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Poem

भोर

थके-हारे चाँद के संग रह गया है
यह अकेला एक तारा

भोर की पहली किरण के ठीक पहले
बालकनी मे खुल रही हो जैसे
एक खिड़की धुँधलाई-सी रौशनी की
और थकी आँखें मेरी अलसाए-से आकाश में
एक चित्र बनाती हैं
अमूर्त एक चित्र
कि जिसमें एक आँसू
ठहरा है दाहिने गाल पर

किताब एक औंधी पड़ी है
मुँह तक भरी एश-ट्रे में सो रही हैं कविताएँ तमाम
रतजगा ज्यों उम्र की गहरी नींद का मुसलसल ख़्वाब कोई
एक आवाज़ गले से निकलकर होंठ पर दम तोड़ देती है
प्यास है गहरी
बहुत गहरी
सूखे कुएँ-सी
और उसमें ढूँढ़ता हूँ
तारे का प्रतिबिंब
एक अकेले तारे का
प्रतिबिंब

सिटकनी है बंद
अपनी क़ैद में सुरक्षित घर
और फिर… अकेलेपन का
भयावह डर
भटकता है एक अकेला तारा
घर के धूसर आकाश में
क्या ढूँढ़ता है?
दाग़ एक गहरा बेरंग आत्मा पर
चाँद के धब्बे रौशनी में घुलते जाते हैं
सूर्य हो जाने के सारे ख़्वाब
एक तारे में अकेले डूबते हैं
और तारा टूटकर गिरता है कि जैसे
निगाहों से दृश्य कोई गिरे
और धूल के रंग का हो जाए

भोर की आहट
खट-खट दरवाज़े पर
पुराना काठ बजता है कि जैसे कोई पुरानी कराह
पहचानता हूँ… इसे पहचानता हूँ आह!

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