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उर्दू शायरी के अजीमुश्शान शायर - फै़ज़ अहमद फ़ैज़ अपनी शायरी को अपने लहू की आग में तपाकर अवाम के दिलो-दिमाग़ तक ले गए और कुछ ऐसे अन्दाज़ में कि वह दुनिया के तमाम मजलूमों की आवाज़ बन गई।
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उर्दू शायरी के अजीमुश्शान शायर – फै़ज़ अहमद फ़ैज़

One of the most celebrated Urdu poet – Faiz Ahmed Faiz 

उर्दू शायरी के एक ऐसे अजीमुश्शान शायर – फै़ज़ अहमद फ़ैज़ अपनी शायरी को अपने लहू की आग में तपाकर अवाम के दिलो-दिमाग़ तक ले गए और कुछ ऐसे अन्दाज़ में कि वह दुनिया के तमाम मजलूमों की आवाज़ बन गई। उनकी शायरी की ख़ास पहचान है – रोमानी तेवर में खालिस इंक़लाबी बात! यही कारण है कि ग़ालिब और इक़बाल के बाद जितनी शोहरत फै़ज़ अहमद फ़ैज़ को मिली उतनी शायद किसी अन्य शायर को नहीं।

फै़ज़ अहमद फ़ैज़ मूलतः पाकिस्तान के थे किन्तु प्रगतिशील जीवन-दृष्टि के कारण उन्होंने देश की सीमा ही नहीं, भाषा, जाति और धर्म की भी मानवता के आगे कभी परवाह नहीं की। वे भारत में वैसे ही पसन्द किए जाते थे जैसे कि पाकिस्तान में उनकी शायरी मानवीयता, सामाजिकता और राजनीतिक सच्चाइयों का पर्याय है। उनकी शायरी में अहसास, बदलाव, प्रेम और सुकुन सब कुछ था।

फ़ैज़ तार्रुफ़ के मोहताज न किसी दौर में थे न हैं न रहेंगे; फ़ैज़ की शायरी की पहचान बस इतनी सी है कि फूलों के रंगो-बू से सराबोर शायरी से अगर आँच भी आ रही हो तो समझिए कि वो फै़ज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी है। फै़ज़ अहमद फ़ैज़ ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई दी। साहिर, क़ैफ़ी, फ़िराक़ आदि उनके समकालीन शायर थे। 1951-1955 की क़ैद के दौरान लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें “दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)” तथा “ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)” नाम से प्रकाशित किया गया।

पेश हैं हमारे दौर के मशहूर नगमानिगार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कुछ ख़ास गज़लें
हम देखेंगे

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां 
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले

गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंजे-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सरे-काकुल से मुश्के-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले
हुज़ूरे-यार हुई दफ़्तरे-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले
मक़ाम ‘फैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे!
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग

तुम अपनी करनी कर गुज़रो

अब क्यूँ उस दिन का ज़िक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे ग़म मिट जाएँगे
जो कुछ पाया खो जाएगा
जो मिल न सका वो पाएँगे
ये दिन तो वही पहला दिन है
जो पहला दिन था चाहत का
हम जिस की तमन्ना करते रहे
और जिस से हर दम डरते रहे
ये दिन तो कई बार आया
सौ बार बसे और उजड़ गए
सौ बार लुटे और भर पाया
अब क्यूँ उस दिन का ज़िक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे ग़म मिट जाएँगे
तुम ख़ौफ़-ओ-ख़तर से दर-गुज़रो
जो होना है सो होना है
गर हँसना है तो हँसना है
गर रोना है तो रोना है
तुम अपनी करनी कर गुज़रो
जो होगा देखा जाएगा

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

है अहले-दिल के लिए अब ये नज़्मे-बस्त-ओ-कुशाद
कि संगो-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद

बहुत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए
जो चंद अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं
बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें

मगर गुज़ारनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं

बुझा जो रौज़ने-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी

ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते

गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल ब-हम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं

जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं

रक़ीब से

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दह्‍र को दह्‍र का अफ़साना बना रक्खा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा’नाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है
तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
तूने देखी है वो पेशानी वो रुख़सार वो होंठ
ज़िंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने
हम पे मुश्तरिका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के दुख-दर्द के मा’नी सीखे
ज़ेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मानी सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तोले हुए मँडराते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए
फ़ाकामस्तों को डुबोने के लिए कहता है
आग-सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है

फै़ज़ अहमद फ़ैज़ को अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में तरक्कीपसंद दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फै़ज़ की कुछ बेहद मशहूर किताबें सारे सुखन हमारे , मेरे दिल मेरे मुसाफिर, आज के गम के नाम मार्क माय बुक के ऑनलाइन स्टोर पर उपलब्ध हैं।

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