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Poem

जुगनू, वनफूल और तुम

प्रतीक्षाओं के सुंदरवन में एक वनफूल तलाशता हूँ और न उसका रंग याद है अब न नाम
एक धुँधली-सी छवि है कई बरस पुरानी तस्वीर जैसे धूल से अँटी
और तलाशता हूँ मैं उसे शाम से सुबह तक
रातों में खिलता था वह वनफूल और जुगनुओं की रौशनी में घुल-मिल जाता था।

उसकी राह में एक बहुत पुरानी-सी क़ब्रगाह थी जिसमें एक चौबीस बरस की औरत लेटी थी डेढ़ सौ बरस से
उससे थोड़ी पर वह पुरुष अट्ठाईस बरस का उतने ही वर्षों से अपनी प्रतीक्षाएँ समेटे
क़दमों की दूरियाँ और जैसे बीच में कोई नदी गहरी भँवरों वाली कमलिनियाँ तैरतीं उनमें और सूख जातीं
मैं उस पर एक पुल बना देना चाहता था रस्सियों का और गुज़रना चाहता था साथ तुम्हारे कमलिनियाँ चुनते
याद है तुम्हें वह भँवर जिसमें डूबे तो उतराने की कोई कामना ही न हुई
इन दिनों उससे बचता हुआ गुज़रता हूँ रस्सियाँ थामे कमलिनियाँ सारी मुरझा गई हैं और भँवरें ख़ामोश डूबती हैं अपने में ही

अँगुलियों पर रस्सी के निशान हैं या स्मृतियाँ हैं तुम्हारी

एक पहाड़ है ठिगना-सा राह में वह नदी प्रपात बन गिरती उसके बीच पत्थरों पर दर्ज करती अपना आवेग
उन पर मिट चुके अनगिन निशानों में एक निशान तुम्हारे पाँवों का भी है
थक कर बैठता हूँ उसके किनारे तो जैसे कितने फूल खिल जाते हैं
एक हँसी घुलती जाती है लहरों में और मैं उस पर रख देता हूँ अपने पपड़ाए होंठ एक धार फूटती है सीने में आँखों से गुज़रती इतनी लहरें प्रलय-सी उठती डूब जातीं
उन्हें साथ लिए निकलता हूँ उस मोड़ से आगे जहाँ थक कर बैठ गई थीं तुम
बढ़ाता हूँ हाथ और फिर शून्य में वापस आता है वह…

इस शून्य में दुनिया के सारे शब्द घुले-मिले हों जैसे मौन में बदलते

एक पेड़ है कई पेड़ों सा फैला थोड़ा आगे और उसके पार चाय के बग़ान जिनमें पगडंडियाँ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों-सी उलझीं
जहाँ चूम लिया था तुमने निर्द्वंद्व और वह हँसी चाय के दानों में ख़ुशबू-सी भर गई थी
उँगलियाँ तुम्हारी थामी हैं मैंने और चल पड़ा हूँ पगडंडियाँ दिखाती हैं राह
यहाँ से आती थी महक वनफूल की
यहाँ से जुगनुओं की रौशनी दिखती थी
यहाँ से महकती थी देह तुम्हारी
यहाँ से होंठ लरजते थे और पाँवों में गति फूटती थी
यहाँ से फूटता था कामनाओं का एक अजस्र स्रोत जिसमें नहाकर बदल जाते थे हमारे रूप

मैं था से हाथ छुड़ाए बढ़ता हूँ आगे
अँधेरी हैं सब राहें
वे जुगनू थे या तुम्हारी आँखें थीं
वनफूल था या चेहरा तुम्हारा।

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