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Poem

एक शाम

एक

रौशनी शराब में पड़ी बर्फ़-सी पिघल रही है
जुलाई की उमस भरी गीली सुबह-सी उदास तुम्हारी आँखों में
पिघल रहा है कोई अक्स
डॉली की पेंटिंग से रंग सोख लिए हों किसी ने जैसे

उदासी की बेंच पर बैठे हैं मैं और तुम
कुछ सवाल बीच में टँगे चमगादड़ से
कुछ जवाब पैरों के क़रीब काई-से जमे
अचानक कहा तुमने कि कोई अच्छी-सी कविता है तुम्हारे पास?
और मैंने टूटती-सी आवाज़ में पुकारा तुम्हारा नाम…

दो

कहीं दूर से आती बस पर चमका कोई नाम
तुम्हारी आँखों में चमका एक शब्द—पहाड़

दूर क्षितिज के थोड़ा पहले बादलों ने करवटें बदलीं
मैंने देखा तुम्हारी आँखों में उमड़ता पहाड़

हम चले जब तक साँसें उखड़ने न लगीं
पसीना चप्पलों और पैरों के बीच ख़ून-सा रिसता रहा और हम चले
हम चले जब तक दृश्यों ने धुँधला न कर लिया ख़ुद को
फिर आया वह मोड़ जहाँ से बदलनी थी हमें राह

पहाड़-सा हो गया दस क़दम का वह सफ़र

तीन

तुमने कहा—थोड़ा-सा एकांत दे दो मुझे अपना
मैंने अपनी कविताओं के अंतराल दे दिए तुम्हें

चार

तुम्हारे स्वप्नों में बीहड़ अँधेरे थे, कंदराएँ, क्षत-विक्षत आत्माएँ
मेरे स्वप्नों में एक मुकम्मल चेहरा था उदास

तुम्हारे स्वप्नों से एक अधूरा स्वप्न था बरसों पुराना
मेरे स्वप्नों में एक थका हुआ पूरापन

तुम्हारे स्वप्नों में सड़क के बीचोबीच आ गया एक नंगापन था
मेरे स्वप्नों में ढेरों कपड़ों में घुटती हुई साँसें

हमने देखा एक दूसरे के सपनों में जाकर
अँधेरा बस होने वाला था और लौटना था हमें

पाँच

क्यों उदास हो तुम?
मैंने पूछा और फिर दोनों चुप रहे उदास होने तक।

छह

जाते हुए चूमना था तुम्हें
मैंने पत्थर की बेंच को चूमा

देखना था तुम्हें ओझल होने तक
देखा आसमान में डूबती गौरैया को

कहने थे कुछ शब्द
गिना अँगुलियों पर अगली मुलाक़ात का अंतराल

तुम्हें मुस्कुराना था
आँखों में आ गया तिनका निकालते उठ गई तुम यकायक।

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