीं उद्देश्यों से व्यंग्य लिखते हैं? या उनके उद्देश्य कुछ और हैं?

डा. रमाकांत शर्मा  की ‘ये विधा बेवा न हुई’ शीर्षक रचना बताती है कि कुछ व्यंग्यकारों को व्यंग्य के इन उद्देश्यों का कुछ पता ही नहीं है और वे तो व्यंग्य इसलिए लिखना चाहते हैं या लिख रहे हैं, क्योंकि आजकल इस विधा का बड़ा जोर है और उनके बिना ही यह विधा इतनी चर्चित हो जाए, यह वे बरदाश्त नहीं कर सकते। 

रचना उस तरह के व्यंग्यकारों पर लिखी गई है, जिनका मैंने शुरुआत में व्यंग्य की अजीबोगरीब हालत का वर्णन करते हुए उल्लेख किया था। इसके नायक एक लेखक ‘श्रीजी’ हैं, जो ‘श्री’ भी हैं और ‘जी’ भी। समझा जा सकता है कि उनका अहं कितना स्फीत होगा और नासमझी कितनी बड़ी। वैसे अहं अपने आप में एक बहुत बड़ी नासमझी ही होता है, पर श्रीजी में ये दोनों ही सघन रूप में विद्यमान हैं। रचना के आरंभ में वे इस सोच में डूबे नजर आते हैं कि “साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं बची, जिसमें हमारा दखल न हो। बस एक व्यंग्य ही बचा रह गया है, जिसमें घुसें या नहीं, इस पर मंथन चल रहा है।” इस पर ‘मैं’ नामक पात्र उनसे कहता है कि “इसमें विचार करने की क्या बात है श्रीजी, आपसे कोई साहित्यिक विधा बच निकली तो यह साहित्य का ही दुर्भाग्य होगा।”

‘घुसें या नहीं’ और ‘बच निकली’ जैसे शब्दों के प्रयोग से यह ध्वनित है कि लेखन रूपी जागीर के श्रीजी ऐसे जमींदार हैं, जो किसी भी विधा रूपी कन्या को अछूता नहीं छोड़ते। व्यंग्य तब और घनीभूत हो जाता है, जब ‘मैं’ आगे यह कहता है, “आपकी गिद्ध-दृष्टि सही जगह पड़ी है। यह विधा आपके चंगुल से बचनी नहीं चाहिए।” 

सपाटबयानी से भी किस तरह व्यंग्य उपजाया जाता है, वह ‘मैं’ के इस कथन में देखा जा सकता है, “आजकल जिसे देखो व्यंग्य लिखने दौड़ा चला जा रहा है। कुछ तो जरूर है इस विधा में, नहीं तो जिन्हें व्यंग्य का ककहरा भी पता नहीं, वे भी व्यंग्य-लेखन की इस दौड़ में क्यों शामिल होते जा रहे हैं।” लेकिन श्रीजी इस विधा में ‘मुँह मारने’ से पहले उसके ‘मोल’ के प्रति आश्वस्त हो लेना चाहते हैं, “पर सोचने की बात तो यह है भैया कि व्यंग्य को साहित्यिक विधा मानें या नहीं। बड़ा विवाद है इस मुद्दे पर। सोचो, अगर यह विधा है ही नहीं, तो इसमें मुँह मारने का क्या फायदा?”

अंतत: श्रीजी ‘मैं’ के इस आग्रह पर ‘चित’ हो जाते हैं कि “आपने इसमें दखल नहीं दिया तो यह विधा तो आपके बिना बेवा होकर रह जाएगी,” और जैसा कि रचना के शीर्षक से जाहिर है, वे इसे बेवा नहीं रहने देते।

डा. रमाकांत शर्मा का शब्द-चयन व्यंग्य उत्पन्न करने में सफल है। यहाँ वे उपहास द्वारा व्यंग्य उत्पन्न करते हैं।

‘आना मुख्यमंत्री जी का शादी में’ सामाजिक विसंगति पर गहरा व्यंग्य है। विवाह-समारोह में सत्ताधारी नेता का आना किस तरह घरातियों और बरातियों, दोनों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है और किस तरह वे उस सामाजिक परवेश का भी राजनीतिक उपयोग करते हैं, इसी का चुटीला वर्णन इस रचना में मिलता है। मैं खुद ऐसे ही एक विवाह-समारोह का गवाह रहा हूँ, जिसमें नेताजी का गैंग सारा भोजन चट कर गया था और दूल्हे-दुलहन सहित सभी घरातियों-बरातियों को भूखे ही रह जाना पड़ा था। 

इस रचना में नौबत यहाँ तक तो नहीं पहुँचती, पर उससे कुछ कम भी नहीं रहती। नेताजी के आने में देर हो जाने की वजह से वर और उसकी वर-यात्रा यानी बरात को बाहर ही इंतजार करना पड़ता है और नेताजी के आ जाने के बाद ही उन्हें प्रवेश मिलता है। सभी मेहमानों को सुरक्षा-जाँच से गुजरना पड़ता है और अपना उपहार खोलकर दिखाना पड़ता है, जिससे लेखक और उसके परिवार के कम मूल्य के उपहार की पोल खुल जाती है और उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। अंदर मंच पर दो नहीं, तीन कुर्सियाँ रखी जाती हैं, जिनमें से बीच वाली बड़ी कुर्सी पर दूल्हे-दुलहन के बीच में मुख्यमंत्री जी विराजमान होते हैं। दूल्हा-दुलहन नेताजी के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेने के बाद ही एक-दूसरे को माला पहना पाते हैं। दूल्हा-दुलहन को आशीर्वाद देते हुए नेताजी लगे हाथ वहाँ उपस्थित ‘जनता’ से अपने लिए भी अगले चुनाव में जिताने का आशीर्वाद माँग लेते हैं। 

इसके बाद सीटिंग-अरेंजमेंट की ‘हाइरार्की’ मेंटेन करते हुए मेहमान वर-वधू को शगुन भेंट करने की रस्म अदा करते हैं। इस सबमें इतनी देर हो जाती है और नेताजी खाने का उद्घाटन करने में इतनी देर कर देते हैं कि बच्चों और बड़ों का शादी का खाना खाने का सारा उत्साह भंग हो जाता है और वे जैसे-तैसे उसे निपटाकर घर जाने के लिए बाहर निकलना चाहते हैं, लेकिन वह भी तब तक नहीं कर पाते, जब तक कि नेताजी का काफिला पहले बाहर नहीं निकल जाता। लेखक रचना का अंत इन शब्दों में करता है, “प्रवेश-द्वार पर हमें रोक लिया गया। मालूम पड़ा, मुख्यमंत्री जी बाहर निकलने वाले थे। लगभग आधा घंटा खड़ा रहने के बाद मुख्यमंत्री जी का काफिला रवाना होना शुरू हुआ। रतनलाल जी (लड़की के पिता), उनका परिवार और बराती उन्हें छोड़ने प्रवेश-द्वार तक आए थे। जैसे ही काफिला रवाना हुआ, उन्होंने नारे लगाने शुरू कर दिए—हमारा नेता कैसा हो, मुख्यमंत्री जी जैसा हो! हमारे जैसे ज्यादातर लोग उस नारे लगाने वाली भीड़ का हिस्सा बनने से कतराते हुए बाहर निकलने का रास्ता तलाशने में लगे थे।”

संकलन में प्राय: सभी विषयों पर रचनाएँ हैं, लेकिन दफ्तर से संबंधित, विशेषकर प्रबंधन और प्रशिक्षण पर लिखी गई रचनाओं में लेखक अपने पूरे फॉर्म में नजर आता है। यह उसका अपना क्षेत्र जो है। ‘बलिहारी प्रबंधन गुरु की’ एक ऐसी ही रचना है, जिसमें लेखक एक प्रबंधन-गुरु से ज्ञान ‘प्राप्त’ करता है। इन दो वाक्यों से रचना के मर्म तक पहुँचा जा सकता है, “क्या मनुष्य को मनुष्य मानकर उन्हें डील नहीं किया जा सकता; उन्हें बैलगाड़ी, हाथगाड़ी, पतंग या फिर फुटबाल मानना जरूरी है?” और “वास्तव में, आज आपसे काफी ज्ञान मिला गुरुजी। बस एक बात और पूछनी है—हमारे घर की औरतें बिना मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट जाए और आपसे बिना इतना सारा ज्ञान लिए संयुक्त परिवारों की स्थिति से लेकर आज तक की स्थिति में और वह भी सीमित साधनों में अपने घरों का प्रबंधन कैसे कर लेती हैं?” लेखक “ज्ञान टपकाइए”, “आपकी तो अभी से वाह निकल गई” जैसे प्रयोगों से प्रबंधन-गुरु की पोल खोलता है। ‘शांत प्रशिक्षण चालू है’, ‘खतरनाक अफसर’ और ‘सरकारी नौकरी और सेहत’ भी इसी श्रेणी की व्यंग्य-रचनाएँ हैं।

‘शिकंजे में भगवान’ और ‘प्रभु तब से चुप हैं’ धार्मिक कुरीतियों पर लिखे गए व्यंग्य हैं। ‘कान अवरुद्ध हैं’ पढ़कर प्रतापनारायण मिश्र के व्यंग्य-निबंधों की याद आ जाती है। इसमें कान से संबंधित प्राय: सभी मुहावरों और कहावतों का बेहतरीन प्रयोग हुआ है। ‘मेरे देश की मिट्टी’ नामक व्यंग्य विदेश से आए प्रवासी युवक का देश के प्रति सारा मोह भंग कर देता है। ‘शिक्षा का भवसागर’ शिक्षा-जगत की कुरीतियाँ उजागर करता है। इसमें ‘असत्यनारायण की कथा’ जैसा जबरदस्त प्रयोग भी है। ‘चलो, कहीं और चलें’ में लेखक एक कबूतर के माध्यम से पक्षी-जगत के कौओं के साथ-साथ मनुष्य-जगत के भी तमाम तरह के कौओं का भेद खोलता है। संकलन में एक व्यंग्य-एकांकी भी है। 

इन व्यंग्य-रचनाओं में व्यंग्यकार व्यंग्य की उपहास, परिहास, अन्योक्ति, अतिशयोक्ति, फंतासी आदि अनेक शैलियों का खूबसूरती से प्रयोग करता है। उपमा और उदाहरण अलंकारों का भी उसने बखूबी प्रयोग किया है। व्यंग्य उत्पन्न करने के लिए वह नए शब्द गढ़ता है, पुराने शब्दों में नए अर्थ भरता है और प्रसंगोपयोगी वाक्यांशों के प्रयोग से पाठक को झकझोरता है। इन सब उपायों से वह लोगों को सोचने और बदलने के लिए प्रवृत्त करने का व्यंग्य का वह उद्देश्य पूरा करता दिखाई देता है, जिसकी चर्चा उसने ‘अपनी बात’ में की है।

संकलन की रचनाओं में कमियाँ भी बेशक हैं, पर वे बहुत कम हैं। दोहराव एक ऐसी ही कमी है। यह कमी या तो ज्यादा लिखने से उत्पन्न होती है, या कम लिखने से। पहली स्थिति में लेखक को ध्यान नहीं रहता, और दूसरी स्थिति में लेखक को याद नहीं रहता। कथा-तत्त्व व्यंग्य-लेखन में जहाँ रमाकांत शर्मा का सबल पक्ष है, वहीं कथा-तत्त्व से रहित रचनाओं में वे थोड़े कमजोर नजर आते हैं। लेकिन ऐसी एक-दो ही रचनाएँ हैं।

मैं डा. रमाकांत शर्मा को बहुत पहले से जानता हूँ और उनके रचना-कर्म से अच्छी तरह से वाकिफ हूँ। फिर भी उनकी इन रचनाओं ने मुझे सुखद आश्चर्य में डाल दिया। आप भी इन्हें पढ़कर ऐसा ही अनुभव करेंगे, मुझे पूरी आशा है। जिस खूबी से वे सभी विसंगत लोगों, संस्थाओं और स्वयं विसंगतियों का हिसाब बराबर करते हैं, वह प्रशंसनीय है। 

डॉ. सुरेश कांत
7-एच, हिमालय लेजेंड
न्याय खंड-1, इंदिरापुरम
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) – 201014
मो. 9582273875
ईमेल : [email protected] 

               

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